August 23, 2021

सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
  ©️
हमें   सच  से  क्या  रग़बत  हो गई  है,
सभी  को  हमसे  दिक़्क़त  हो  गई है।

कभी होती  थी  जन सेवा का साधन ,
सियासत  अब   तिजारत  हो  गई  है।

हमें  लगता  है  कुछ  लोगों  की  जैसे,
उसूलों    से    अदावत    हो   गई   है।
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सहे   हैं    ज़ुल्म    इतने   आदमी   के,
नदी    की   पीर   पर्वत   हो   गई   है।

निकाला करते  हो  बस नुक़्स सब में,
तुम्हारी   कैसी   आदत   हो   गई   है।

हसद   रखते   हैं   जो   हमसे  हमेशा,
हमें   उनसे  भी  उल्फ़त   हो  गई  है।

हुए   क्या   हम   रिटायर   नौकरी  से,
मियाँ  फ़ुरसत  ही  फ़ुरसत  हो गई है।
           ---   ©️ओंकार सिंह विवेक

August 22, 2021

क्या बतलाएँ दिल को कैसा लगता है

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
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क्या  बतलाएँ दिल को कैसा  लगता  है,
बदला-सा जब उनका लहजा लगता है।

रोज़  पुलाव  पकाओ आप ख़यालों के,
इसमे   कोई    पाई - पैसा   लगता   है।

मजबूरी  है  बेघर  की, वरना  किसको-
फुटपाथों  पर  सोना  अच्छा  लगता है।
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तरही   मिसरे   पर  इतनी  आसानी  से,
तुम ही बतलाओ क्या मिसरा लगता है।

आज  किसी ने की है  शान में गुस्ताख़ी,
मूड  हुज़ूर  का उखड़ा-उखड़ा लगता है।

चहरे   पर   मायूसी , आँखों   मे  दरिया,
तू भी मुझ-सा वक़्त का मारा लगता है।

बाल  भले  ही  पक जाएँ उसके,लेकिन-
माँ - बापू   को   बेटा  बच्चा  लगता  है।
             ----©️ओंकार सिंह विवेक

August 1, 2021

हाँ, जीवन नश्वर होता है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
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हाँ , जीवन   नश्वर   होता   है,
मौत का फिर भी डर होता है।

शेर   नहीं   होते  हफ़्तों   तक,
ऐसा  भी    अक्सर   होता  है।

बारिश  लगती  है  दुश्मन-सी ,
टूटा    जब    छप्पर   होता  है।

उनका  लहजा  ऐसा   समझो ,
जैसे    इक   नश्तर   होता   है।

जो    घर   के   आदाब   चलेंगे,
दफ़्तर    कोई    घर   होता   है।

देख लियाअब हमने,क्या-क्या,
संसद    के   अंदर     होता   है।
--   ©️  ओंकार सिंह विवेक





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