February 8, 2022

अब बहुत हुआ ऑनलाइन

कोरोना महामारी ने दुनिया को बदल कर रख दिया है इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता।इसने मिलना-जुलना,आपसी व्यवहार,कारोबार,शिक्षा और चिकित्सा के साथ-साथ और भी इंसानी ज़िंदगी से जुड़ी तमाम चीजों को बहुत हद तक बदल दिया है।
साहित्यिक गतिविधियाँ भी इसके प्रभाव से अछूती नहीं रहीं।बीमारी के डर और सुरक्षा संबंधी शासन के निर्देशों के पालन के चलते साहित्यिक आयोजन बंद हो गए।गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों/सेमिनारों का आयोजन और उनमे जाना बंद हो गया।इससे साहित्यकारों का चिंतन और सृजन भी प्रभावित हुआ।पर क्रियाशील/चिंतनशील प्राणी हर मुश्किल या प्रतिबंध का कोई न कोई हल/तोड़ ढूँढ़ ही लेता है।साहित्यिक आयोजनों के साथ भी यही हुआ।जब सीधे किसी स्थल पर इस तरह के आयोजन सुरक्षा की दृष्टि से बंद करने पड़े तो सोशल मीडिया ने साहित्यकारों का बाहें पसार कर स्वागत किया।फटाफट फेसबुक,व्हाट्सएप्प,गूगल मीट तथा स्ट्रीमयार्ड आदि पर एकल काव्य पाठ,गोष्ठियाँ और सेमिनार शुरू हो गए और साहित्यकारों का रुका कारोबार एक भिन्न रास्ते से फिर चल निकला।कार्यक्रमों के ख़ूब पोस्टर और बैनर बनने लगे।साहित्यकारों के चेहरों की खोई चमक लौट आई।दो साल से भी अधिक ये कार्यक्रम चलते रहे जो कमोबेश अब भी जारी हैं।लेकिन जैसे हर गतिविधि या प्रक्रिया का एक पीक पॉइंट होता है वैसे ही साहित्य की इन ऑनलाइन गतिविधियों का भी रहा।अब ऑनलाइन गोष्ठियों या कवि सम्मेलनों में इतने आदमी/साहित्यकार नहीं जुड़ते जितने शुरू में जुड़ते थे।कहीं-कहीं तो एकल लाइव में एक कवि घंटे भर काव्य पाठ करता रहता है और मुश्किल से दो या तीन लोग जुड़े होते हैं।यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं लेकिन इस प्रकार के ऑनलाइन कार्यक्रमों की लोकप्रियता में कमी तो निश्चित ही आई है।
हम यही कामना कर सकते हैं कि विश्व से जल्दी कोरोना की विदाई हो और सामान्य स्थितियाँ बहाल हों ताकि फिर से एक-दूसरे से आत्मीयता से  मिलना मुमकिन हो और कवि सम्मेलनों और मुशायरों की बहुप्रतीक्षित बहारें फिर से लौटें।
जय हिंद,जय भारत🙏🙏

February 7, 2022

आसमान से

नमस्कार मित्रो 🙏🙏
हज़रत दाग़ देहलवी साहब बहुत बड़े शायर गुज़रे हैं।उन्होंने
शायरी को जिस मुक़ाम तक पहुँचाया वो हम जैसे सुख़नवरों के लिए एक दर्स है।यदि हम उन जैसे महान शायरों के कलाम को पढ़कर थोड़ा-बहुत भी कुछ कहना सीख लें तो ज़िंदगी सँवर जाए।
अभी कुछ दिन पहले एक साहित्यिक ग्रुप में हज़रत दाग़ साहब की ग़ज़ल का एक मिसरा दिया गया था।उस ज़मीन में मैंने भी कुछ कोशिश की जो आप सब की प्रतिक्रिया के लिए हाज़िर कर रहा हूँ--

मिसरा  -- मुझको जमीं से लाग उन्हें आसमान से
                शायर दाग देहलवी
2    2 1      21      21   12    2 1  21  2

ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक
©️
इंसां   जो   छेड़   करता  रहा  आसमान  से,
डरते   रहेंगे    यूँ    ही     परिंदे   उड़ान  से।

कुछ हाल  तो हो जाता है आँखों से भी बयां,
हर  एक  बात   की  नहीं  जाती  ज़ुबान  से।

दुनिया  को  दर्स  देता  है जो मेल-जोल  का,
रिश्ता   हमारा   है   उसी    हिन्दोस्तान   से।
©️
सैलाब  में   घिरे  रहे  बस्ती  के  आम  लोग,
उतरे  न  ख़ास  लोग   मदद  को  मचान से।    

इच्छा  रखें  न  फल की, सतत कर्म बस करें,
संदेश ये  ही  मिलता  है  'गीता' के  ज्ञान से।

भड़काके  रात-दिन यूँ तअस्सुब की आग को,
खेला  न जाए  मुल्क के अम्न-ओ-अमान से।

मछली की आँख ख़्वाब में भेदी बहुत 'विवेक',
निकला  न तीर सच  में  तो उनकी कमान से।
               -- ©️ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार

चित्र--गूगल से साभार

February 6, 2022

हे!ऋतुराज वसंत जी बहुत-बहुत आभार


      
      हे ! ऋतुराज वसंत जी, बहुत-बहुत आभार
       ********************************
कल वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर राष्ट्रीय पल्लव काव्य मंच,रामपुर-उ0प्र0 की ओर से कवि  शिव कुमार चंदन के आवास पर वरिष्ठ कवि श्री राम सागर शर्मा की अध्यक्षता में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।
माँ शारदे के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलन व पुष्प अर्पित कर सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ जिसमें कवियों ने ऋतुराज वसंत के साथ -साथ विभिन्न सामयिक विषयों पर अपनी प्रभावशाली प्रस्तुति से कार्यक्रम को रोचक बना दिया।
कवि/ग़ज़लकार ओंकार सिंह विवेक ने अपनी प्रस्तुति देते हुए कहा--
   धरती माँ  का  कर दिया,मनमोहक शृंगार,
   हे!ऋतुराज वसंत जी, बहुत-बहुत आभार।
विवेक जी ने अपनी एक सहज ग़ज़ल भी कार्यक्रम में प्रस्तुत की
             ©️ओंकार सिंह विवेक
             है जल भी  साफ़ और ताज़ा हवा है,
             नगर  से  गाँव  ही  अपना  भला है।

             कहा   है  ख़ार  के  जैसा  किसी  ने,
             किसी ने ज़ीस्त को गुल-सा कहा है।

            किसे   लानत - मलामत  भेजते  हो,
            अरे!  वो  आदमी  चिकना  घड़ा  है।
              ©️
            ज़रा   सी  चूक  ने  बाज़ी  पलट  दी,
            सिवा अफ़सोस के अब क्या बचा है।

            बड़ा  नादां  है, जो  दरिया  के  आगे-
            समुंदर  प्यास   का  लेकर  खड़ा  है।

            उसे   धमका   रहा   है  रोज़  कुहरा,
            ये  कैसा  वक़्त  सूरज  पर  पड़ा  है।

            भला क्यों जाएँ मयख़ाने की जानिब,
            चढ़ा  शेरो-सुख़न  का  जब  नशा है।
                      ---  ©️ओंकार सिंह विवेक
            
कवि शिव कुमार चंदन ने कुछ इस प्रकार अपने उद्गार व्यक्त किए
   शारदे  निवार  दे  तू जग  के विविध ताप,
   ज्ञान ज्योति कौ प्रकाश अन्तस् जगाय दे।
कवि प्रदीप राजपूत माहिर ने कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति दी
      सुबह  वसंती, सांझ वसंती,रात वसंती है,
      हम से दीवानों की हर एक बात वसंती है।
कवि राम सागर शर्मा ने कहा
        टेसू फूल फूले कानन में,
        आग लगाए नव यौवन में।
        गई शिशिर हेमंत ठिठुर-ठिठुरकर
        ऋतु वसंत आ गई बदन में।
कवि जितेंद्र कुमार नंदा ने कहा
       फूल हैं हम सरस् कोमल,
       दिव्यता की शान हैं हम।
       जिसने भी हमको बनाया,
       उस साईं की पहचान हैं हम।
कार्यक्रम में आशीष पांडे तथा नवीन पांडे आदि के साथ शिव कुमार चंदन जी के समस्त परिजन उपस्थित उपस्थित रहे।अंत में मिष्ठान वितरण के उपरांत कवि चंदन द्वारा सभी का आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।

February 4, 2022

साहित्यकार स्मृतिशेष श्री हीरालाल "किरण"


नमस्कार मित्रो🙏🙏
आज रामपुर-उ0प्र0 के एक ऐसे साहित्यकार के संबंध में आपके साथ संस्मरण साझा करने का मन हो रहा है जो जीवनपर्यंत बहुत ही साधारण दशा में जीवन यापन करते हुए जनसरोकारों से जुड़ा भावना प्रधान साहित्य सृजन करते रहे।जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ रामपुर के  स्मृतिशेष साहित्यकार श्री हीरालाल "किरण"जी की।

         स्वर्गीय श्री हीरालाल किरण जी से मेरा पहला संपर्क वर्ष 1984 में हुआ।मेरी नियुक्ति उसी वर्ष प्रथमा बैंक, जो अब प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक के नाम से जाना जाता है, पीपल टोला मेस्टन गंज,रामपुर में हुई थी।उन्हीं दिनों मेरी कुछ प्रारम्भिक सामयिक रचनाएँ नगर के प्रतिष्ठित समाचार पत्र "रामपुर समाचार" में प्रकाशित हुई थीं।मेरी उन रचनाओं को पढ़कर मेरा पता पूछते हुए श्री किरण जी प्रथमा बैंक की पीपल टोला शाखा में आए और अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं यहाँ आपकी शाखा के पीछे ही स्थित टैगोर शिशु निकेतन विद्यालय में शिक्षक हूँ।उन्होंने कहा कि रामपुर समाचार में प्रकाशित हुई आपकी रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं,भविष्य में आप एक अच्छे रचनाकार बनेंगे।फिर उन्होंने मुझे अपने द्वारा गठित और संचालित "गुंजन साहित्यिक मंच" के बारे में बताया तथा कहा कि आप हमारे यहाँ होने वाली काव्य गोष्ठियों में आया करें।उस समय मैं किरण जी से बहुत प्रभावित हुआ तथा उनका ह्रदय से आभार प्रकट किया।इसके बाद मैं "गुंजन मंच" की काव्य गोष्ठियों  में जाने लगा।किरण जी गुंजन की लगभग हर काव्य गोष्ठी की सूचना देने मेरे घर अथवा कार्यालय ज़रूर आते थे।अनेक बार मैं बैंकिंग कार्यों की अति व्यस्तता या अन्य कारणों के चलते गोष्ठियों में नहीं जा पाता था परंतु आदरणीय किरण जी ने अपनी ओर से कभी मुझे सूचना या निमंत्रण देने में कोई कोताही नहीं की।मैं उनके सौम्य-सरल व्यवहार और हिंदी साहित्य के प्रति समर्पण भाव से सदैव प्रभावित रहा।चेहरे पर सादगी और सौम्यता लिए हुए इकहरे बदन के श्री किरण जी साईकिल पर सदैव चुस्ती और फुर्ती के साथ शहर की गलियों में घूमकर साहित्यकारों को उत्साहित एवं प्रेरित करते हुए साहित्यिक आयोजनों की सूचना देने का काम निःस्वार्थ भाव से करते रहते थे।शहर के कई ऐसे रचनाकारों से मैं  परिचित हूँ जिनको प्रोत्साहित करने का कार्य किरण जी आजीवन करते रहे।
 श्री किरण जी के साहित्य में भले ही कुछ मूर्धन्य साहित्य मनीषी शिल्पगत त्रुटियां ढूँढ लें पर उनका सहज,सरल और स्वाभाविक सृजन भावना के स्तर पर हर आम आदमी के दिल को छूने वाला है।
 स्मृतिशेष किरण जी की विभिन्न रचनाओं के कुछ अंश यहाँ उदधृत कर रहा हूँ जिससे आपको उनके भावों की गहराई और अभिव्यक्ति की सरलता का अनुमान हो जाएगा--
 
  --मेरा क्या मैं तो जी लूँगा,ये खारे आँसू पी लूँगा।
     लेकिन अपनी बात कहो तुम,ये जीवन कैसे काटोगे।

--अपनी व्यथा न कहना मन रे,जग तो हँस रह जाएगा।
    आँसू की बरसात न करना,नीर व्यर्थ बह जाएगा।

---प्रीत मन की वह लहर हूँ,बस गया इसमें नगर है।
      पथ नए खुलते दिखे हैं,जुड़ गया सारा शहर है।

---दर्पण में जब-जब मैंने, मन में रख अंतर देखा।
      जो चित्र बने थे उर में,उनकी उभरी थी रेखा।
            ---स्मृतिशेष हीरालाल किरण

किरण जी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी परंतु फिर भी साहित्य में अपनी गहन रुचि और समर्पण भाव के कारण साहित्यिक आयोजनों में यथाशक्ति आर्थिक योगदान अवश्य किया करते थे।उनकी बेटी गरिमा एक बहुत ही प्रतिभाशाली छात्रा रही।जब वह अध्ययनरत थी तो गोष्ठी/समारोह आदि में उसकी प्रतिभा और प्रगति के बारे में किरण जी से अक्सर ही चर्चा हुआ करती थी।मैंने उनकी होनहार बेटी की प्रतिभा से प्रभावित होकर अपनी बड़ी बेटी का नाम भी गरिमा रखा।बाद के दिनों में जब कभी उनसे मुलाक़ात होती थी तो मुझसे वह यह ज़रूर पूछते थे कि भाई!तुम्हारी गरिमा के क्या हाल चाल हैं,उसकी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है।उनकी  ये सब बातें याद करके जी भर आता है।
आज साहित्य जगत में अपने स्थान से मैं संतुष्ट हूँ।एक ग़ज़ल संग्रह "दर्द का एहसास" आ चुका है अक्सर मंचों पर काव्य पाठ को भी जाता हूँ और आजकल दूसरे ग़ज़ल संग्रह पर काम चल रहा है जो जल्द ही प्रतिक्रिया के लिए आपके संमुख होगा परन्तु मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि आज साहित्य जगत में जो सम्मान मुझे हासिल है उसमें श्री किरण जी की प्रेरणा का भी बहुत बड़ा योगदान है।
ऐसे सहज और सरल ह्रदय इंसान तथा साहित्य को समर्पित रहे व्यक्तित्व की स्मृतियों को मैं ह्रदय की असीम गहराइयों से श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ🙏🙏🌷🌷🌷🌷
             ---ओंकार सिंह विवेक






     

February 1, 2022

जो मुददआ नहीं है उसे -----

सादर प्रणाम मित्रो🙏🙏
आज साहित्यिक संस्था विद्योत्तमा फाउंडेशन नाशिक,महाराष्ट्र से साहित्यिक सेवाओं हेतु सम्मान पत्र प्राप्त हुआ जो आप सब के साथ साझा करते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है।इस तरह के प्रोत्साहन प्रतिसाद पाकर सृजन अभिरुचि को नई ऊर्जा मिलती है।आज फिर से एक नई जदीद ग़ज़ल आप सब की ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ।
आनंद लें और बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँ--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
हम   कैसे  ठीक  आपका   ये   मशवरा  कहें,
जो   मुददआ  नहीं   है   उसे   मुददआ  कहें।

मालूम   है    कि   होगा  हवाओं   से  सामना,
फिर  किस  लिए  चराग़  इसे  मसअला कहें।

इंसां  को  प्यास  हो  गई   इंसां  के  ख़ून  की,
वहशत  नहीं   कहें  तो  इसे  और  क्या  कहें।
©️
है  रहज़नों   से   उनका   यहाँ  राबिता-रसूख़,
तुम  फिर भी  कह  रहे  हो  उन्हें रहनुमा कहें।

वो  सुब्ह  तक  इधर  थे मगर  शाम  को उधर,
ऐसे   अमल   को   सोचिए  कैसे  वफ़ा   कहें।

इंसानियत  का  दर्स  ही  जब सबका अस्ल है,     
फिर क्यों किसी भी धर्म को आख़िर बुरा कहें।

मिलती  है  दाद भी  उन्हें  फिर  सामिईन  की,
शेरो-सुख़न  में  अपने  जो  अक्सर  नया कहें।
               ----©️ओंकार सिंह विवेक


January 31, 2022

संविधान का मान

कुंडलिया : 
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         ---ओंकार सिंह विवेक
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जागे  सबकी  चेतना,रखें  सभी यह ध्यान,
संविधान का हो नहीं,किंचित भी अपमान।
किंचित भी अपमान,करें सब इसकी पूजा,
इसके  जैसा   श्रेष्ठ, नहीं  दुनिया  में दूजा।
रखना  हमें   सदैव,राष्ट्र के  हित को आगे,
सबके  मन  में  काश!भावना  ऐसी जागे।
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                      --ओंकार सिंह विवेक
चित्र---गूगल से साभार

January 28, 2022

जिसकी बनती हो बने----

कुंडलिया---ओंकार सिंह विवेक
         सर्वाधिकार सुरक्षित
🌷
जिसकी  बनती  हो  बने, सूबे  में  सरकार,
हर  दल   में  हैं  एक-दो, उनके  रिश्तेदार।
उनके   रिश्तेदार, रोब   है   सचमुच  भारी,
सब   साधन  हैं  पास,नहीं  कोई  लाचारी।
अब उनकी  दिन-रात,सभी से गाढ़ी छनती,
बन जाए सरकार,यहाँ  हो  जिसकी बनती।
🌷       --ओंकार सिंह विवेक
          सर्वाधिकार सुरक्षित

January 26, 2022

लग रहा है डर हमें उनकी इनायत देखकर

ग़ज़ल--ग़ज़ल-ग़ज़ल   बस यही एक जुनून है मुझे ।अपने
भावों को काव्य रूप में अभिव्यक्त करने के लिए मेरी पसंदीदा विधा यही है।यद्यपि रस परिवर्तन के लिए मैं अक्सर दोहे,मुक्तक,नवगीत और कुंडलिया आदि भी कह लेता हूँ पर सहज भावाभिव्यक्ति मैं ग़ज़ल विधा में ही कर पाता हूँ।आपका निरंतर प्रोत्साहन भी मिल रहा है।मैं इसके लिए सबका ह्रदय से आभारी हूँ।आप मेरे ब्लॉग पर आते हैं,चर्चा करते हैं और बहुमूल्य प्रतिक्रिया भी देते हैं जो मेरी सृजनात्मकता को संजीवनी प्रदान करता है।आपका प्यार यूँ ही मिलता रहे।
आज फिर से एक नई ग़ज़ल आप सब के बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं हेतु ----
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️
यक-ब-यक  अपने  लिए इतनी मुहब्बत देखकर,
लग  रहा  है  डर  हमें  उनकी  इनायत  देखकर।

एक-दो  की  बात  हो  तो  हम  बताएँ  भी  तुम्हें,
जाने  कितनो  के  डिगे  ईमान   दौलत  देखकर।

हुक्मरां  का  क्या अमल  है और है कैसा निज़ाम,
ख़ुद समझ लें आम जन की आप हालत देखकर।
©️
आप चाहे  कुछ भी कहिए ,हो नहीं सकता कभी,
जो न खाए  ख़ौफ़  झूठा,सच की ताक़त देखकर।

दरमियां  काँटों  के भी  खिलना  नहीं  जो छोड़ते,
सीख तो मिलती है उन फूलों की हिम्मत देखकर।

खेत भी होरी  का  गिरवी,काम  भी  मिलता नहीं,
आ  रहा मुँह को कलेजा  उस पे आफ़त देखकर।
  
धर्म   का   नश्शा   सुँघाकर   माँगते  हैं  वोट  वो,
कैसे  दिल तड़पे  न  ये  सस्ती सियासत देखकर।
             ---©️ ओंकार सिंह विवक



 

January 23, 2022

फ़िक्र फूली-फली नहीं होती----तो

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️
फ़िक्र   फूली-फली    नहीं  होती,
तो    हसीं   शायरी   नहीं  होती।

ख़ास लोगों से ही है दिल मिलता,
सबसे   तो   दोस्ती   नहीं  होती।

हौसला   हो   अगर   बुलंदी  पर,
कोई  मुश्किल  बड़ी  नहीं  होती।
©️
तर्क   मज़बूत   उसके   हैं  इतने,   
हमसे कुछ  काट  ही  नहीं  होती।

चंद  लोगों   के  साफ़   मन  होते,
तो   यूँ   बस्ती  जली  नहीं  होती।

सब जतन  कर लिए,मगर उनकी,
दूर     नाराज़गी     नहीं     होती।

हद तो  यह है कि बात अब उनसे,
ख़्वाब तक  में  कभी  नहीं  होती।
      ---©️ओंकार सिंह विवेक

January 22, 2022

झूठ पर झूठ वो बोलता रह गया

बार-बार चिंतन को विवश करती और ह्रदय को झकझोरने
वाली कड़वी सच्चाइयां सृजन का आधार बनती ही हैं।और फिर बने भीं क्यों नहीं,यह भाव ही तो अहसास कराता है कि हमारे अंदर की संवेदनशीलता जीवित है।
तो लीजिए साथियो ऐसे ही कुछ भावों के सुमन  पिरोकर फिर ग़ज़ल की माला में आपके सम्मुख रख रहा हूँ प्रतिक्रिया की उम्मीद के साथ🙏🙏

ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक

©️
झूठ  पर   झूठ  वो   बोलता  रह  गया,
देखकर  मैं   ये   हैरान-सा   रह   गया।  
   
अर्ज़  हाकिम  ने लेकिन  सुनी  ही नहीं,
एक  मज़लूम   हक़  माँगता  रह  गया।
      
जीते  जी  उसके, बेटों  ने  बाँटा  मकां,
बाप अफ़सोस करता हुआ  रह   गया।
©️
जाने  वाले  ने  मुड़कर  न  देखा  ज़रा,
दुख  हमें  बस इसी बात का  रह गया।

नाम  से  उनके चिट्ठी  तो  इरसाल  की,
पर लिफ़ाफ़े  पे  लिखना पता रह गया।

हाल  यूँ  तो  कहा  उनसे दिल  का बहुत,
क्या करें फिर भी कुछ अनकहा रह गया।
©️
वो   हिक़ारत   दिखाता   रहा, और  मैं,
"शब्द  ही  प्यार  के  बोलता  रह  गया"

देखकर  हाथ  में  उनके  आरी 'विवेक',
डर  के  मारे  शजर  काँपता  रह गया।
            --- ©️ओंकार सिंह विवेक

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January 21, 2022

चुनावी मौसम : एक नवगीत


चित्र-गूगल से साभार
आज एक नवगीत चुनावी मौसम के नाम
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    --©️ओंकार सिंह विवेक

राजनीति के कुशल मछेरे,
फेंक रहे हैं जाल।

जिस घर में थी रखी बिछाकर,
वर्षों अपनी खाट।
उस घर से अब नेता जी का,
मन हो गया उचाट।
देखो यह चुनाव का मौसम,
क्या-क्या करे कमाल।                   

घूम रहे हैं गली-गली में,
करते वे आखेट।
लेकिन सबसे कहते सुन लो,
देंगे हम भरपेट।
काश!समझ ले भोली जनता,
उनकी गहरी चाल।

कुछ लोगों के मन में कितना,
भरा हुआ है खोट।
धर्म-जाति का नशा सुँघाकर,     
माँग रहे हैं वोट।
ऊँचा कैसे रहे बताओ,
लोकतंत्र का भाल।

नैतिक मूल्यों, आदर्शों को,
कौन पूछता आज,
जोड़-तोड़ वालों के सिर ही,
सजता देखा ताज।
जाने कब अच्छे दिन आएँ,
कब सुधरे यह हाल।
    --- ©️ ओंकार सिंह विवेक

चित्र : गूगल से साभार

January 16, 2022

चुनावी मौसम पर कुंडलिया

कुंडलिया : चुनावी मौसम
           --ओंकार सिंह विवेक
खाया  जिस  घर  रात-दिन,नेता जी ने  माल,
नहीं  भा  रही  अब  वहाँ, उनको  रोटी-दाल।
उनको  रोटी-दाल , बही   नव   चिंतन  धारा,
छोड़   पुराने   मित्र , तलाशा   और   सहारा।
कहते  सत्य  विवेक,नया  फिर  ठौर  बनाया,
भूले  उसको  आज ,जहाँ  वर्षों  तक खाया।
          ---ओंकार सिंह विवेक
          (सर्वाधिकार सुरक्षित)
चित्र : गूगल से साभार
चित्र : गूगल से साभार

January 13, 2022

लोहड़ी व मकर संक्रांति

💥दोहे:मकर संक्रांति पर💥
                  -–-ओंकार सिंह विवेक
 💥
  सूरज  दादा  चल   दिए ,अब  उत्तर  की  ओर,
  शनैः-शनैः  कम  हो रहा,शीत  लहर  का ज़ोर।
 💥
  दिखलाकर सबको यहाँ, प्रतिदिन नए  कमाल,
  सर्दी   रानी   जा   रहीं  ,  ओढ़े  अपनी  शाल।
💥
 शुद्ध  भाव  से  कीजिए , भजन-साधना-ध्यान,
 पर्व   मकर   संक्रांति  का , देता  है  यह  ज्ञान।
💥
 समरसता  है  बाँटता ,  खिचड़ी  का  यह  पर्व,
 करें न क्यों संक्रांति पर, फिर  हम  इतना गर्व।
💥
  जीवन  में   उत्साह   का , हो  सबके    संचार,
  कहता है   संक्रांति  का , यह  पावन  त्योहार।
 💥
                                ---–ओंकार सिंह विवेक
                                       सर्वाधिकार सुरक्षित
  
  

January 12, 2022

हाड़ कँपाती सर्दी आई है

वृक्षों के संरक्षण को लेकर

           कुंडलिया 
        ---ओंकार सिंह विवेक
*********************************
देते   हैं  सबको  यहाँ,प्राणवायु   का   दान,

फिर भी वृक्षों की मनुज,लेता है नित जान।

लेता है नित जान, गई  मति  उसकी  मारी,

जो वृक्षों पर आज,चलाता पल-पल आरी।

कहता सत्य विवेक,वृक्ष हैं कब कुछ  लेते,

वे तो  छाया-वायु,,फूल-फल  सबको  देते। 
********************************
        ---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

January 8, 2022

बड़ी दिलकश तुम्हारी शायरी है

ग़ज़ल--  ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
यूँ   लगता   है,  गुलों   की  ताज़गी  है,
बड़ी    दिलकश   तुम्हारी   शायरी   है।

कमी   कुछ  आपसी   विश्वास   की  है, 
अगर  बुनियाद  रिश्तों   की   हिली  है।

न   जाने     ऊँट   बैठे    कौन   करवट,
दिये   की   फिर   हवाओं   से  ठनी  है।
©️
ज़ुबां  से   फिर  गया  है  वो   भी  देखो,
जिसे   समझा,   उसूलों   का   धनी  है।

किए    हैं    तीरगी    से    हाथ   दो-दो,
मिली   यूँ   ही    नहीं   ये    रौशनी   है।

सो  उसकी   फ़िक्र तो  होगी ही   आला,
किताबों   से    जो   गहरी    दोस्ती   है।

सदा  है   मौत   के  साये   में,  फिर  भी,
सँवरती   और     सजती     ज़िंदगी   है।
       ----©️ ओंकार सिंह विवेक

January 6, 2022

कुंडलिया : सर्दी के नाम

कुंडलिया 
******
        ----ओंकार सिंह विवेक
सर्दी  से   यह  ज़िंदगी , जंग   रही  है  हार,
हे भगवन! अब  धूप का,खोलो  थोड़ा द्वार।
खोलो   थोड़ा   द्वार,  ठिठुरते  हैं   नर-नारी,
जाने  कैसी  ठंड , जमी  हैं   नदियाँ  सारी।
बैठे  हैं  सब  लोग ,पहन   कर   ऊनी  वर्दी,
फिर भी रही न छोड़,बदन को  निष्ठुर सर्दी।
           ---ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

January 1, 2022

मिला है ख़ुश्क दरिया देखने को

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह 'विवेक'
©️
मिला  है  ख़ुश्क  दरिया  देखने को,
मिलेगा  और  क्या-क्या देखने को।

किसी  मुद्दे  पे  सब  ही एकमत हों,
कहाँ  मिलता  है  ऐसा  देखने  को।

तो   गुजरेंगे  अजूबे  भी   नज़र  से,
अगर निकलोगे  दुनिया  देखने को।
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किसी  के  पास  है  अंबार  धन का,
कोई  तरसा  है   पैसा   देखने  को।

सुना  आँधी  को  पेड़ों  से  ये कहते,
तरस   जाओगे   पत्ता   देखने  को।

बना था ज़ेहन में कुछ अक्स वन का,
मिला  कुछ  और  नक़्शा देखने को।

नज़र   दहलीज़   से   कैसे  हटा  लूँ,
कहा   है   उसने  रस्ता   देखने  को।
    --- ©️ ओंकार सिंह 'विवेक'

December 31, 2021

नए साल की पूर्व संध्या पर काव्य गोष्ठी

आज वर्ष 2021 के अंतिम दिन अर्थात वर्ष 2022 की पूर्व संध्या पर  उत्तर प्रदेश उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल की रामपुर इकाई के ज़िला अध्यक्ष श्री अनिल अग्रवाल जी के आवास पर रंगारंग काव्यगोष्ठी का आयोजन हुआ।गोष्ठी में व्यापारी बंधुओं तथा अन्य गणमान्य श्रोताओं ने कविगण की सामयिक रचनाओं का रसास्वादन करते हुए उनका भरपूर उत्साहवर्धन किया।कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश शासन के दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री श्री सूर्यप्रकाश पाल जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।इस अवसर पर मैंने अपने ग़ज़ल संग्रह "दर्द का अहसास" की प्रति भी श्री सूर्यप्रकाश पाल जी को भेंट की।
कार्यक्रम का संचालन रामपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवकुमार चंदन जी द्वारा किया गया।कार्यक्रम समापन पर मेज़बान श्री अनिल अग्रवाल जी द्वारा कवियों को स्मृति चिन्ह देकर सभी का आभार व्यक्त किया गया।

मित्रों आप सब को नूतन वर्ष की शुभकामनाओं के साथ इस वर्ष की ब्लॉग पर अंतिम पोस्ट अपने पसंदीदा शायर जनाब ओमप्रकाश नदीम साहब के इस मुक्तक के साथ संपन्न करता हूँ--
न छाये ग़ुबार आइने पर किसी के,
फ़ज़ा में कहीं धूल उड़ने न पाए।
मुहब्बत के दीपक की लौ तेज़ कर दे,
नया साल ऐसी हवा ले के आए।
     --ओमप्रकाश नदीम
प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक
अवसर के कुछ छाया चित्र

नया साल : एक कामना

नया साल- एक कामना
       ---ओंकार सिंह विवेक
गए   साल  जैसा   नहीं   हाल  होगा,
तवक़्क़ो  है  अच्छा  नया साल होगा।

न  होगा  फ़क़त  फाइलों-काग़ज़ों  में,
हक़ीक़त में भी मुल्क ख़ुशहाल होगा।

बढ़ेगी  न  केवल  अमीरों  की  दौलत,
ग़रीबों  के हिस्से भी कुछ माल होगा।

रहेगा   सजा    आशियां  रौशनी   का,
घरौंदा   अँधेरे    का   पामाल   होगा।

जगत  में  सभी  और  देशों  से ऊँचा,
हमारे  वतन  का  ही बस भाल होगा।
           --ओंकार सिंह विवेक
            सर्वाधिकार सुरक्षित
चित्र-गूगल से साभार

चित्र--गूगल से साभार


December 30, 2021

सर्दी के नाम

अक्सर लोग कहते हैं कि आदमी को चैन कहाँ है? गर्मी में बहुत गर्मी की ,बरसात में बहुत बारिश की और सर्दी में  कड़क ठंड की शिकायत करता ही रहता है।अरे भाई! सर्दी में अगर सर्दी और गर्मी में अगर गर्मी न होगी तो फिर क्या होगा।बात ठीक भी लगती है कि भिन्न-भिन्न ऋतुओं के अपने भिन्न-भिन्न प्रभाव तो होंगे ही,इसमें शिकायत जैसी क्या बात है।लेकिन इस सत्य और दार्शनिकता से थोड़ा हटकर सोचने की भी ज़रूरत है।आदमी को बातचीत,मनोरंजन ,मस्ती और चुहलबाज़ी का भी तो कोई बहाना चाहिए कि नहीं।जीवन को ऊर्जावान और सक्रिय बनाए रखने के लिए ये सब भी तो ज़रूरी है।सोचिए चिलचिलाती धूप में
जब कोई पसीने से तरबतर होकर अपने दोस्तों से इस बात की शिकायत करता है कि भाई आज तो हद ही हो गई सूरज तो जैसे
भट्टी में झोंकने पर ही आमादा है तो बाक़ी लोग भी उसके डायलॉग से सहमत होते हैं,कसमसाते हैं,मुस्कुराते हैं और फिर बात से बात निकलकर परेशानी के आलम में भी हँसने-मुस्कुराने का बहाना खोज लेते हैं।ऐसा करना माहौल को हल्का-फुल्का रखने के लिए ज़रूरी भी होता है।यदि गर्मी की शिकायत करने वाले साथी को दार्शनिक अंदाज़ में यह कहते हुए टोक दिया जाए कि भाई तुम यह क्या शिकायत लेकर बैठ गए गर्मी में तो ऐसा ही होता है तो संवाद ही टूट जाएगा और मौज-मस्ती तथा मनोरंजन का जो मौक़ा बना है वह भी हाथ से जाता रहेगा।
अतः हर चीज़ को धीर-गंभीर होकर दार्शनिकता के चश्मे से न देखा जाए और शिकवे-शिकायतों और चुहलबाज़ी तथा गप्पबाज़ी
का भी कभी-कभी आनंद लिया जाए।
 मैं भी के आज के मौसम से शिकायत करते हुए अपने इस दोहे के साथ वाणी को विराम देता हूँ, नमस्कार🙏🙏

चित्र--गूगल से साभार



December 25, 2021

अटल जी की स्मृति में

अटल जी की स्मृति में कहे गए कुछ दोहे
*******************************
             ---©️  ओंकार सिंह विवेक
🌷
 नैतिक  मूल्यों  का किया ,सदा मान-सम्मान।
 दिया अटल जी ने नहीं ,ओछा कभी बयान।।
🌷
 विश्व मंच  पर  शान  से , अपना  सीना  तान।
 अटल बिहारी ने  किया, हिंदी  का यशगान।।
🌷
 राजनीति  के  मंच  पर , छोड़ अनोखी  छाप।
 सब के दिल में बस गए,अटल बिहारी आप।।
🌷
 चलकर पथ पर सत्य के,किया जगत में नाम।
 अटल बिहारी आपको,शत-शत बार प्रणाम।।                           ।।
🌷
              ------©️  ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

December 21, 2021

अब एक भी दरख़्त पे पत्ता नहीं रहा

इस ग़ज़ल पर लोकप्रिय फेसबुक साहित्यिक पटल "ग़ज़लों की दुनिया" में शताधिक साहित्य मनीषियों के उत्साहजनक कमेंट्स
प्राप्त हुए सो आप सब के साथ ग़ज़ल साझा कर रहा हूँ🙏🙏
प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ

ग़ज़ल- ©️ ओंकार सिंह विवेक
                 कैसे    कहें    क़ुसूर    हवा    का    नहीं   रहा,
                 अब   एक  भी  दरख़्त   पे   पत्ता   नहीं   रहा।
                 ©️
                 इक  दूसरे  पे   जान   छिड़कते  थे   हर  घड़ी ,
                 अब  भाइयों   के  बीच  में   रिश्ता   नहीं रहा।
                 
                 लेना    तो   चाहता   था   वो  बच्चे  के   वास्ते,
                 लेकिन  बजट  में   उसके  खिलौना  नहीं  रहा।
                 ©️
                 बाक़ी  तो जस  का  तस  ही  रहा नाश्ते में सब,
                 बस   अब   हमारी   चाय   में  मीठा  नहीं रहा।
                  
                 झूठे   हैं   ऐसे  लोग  जो  कहते   हैं   रात-दिन,
                 अब   झूठ   के   बिना   तो  गुज़ारा  नहीं  रहा।
                   ©️
                 घर   की   ज़रूरतों   ने   बड़ा   कर  दिया उसे,
                 बचपन के  दौर   में  भी वो  बच्चा   नहीं  रहा।

                 हम बा-वफ़ा हैं आज भी कल की तरह 'विवेक',
                 ये   और    बात   उनको   भरोसा   नहीं   रहा।
                                      ©️ओंकार सिंह विवेक

December 19, 2021

एक नवगीत सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के नाम

आज एक नवगीत सामाजिक विरोधाभासों
 और विसंगतियों के नाम
 *******************************
 ---  ©️ओंकार सिंह विवेक
सच की फौजों पर अब,  
झूठों का दल भारी है।              

सड़क  गाँव  तक  आकर,
नागिन-सी फुँफकार भरे।
पगडंडी बेचारी,
थर-थर  काँपे और डरे।
नवयुग में  विकास  की,
यह अच्छी तैयारी है।

जनता को तो देता,
केवल वादों की गोली।
और हरे नोटों से,
भरता नित अपनी झोली।
जनसेवक है या फिर,
वह कोई  व्यापारी है?

रहा तगादे* वाली,
चाबुक से वह डरा-डरा।
ख़ुद भूखा भी सोया,
पर क़िस्तों का पेट भरा।
होरी पर बनिए की,
फिर भी शेष उधारी है।
  -----©️ओंकार सिंह विवेक

*मूल शुद्ध शब्द तक़ाज़ा है 
परंतु हिंदी में तगादा भी मान्य है
चित्र--गूगल से साभार
चित्र-गूगल से साभार




December 13, 2021

घर से निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर

मित्रो सादर प्रणाम🙏🙏
समाज में या हमारे आस-पास जो कुछ घटित हो रहा होता है
यों तो उसे सभी देखते हैं परंतु एक साहित्यकार हर घटना या
दृश्य को एक ख़ास नज़रिए से देखता है।यही ख़ास नज़रिया
उसकी सृजनशीलता को उड़ान देता है।एक रचनाकार की
नज़र में हर आम बात या घटना भी कुछ ख़ास होती है।अपने
आस-पास से प्रेरणा लेकर मन में मंथन हुआ और फिर एक 
नई ग़ज़ल हो गई जो आपकी अदालत में पेश है--
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
2     2  1  2  1 2 2   2     2  1  2  1 2 2
©️
घर  से  निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर,
मानेंगे  पंछियों  की  वे  अब  उड़ान  लेकर।

वहशत  अगर  नहीं  है  तो बोलिए ये क्या है,
ख़ुश  हो  रहा  है इंसां, इंसां की जान लेकर।

होगा  नहीं   यक़ीनन  वो  आपके  मुताबिक़,
क्या  कीजिएगा  हज़रत  मेरा  बयान  लेकर।
©️
हरगिज़ न साथ जाएगा ,दोस्त वक़्ते-आख़िर,
जिस धन का जी रहे हो मन  में गुमान लेकर।

मजबूर  हो  गया  है  फुटपाथ  पर  बसर को,
क़र्ज़े  ने  जान  उसकी  छोड़ी  मकान  लेकर।

दफ़्तर में  काम  का नित रहता है बोझ इतना,
घर लौटते  हैं  अक्सर  ज़ेहनी  थकान  लेकर।
       --- ©️ओंकार सिंह विवेक


December 11, 2021

सर्दी का नवगीत : अलसाई-सी धूप

आज एक नवगीत : सर्दी के नाम
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      --  ©️ओंकार सिंह विवेक
छत पर आकर बैठ गई है,
अलसाई-सी धूप।

सर्द हवा खिड़की से आकर,
मचा रही है शोर।
काँप रहा थर-थर कुहरे के,
डर से प्रतिपल भोर।
दाँत बजाते घूम रहे हैं,
काका रामसरूप।

अम्मा देखो कितनी जल्दी,
आज गई हैं जाग।
चौके में बैठी सरसों का,
घोट रही हैं साग।
दादी छत पर  ले आई हैं,
नाज फटकने सूप।

आए थे पानी पीने को,
चलकर मीलों-मील।
देखा तो जाड़े के मारे,
जमी हुई थी झील।
करते भी क्या,लौट पड़े फिर,
प्यासे वन के भूप।
    ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार

December 9, 2021

दोहे सर्दी के

     दोहे सर्दी के
******///***********
         --ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
चल  उठ  देनी  है  हमें, अब सर्दी  को  मात,
बहिन  रज़ाई  कह रही ,कंबल से यह  बात।

थोड़ा-सा   साहस  जुटा , किए  एक-दो  वार,
कुहरा  लेकिन  अंत  में , गया  सूर्य  से  हार।

सर्द   हवा   ने   दे  दिया , जाड़े   का  पैग़ाम,
मिल जाएगा कुछ  दिनों ,कूलर को  आराम।

हाड़  कँपाती   ठंड   में , खींचेंगे   सब  कान,
गीजर अपने स्वास्थ्य का,रखना थोड़ा ध्यान।

मूँगफली   कहने  लगी , सुन  ले  ए  बादाम,
मैं तुझ से कम दाम में,करती तुझ-सा काम।

गर्म  सूट में  सेठ का , जीना  हुआ   मुहाल,
नौकर  ने बस  शर्ट  में,जाड़े  दिए  निकाल।

मचा  दिया  कैसा  यहाँ , कुहरे  ने  कुहराम,
दिन निकले ही लग रहा,घिर आई  हो शाम।
 --ओंकार सिंह विवेक(सर्वाधिकार सुरक्षित)

चित्र--गूगल से साभार
 चित्र--गूगल से साभार

December 7, 2021

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव---एक विचार
साथियो यथायोग्य अभिवादन🙏🙏

आज अपने अनुभव के आधार पर एक संवेदनशील विषय पर कुछ लिखने का मन हुआ सो  लिख रहा हूँ। निश्चित तौर पर बहुत
से साथी मुझसे सहमत नहीं होंगे।मैं उनकी असहमति का सम्मान
करता हूँ क्योंकि किसी विषय में कुछ लोगों की  असहमति ही
एक नए विचार को जन्म देकर विमर्श का मार्ग प्रशस्त करती है।
     -- जैसे-जैसे आदमी ज़िंदगी में तमाम मुश्किलों से दो-चार होकर आगे बढ़ता है उसके अनुभव और आत्मविश्वास का भंडार बढ़ता जाता है। अनुभव मुश्किलों से टकराने और बिना रुके आगे बढ़ने में आदमी का मददगार साबित होता है।निःसंदेह वरिष्ठ व्यक्तियों के पास नए लोगों के मुक़ाबले अधिक अनुभव होता है। कनिष्ठ पीढ़ी का यह दायित्व बनता है कि वे वरिष्ठ लोगों का सम्मान करें और उनके अनुभव का लाभ उठाएँ।
यही अपेक्षा वरिष्ठ लोगों से भी की जाती है कि यदि किसी कनिष्ठ
के पास कोई नई जानकारी या ज्ञान है तो वे भी बिना उम्र को बीच मे लाए उसे सीखकर लाभ उठाएँ।
जहाँ तक ज्ञान का प्रश्न है यह अपेक्षाकृत भिन्न क्षेत्र है।निःसंदेह वरिष्ठ साथियो के पास  जीवन के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को लेकर नई पीढ़ी की अपेक्षा कई गुना अधिक अनुभव होता है।
परंतु किसी क्षेत्र में ज्ञान का जहाँ तक प्रश्न है वह एक कनिष्ठ व्यक्ति के पास भी वरिष्ठ जनों से अधिक हो सकता है।इस सत्य को स्वीकारने में कोई अहम आड़े नहीं आना चाहिए।
कई अवसरों पर यह देखने में आता है कि जब  कोई कनिष्ठ किसी  विशेष में अपने  विशेष ज्ञान के आधार पर किसी वरिष्ठ जन की  तथ्यात्मक त्रुटि की ओर विनम्रता से इंगित करता है तो वे इसे अन्यथा लेते हैं जो शायद ठीक नहीं है।
 कई वरिष्ठ जनों को ऐसे भी कहते सुना गया है की यह चार दिन का बच्चा हमारी ग़लती निकालने चला है या हमें सिखाने चला है। नए लोगों को तो बड़ों से बात करने की जैसे तमीज़ ही नहीं रह गई है---वगैरहा वगैरहा---।
वरिष्ठ जनों के मुँह से ऐसी बातें तब तो ठीक हैं जब किसी कनिष्ठ द्वारा कोई अशोभनीय या गरिमा के प्रतिकूल टिप्पणी की गई हो या फिर उसने अपने विशिष्ट ज्ञानार्जन के आधार पर  जो टिप्पणी की है वह तथ्यों के आधार पर ठीक न हो।यदि कनिष्ठ द्वारा कोई तथ्यपरक बात विनम्रता से कही गई हो तो वरिष्ठ जनों का भी यह दायित्व बनता है कि उसे अपने अहम से न जोड़ते हुए सह्रदयता से लें।
सीखना और सिखाना एक वृहद प्रक्रिया है जो जीवन भर चलती है।ज़रूरत इस बात की है हम सब एक-दूसरे का मान रखते हुए कुछ न कुछ एक-दूसरे से सीखते रहें।
वरिष्ठता,ज्ञान और अनुभव निःसंदेह एक दूसरे से जुड़े हैं।यह आपस में  पूरक तो हो सकते हैं परंतु जहाँ तक  ज्ञान और अनुभव का प्रश्न है ये एक दूसरे के समानार्थी कदापि नहीं हैं ,इस बात का ध्यान वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों को ही रखना होगा।
                ---ओंकार सिंह विवेक



December 4, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा

दोस्तो हाज़िर है एक ताज़ा ग़ज़ल--

फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

©️
माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।    
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

December 1, 2021

आज कुछ दोहे यों भी

साथियो नमस्कार🙏🙏
आज काफ़ी दिन बाद किसी आवश्यक कार्य से  रामपुर-उ0प्र0 से गुरुग्राम-हरियाणा जाते समय कुछ दोहे सृजित हुए जो आपके साथ साझा करने का मन हुआ--
🌷कुछ दोहे🌷
                    ----©️  ओंकार सिंह विवेक
     🌹
      मँहगाई   को   देख  कर , जेबें  हुईं  उदास,
      पर्वों का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।
     🌹
     कोई सुनता  ही  नहीं , उसकी  यहाँ  पुकार,
     चीख-चीख कर रात-दिन, मौन गया है हार।
    🌹
     हाँ यह सच है इन दिनों ,बिगड़ी  है हर बात,
     लेकिन बहुरेंगे  कभी , अपने भी  दिन-रात।
    🌹
     मिली  कँगूरों को  सखे,तभी बड़ी पहिचान,
     दिया नीव  की ईंट ने,जब अपना बलिदान।
    🌹
               ---- ©️ ओंकार सिंह विवेक

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सभी साहित्य मनीषियों को सादर प्रणाम 🌷🌷🙏🙏******************************************* आज फिर विधा विशेष (ग़ज़ल) के बहाने आपसे से संवाद की ...