April 28, 2024

ग़ज़ल/कविता/काव्य के बहाने


सभी साहित्य मनीषियों को सादर प्रणाम 🌷🌷🙏🙏*******************************************

आज फिर विधा विशेष (ग़ज़ल) के बहाने आपसे से संवाद की इच्छा हुई।ग़ज़ल को सिंफ़-ए-नाज़ुक यों ही नहीं कहा जाता है।

दरअस्ल यह शब्दों का बहुत नाज़ुक  बर्ताव चाहती है।कथ्य को दो  मिसरों में पिरोने के लिए शब्दों का बहुत कोमलता से चयन करना पड़ता है। ग़ज़ल सपाट बयानी से बचने और कहन में चमत्कार पैदा करने के लिए बहुत मेहनत चाहती है।प्रसिद्ध ग़ज़लकार आदरणीय अशोक रावत जी के शब्दों में " व्यक्ति को यदि बहर और क़ाफ़िया-रदीफ़ की जानकारी हो भी जाए तो भी ग़ज़ल की कहन को दुरुस्त करने में जीवन निकल जाता है।"


अत: ग़ज़ल कहने वाले नए साथियो से अनुरोध है कि ग़ज़ल के शिल्प आदि को लेकर किताबों अथवा नेट पर उपलब्ध सामग्री का पहले गंभीरता से अध्ययन करें।विधा विशेष के basics को समझें।वरिष्ठ और मंझे हुए साहित्यकारों के सृजन को पढ़ें उस पर मनन करें और फिर ग़ज़ल या अपनी पसंद की किसी भी विधा में सृजन का प्रयास/अभ्यास करें,निश्चित ही सफल होंगे।


अच्छे शे'र/अशआर कहना कितना मुश्किल(असंभव नहीं)काम है ---,आजकल मंचों पर शा'यरी के नाम पर कुछ लोगों द्वारा (सबके द्वारा नहीं) क्या परोसा जा रहा है आदि विषयों पर अक्सर मन- मस्तिष्क में मंथन चलता रहता है।

इन्हीं बातों को लेकर अलग-अलग समय पर अलग-अलग ग़ज़लों में मुझसे कई शे'र (मुतफ़र्रिक़ अशआर)हुए हैं जो प्रसंगवश आपके साथ साझा कर रहा हूं :

©️ 

ख़ूँ जिगर का जलाए बिना कुछ,

रंग  शे'रों   में   आना   नहीं  है।

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शे'र नहीं होते हफ़्तों तक,

ऐसा भी अक्सर  होता है।

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जारी रक्खो मश्क़ 'विवेक',

रंग   सुख़न   में   आएगा।

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दोस्त!कभी तो बरसों भी लग जाते हैं,

दो मिसरों को  सच्चा शे'र  बनाने  में।

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ज़ेहन में इक अजीब हलचल है,

शे'र   ऐसे   सुना   गया   कोई।

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ख़ुश हैं लोग लतीफों से,

अब क्या शे'र सुनाने हैं।

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मंच  पर   चुटकुले  और  पैरोडियाँ, 

आजकल बस यही शा'यरी रह गई।

**

सुनाते   रहे   मंच    से    बस  लतीफ़े,

न आए वो आख़िर तलक शा'यरी पर।©

©️ ओंकार सिंह विवेक 

(सर्वाधिकार सुरक्षित) 


grand kavi sammelan 👈👈





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