कुंडलिया
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----ओंकार सिंह विवेक
सर्दी से यह ज़िंदगी , जंग रही है हार,
हे भगवन! अब धूप का,खोलो थोड़ा द्वार।
खोलो थोड़ा द्वार, ठिठुरते हैं नर-नारी,
जाने कैसी ठंड , जमी हैं नदियाँ सारी।
बैठे हैं सब लोग ,पहन कर ऊनी वर्दी,
फिर भी रही न छोड़,बदन को निष्ठुर सर्दी।
---ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
सच्ची ,बहुत सर्दी है ।।
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