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ग़ज़ल- ©️ ओंकार सिंह विवेक
कैसे कहें क़ुसूर हवा का नहीं रहा,
अब एक भी दरख़्त पे पत्ता नहीं रहा।
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इक दूसरे पे जान छिड़कते थे हर घड़ी ,
अब भाइयों के बीच में रिश्ता नहीं रहा।
लेना तो चाहता था वो बच्चे के वास्ते,
लेकिन बजट में उसके खिलौना नहीं रहा।
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बाक़ी तो जस का तस ही रहा नाश्ते में सब,
बस अब हमारी चाय में मीठा नहीं रहा।
झूठे हैं ऐसे लोग जो कहते हैं रात-दिन,
अब झूठ के बिना तो गुज़ारा नहीं रहा।
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घर की ज़रूरतों ने बड़ा कर दिया उसे,
बचपन के दौर में भी वो बच्चा नहीं रहा।
हम बा-वफ़ा हैं आज भी कल की तरह 'विवेक',
ये और बात उनको भरोसा नहीं रहा।
©️ओंकार सिंह विवेक
लाजवाब ग़ज़ल 👌👌👌
ReplyDeleteआभार आदरणीया
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