ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक
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झूठ पर झूठ वो बोलता रह गया,
देखकर मैं ये हैरान-सा रह गया।
अर्ज़ हाकिम ने लेकिन सुनी ही नहीं,
एक मज़लूम हक़ माँगता रह गया।
जीते जी उसके, बेटों ने बाँटा मकां,
बाप अफ़सोस करता हुआ रह गया।
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जाने वाले ने मुड़कर न देखा ज़रा,
दुख हमें बस इसी बात का रह गया।
नाम से उनके चिट्ठी तो इरसाल की,
पर लिफ़ाफ़े पे लिखना पता रह गया।
हाल यूँ तो कहा उनसे दिल का बहुत,
क्या करें फिर भी कुछ अनकहा रह गया।
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वो हिक़ारत दिखाता रहा, और मैं,
"शब्द ही प्यार के बोलता रह गया"
देखकर हाथ में उनके आरी 'विवेक',
डर के मारे शजर काँपता रह गया।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
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बेहतरीन ग़ज़ल ।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका🙏🙏
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