May 30, 2022

समीक्षा के बहाने

सभी साहित्य मनीषियों को नमस्कार 🙏🙏
साथियो कविता/शायरी तो हम करते ही रहते हैं लेकिन
कभी-कभी विषयगत सार्थक चर्चा भी होनी चाहिए।इसी
विचार को केंद्र में रखकर आज मैं अपनी कोई ग़ज़ल पोस्ट
न करते हुए एक बड़े साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित कृष्णानंद
चौबे जी की एक ग़ज़ल उनके शिष्य आदरणीय अंसार
क़म्बरी जी की की वाल से लेकर साभार लेकर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस ग़ज़ल को पोस्ट करने के बहाने कुछ बिंदुओं पर सार्थक
चर्चा हो जाएगी ,ऐसा मुझे लगता है--
--ग़ज़ल केवल उर्दू भाषा  के भारी भरकम शब्दों का प्रयोग करके ही प्रभावशाली हो सकती है ,आदरणीय कृष्णानंद चौबे जी की यह ग़ज़ल इस भ्रांत धारणा को ध्वस्त करती है।इस ग़ज़ल के हर  शेर में  भरपूर शेरियत विद्यमान है।बिंब/प्रतीक/व्यंजना सब कुछ मौजूद है रचना में।
-- यह हर क्षेत्र में नवीन प्रयोगों का युग है।वैश्वीकरण की अवधारणा सर्वमान्य हो चुकी है।अतः कुछ  मर्यादाओं का पालन करते हुए साहित्य में भी प्रयोगधर्मी हुआ जा सकता है और लोग हो भी रहे हैं । आजकल हाइकू --आदि और भी न जाने कौन-कौन सी विदेशी भाषाओं की साहित्यिक विधाओं का हिंदी देवनागरी में साहित्यकार सृजन कर रहे हैं ऐसा ही ग़ज़ल विधा के साथ भी है।
-- हाँ, हमें यह बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए कि हम किसी श्रेष्ठ रचनाकार की रचना से सृजन की प्रेरणा तो लें पर हूबहू उसकी रचना की पूरी पंक्ति या भाव को लगभग उन्हीं शब्दों में उतारकर अपनी रचना में न रख दें,यह नैतिकता और साहित्य की शुचिता के विपरीत है।इससे कभी कोई रचनाकार श्रेष्ठ नहीं हो सकता।किसी रचनाकार की रचनाओं के विचार और भावों से प्रभावित होकर उन्हें अपने शब्दों में ढालना और हूबहू अपनी रचना में रख देना दोनों अलग-अलग बातें हैं।
--एक क़िस्सा मुझे प्रसंगवश याद आ गया।हाल ही में सोशल मीडिया के एक साहित्यिक पटल पर एक साहित्यकार(नाम बताना उचित नहीं ) ने अपनी ग़ज़ल वहाँ चल रही ग़ज़ल प्रतियोगिता में सहभागिता करते हुए पोस्ट की।इत्तेफ़ाक़ से उसे प्रथम पुरस्कार हेतु चुन लिया गया।इसके बाद एक अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकार ने पुष्ट प्रमाणों के साथ दावा किया की यह ग़ज़ल तो उनकी है।तथ्य स्पष्ट होने पर पहले अपने नाम से रचना पोस्ट करने वाले साहित्यकार ने यह कहते हुए मुआफ़ी माँगी की उन्होंने यह रचना अपने लिए किसी और साहित्यकार से लिखवाई थी और उन्हें नहीं मालूम था कि जिनसे रचना  लिखवाई गई थी उन्होंने भी उसे कहीं और से हासिल किया था।आज सोशल मीडिया पर साहित्यिक चोरी और और कट पेस्ट का धंधा इस स्तर पर पहुँच गया है।
--यह सब चर्चा इसलिए ज़रूरी लगी क्योंकि आज संचार क्रांति/सोशल मीडिया के युग में तेज़ी से साहित्यकारों की एक ऐसी पीढ़ी उभरती देखी जा रही है जिसे बहुत जल्दी ही वाह वाह वाह! की टिप्पणियाँ चाहिए अपनी रचनाओं पर।वे आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं को सहजता से नहीं लेते।ऐसे रचनाकारों को  ये मानक तय करने होंगे कि भविष्य में वे कैसा रचनाकार बनना चाहते हैं।एक समीक्षक होने के अपने अनुभव के आधार पर मैं समीक्षा हेतु पटल पर रचनाएँ पोस्ट करने वाले साहित्यकारों से अनुरोध करना चाहूँगा कि--
--वे रचना के ऊपर विधा और मात्रा विधान
आदि स्पष्ट रूप से अंकित किया करें ताकि समझने और समझाने में आसानी हो।
--अपनी रचना पर की गई समीक्षात्मक/आलोचनात्मक टिप्पणी को बार-बार पढ़ना चाहिए।समीक्षक की कोशिश होती है कि किसी ठोस तथ्य के आधार पर ही रचना पर टिप्पणी की जाए।
--समीक्षक के लिए यह कदापि संभव नहीं है कि रचना पर प्रशंसात्मक टिप्पणी तो पटल पर सार्वजनिक रूप से करे और समीक्षात्मक विवरण रचनाकार के इनबॉक्स में जाकर पोस्ट करे।
--समीक्षा एक श्रमसाध्य कार्य है।प्रोत्साहन हेतु रचनाकार की रचना पर वाह वाह ! की टिप्पणी का भी महत्व होता है पर समीक्षक के लिए टिप्पणी हेतु यही एकमात्र पैमाना नहीं होता।समीक्षक रचनाकार को सिर्फ़ इशारों में थोड़ी बहुत सुधारात्मक जानकारी दे सकता है।सुझाव के अनुसार  निखार हेतु महनत अंततः रचनाकार को स्वयं ही करनी चाहिए।
---एक दिन में पटल पर किसी रचनाकार की एक ही रचना की समीक्षा किया जाना संभव होता है।
सुझाव के बाद रचना को संशोधित करके पुनः उसी दिन पटल पर समीक्षक की टिप्पणी हेतु प्रस्तुत करके उस दिन के लिए समीक्षक पर अतिरिक्त बोझ नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।रचनाकार को तदनुसार रचना को दुरुस्त करके अपने रिकॉर्ड में सुरक्षित कर लेना चाहिए और फिर किसी दिन उचित अवसर पाकर पटल पर पोस्ट करना चाहिए।
सादर
ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार/समीक्षक

प्रसिद्ध कवि और शायर आदरणीय अंसार क़म्बरी जी की
 वॉल से साभार उनके साहित्यिक गुरु स्वर्गीय कृष्णानंद 
 चौबे जी की  एक ग़ज़ल
 ***********************************
...............: ग़ज़ल :
पंडित कृष्णानंद चौबे
सागरों से जब से यारी हो गई,
ये नदी मीठी थी खारी हो गई।

आदमी हलका हुआ है इन दिनों,
ज़िन्दगी कुछ और भारी हो गई।

अपने कुनबे को गिना दो चार बार,
लीजिए  मर्दुमशुमारी  हो  गई।

फ़ायदा भटकाओ से ये तो हुआ,
रास्तों की जानकारी हो गई।

राम नामी चादरों को ओढ़ कर,
हर नज़र कितनी शिकारी हो गई।

आप-हम सब थे वहीं दरबार में,
द्रोपदी फिर से उघारी हो गई।
पंडित कृष्णानंद चौबे
(आदरणीय अंसार क़म्बरी जी की वॉल से साभार)

May 27, 2022

कुछ अपनी कुछ कविता की

कल का दिन अत्यधिक व्यस्तता भरा रहा।दो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हिस्सेदारी रही।
पहला कार्यक्रम मिगलानी सेलिब्रेशन मुरादाबाद में प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक सेवा निवृत्त कर्मचारी कल्याण समिति मुरादाबाद द्वारा आयोजित किया गया था।यहाँ समिति के सदस्य के रूप में सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ।सभा में संस्था के पदाधिकारियों द्वारा सेवा निवृत्त कर्मचारियों/उनके आश्रितों के कल्याण और उनके लंबित मुद्दों आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया तथा समिति द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों से अवगत कराया गया।समिति के सदस्यों की सदस्यता बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया।
यह एक कटु सत्य है कि व्यक्ति जब अपने जीवन का एक बड़ा भाग सरकारी या ग़ैर सरकारी सेवा को समर्पित करके रिटायर होता है तो विभाग द्वारा उसके अवकाश प्राप्ति के परिलाभों या अन्य देय सुविधाओं के निस्तारण में अक्सर उदासीनता बरती जाती है।इस बात के अपवाद भी हो सकते हैं परंतु ऐसा अक्सर देखने में आता है।उस समय रिटायरी की बात को उठाने वाला कोई नहीं होता।ऐसे समय आदमी को संगठन की शक्ति का एहसास होता है।अतः सेवा निवृत्त कर्मचारियों का ऐसे संगठनों से जुड़े रहना ज़रूरी है।रिटायरीज़ के लिए इस दिशा में प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक सेवा निवृत्त कर्मचारी कल्याण समिति मुरादाबाद द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं।

शाम को दूसरा कार्यक्रम ज़ेनिथ होटल रामपुर में भारत विकास परिषद की रामपुर इकाई द्वारा आयोजित किया गया था।मेरे बैंक के ही अवकाश प्राप्त वरिष्ठ साथी श्री अभय शंकर अग्रवाल साहब का बहुत-बहुत आभार कि उन्होंने मुझे राष्ट्रीय एकता और भारतीय संस्कारों के पोषण और संरक्षण में महती भूमिका निभाने वाले संगठन की सदस्यता ग्रहण कराई।उल्लेखनीय है कि भारत विकास परिषद पूरे भारत वर्ष में अपनी इकाइयों के माध्यम से शैक्षणिक और सांस्कृतिक आयोजनों के साथ-साथ जन सेवा के कार्यों में भी निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है।
इस कार्यक्रम में हमारी(पति और पत्नी की) मेहमान के तौर पर पहली परिचयात्मक उपस्थिति थी।
इस वृतांत के साथ यदि कविता का तड़का न लगे तो फिर पोस्ट का मज़ा ही क्या?
तो लीजिए दोस्तो हाज़िर हैं मेरे कुछ दोहे : 
🌷
मिली  कँगूरों  को  सखे,तभी  बड़ी  पहचान,
दिया नीव  की  ईंट ने,जब  अपना बलिदान।
🌷
कलाकार  पर   जब  रहा,प्रतिबंधों  का  भार,
नहीं कला में आ सका,उसकी तनिक निखार।
🌷
मँहगाई    को    देखकर, जेबें   हुईं    उदास,
पर्वों   का   जाता  रहा,अब  सारा   उल्लास।
🌷
भोजन  करके   सेठ  जी,गए  चैन   से  लेट,
नौकर   धोता   ही   रहा, बर्तन  ख़ाली  पेट।
🌷
चल हिम्मत  को बाँधकर,जल में पाँव उतार,
ऐसे  तट  पर  बैठकर,नदी  न   होगी   पार।
🌷         ---ओंकार सिंह विवेक
                 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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May 25, 2022

दोस्ती किताबों से

   दोस्ती किताबों से
  ***************
          ---ओंकार सिंह विवेक
मेरे एक मित्र हाल ही मैं सरकारी सेवा से रिटायर हुए हैं।वे उच्च शिक्षित और भरे-पूरे परिवार के स्वामी हैं।रिटायरमेंट के बाद उनके शुरू के कुछ दिन तो पेंशन आदि के काग़ज़ात की खानापूरी करने और इसी तरह के अन्य कामों में निकल गए।इस दौरान वह पहले की तरह ही व्यस्त रहे तो उन्हें समय का पता ही नहीं चला।बाद में कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ मेहमानदारी आदि में अच्छे बीत गए।तदोपरांत धीरे-धीरे उन्हें ख़ाली समय कचोटने लगा।एक दिन मॉर्निंग वॉक करते समय मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आजकल आप कुछ सुस्त और उखड़े-उखड़े से दिखाई देते हैं,क्या बात है? कहने लगे "यार क्या बताऊँ अब तो टाइम काटना मुश्किल दिखाई देने लगा है।आख़िर कोई कितनी देर अख़बार पढ़े या इधर-उधर टहले और पान की दुकान पर जाकर बैठे।" मैं उनकी परेशानी समझ चुका था।यदि एडवांस में भविष्य के टाइम की प्लानिंग न कि जाए तो रिटायरमेंट के बाद अक्सर ऐसा लोगों के साथ होता है।चूंकि दफ़्तर जाना तो होता नहीं जहाँ व्यक्ति के 7-8 घंटे व्यस्तता में व्यतीत हो जाते हैं। इसलिए रिटायरमेंट के फ़ौरन बाद या उससे पहले ही हमें अपने समय-प्रबंधन की प्लानिंग कर लेनी चाहिए।कुछ लोग इस मामले में बहुत जागरूक होते हैं।वे समय रहते ही अपनी रुचि का कोई काम जैसे दुकान,पार्ट टाइम जॉब या फिर किसी सामाजिक संस्था आदि से जुड़कर ख़ुद को जीवन की इस अगली पारी में सक्रिय रखने के लिए व्यस्त कर लेते हैं।जिन्हें पढ़ने-लिखने में रुचि होती है वे स्वयं को इस क्षेत्र में व्यस्त रखकर अपना मानसिक और बौद्धिक विकास करके सक्रिय बने रहते हैं। मैंने अपने दोस्त को व्यस्त रहने के इसी तरह के कई विकल्प सुझाए।उन्होंने कहा कि भाई कोई दुकान या पार्ट टाइम जॉब करना तो अब मेरे बस की बात नहीं है।आख़िर 35 वर्ष तक पाबंदियों में रहकर नौकरी कर ली यह क्या कम बड़ी बात है? फिर मैंने उनसे कहा कि आपने तो हिंदी साहित्य में M A किया है ,साहित्य में तो रुचि होगी ही आपकी।कहने लगे, "हाँ भाई पढ़ने में मेरी सदा से ही रुचि रही है।बीच में दफ़्तर में काम के दबाव के चलते यह सब छूट गया था।" जब उनकी नब्ज़ हाथ आई तो मैंने  कहा कि अच्छी किताबों से बढ़िया कोई दोस्त नहीं हो सकता।जो रुचि का काम आप पहले दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों के चलते नहीं कर सके उसे अब कीजिए।इससे आपका चिंतन विकसित होगा, ज्ञान में वृद्धि होगी और समय भी भली प्रकार व्यतीत होगा।यह बात उनकी समझ में आ गई ,कहने लगे कि यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं।
अगले दिन वह मेरे घर हाज़िर थे,कोई किताब चाहते थे पढ़ने के लिए।मुझ जैसे इंसान के पास किताबों के सिवा और क्या ख़ज़ाना हो सकता है।मेरी लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी के अच्छे साहित्यकारों की तमाम किताबें मौजूद हैं।हिंदी साहित्य के ज़मीन से जुड़े साहित्यकार स्मृतिशेष मुंशी प्रेमचंद जी का तो मैं हमेशा से बहुत बड़ा फैन रहा हूँ।उनके लगभग सभी उपन्यास और कहानी संग्रह मेरी लाइब्रेरी में मौजूद हैं। मैंने अपने दोस्त को मुंशजी का उपन्यास "गोदान" पढ़ने के लिए दिया।यह मेरा पसंदीदा उपन्यास है जिसे अब तक मैं कई बार पढ़ चुका हूँ।ग्रामीण समाज की तत्कलीन व्यवस्था का जीवंत और मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। यह उपन्यास पढ़ने वाले कि आँखों में करुणा का समुंदर लाने के लिए काफ़ी है।आज भी इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह हमारे आसपास वर्तमान समाज में घटित हो रही घटनाओं का ही यथार्थ चित्रण करता है क्योंकि आज भी कमोबेश वैसी ही परिस्थितियाँ हैं समाज की।निःसंदेह मैं यह गर्व से कह सकता हूँ कि मुंशजी वर्तमान-द्रष्टा ही नहीं अपितु भविष्य-द्रष्टा भी थे।
चित्र : गूगल से साभार
भाई साहब एक हफ़्ते बाद उपन्यास वापस करने आए तो चेहरे पर मुस्कुराहट और आत्मसंतुष्टि के भाव थे।कहने लगे "भाई आपने तो मुझे उपन्यास के रूप में एक अनमोल निधि सौंप दी।मैं तो उसमें ऐसा डूबा की चार सिटिंग में उसे पूरा पढ़कर ही दम लिया।पत्नी बार- बार कहती थीं कि कहाँ तो तुम वक़्त न कटने की शिकायत करते रहते थे और अब खाना खाने के लिए भी तुम्हें बार-बार पुकारना पड़ता है।" कहने लगे कि ऐसी ही कोई और रोचक किताब दीजिए पढ़ने के लिए।
मैं उनकी प्रतिक्रिया से बहुत प्रसन्न हुआ और आज मैंने उन्हें मुंशी प्रेमचंद जी का ही दूसरा उपन्यास "कर्मभूमि"और अपना ग़ज़ल-संकलन "दर्द का एहसास" पढ़ने के लिए दिए।
वह मुस्कुराते हुए मुझे धन्यवाद देकर चले गए।

दोस्तो यह अनुभव के आधार पर परखा हुआ अकाट्य सत्य है कि किताबें आदमी का बेहतरीन दोस्त होती हैं अतः हम अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए कुछ न कुछ वक़्त अवश्य निकालें।ऐसा करने से हमारा मौलिक चिंतन विकसित होगा और एक सर्जनात्मक सोच के सहारे  हम अपनी और दूसरों की ज़िंदगी को एक नई दिशा देने में कामयाब हो सकते हैं।

जय हिंद,जय भारत🙏🙏🌷🌷🌺🌺💐💐
ओंकार सिंह विवेक

May 23, 2022

अभी कल की ही तो बात है

शुभ प्रभात मित्रो🙏🙏
वाह री क़ुदरत ! तेरा करिश्मा-- कल तक पारा उत्तर भारत में 40 से 45 डिग्री सेल्शियस के आस पास घूम रहा था।गर्मी बदन को झुलसाने को आतुर थी।मानव,पशु-पक्षी और पेड़-पौधे सभी गर्मी से अकुलाए हुए उम्मीद से आसमान की और ताक रहे थे।
चित्र -- गूगल से साभार
आज सुब्ह जब मॉर्निंग वॉक शुरू की तो मौसम एकदम उलट था।मस्त हवा चल रही थी,आसमान में काले बादल चहलक़दमी कर रहे थे और उनमें हल्की गड़गड़ाहट भी थी।आजकल जो सुब्ह से ही उमस और चिपचिपाहट का आभास होने लगता था वह जैसे कहीं हवा हो गया था।क़ुदरत/प्रकृति का यह बदला रूप देखकर मन इसके प्रति श्रद्धा से झुक गया।आज के इस मस्त मौसम ने  मॉर्निंग वॉक का मज़ा कई गुना बढ़ा दिया।थोड़ी ही देर में बूँदाबाँदी हवा के साथ तेज़ बारिश मे बदल गई।
चित्र : गूगल से साभार
लोग कई दिन से तेज़ गर्मी के चलते जिस परेशानी और लाचारी से गुज़र रहे थे उसे प्रकृति ने अपनी कृपा-दृष्टि से दूर कर दिया।यदि प्रकृति मानव द्वारा उससे की जाने वाली अनावश्यक छेड़छाड़ का दंड देती है तो उसे अपने प्यार और आशीर्वाद से पोषित भी करती है।हमें प्रकृति या क़ुदरत के प्रति सदैव कृतज्ञता ज्ञापित करते रहना चाहिए और पर्यावरण को दूषित करने से बचना चाहिए इसी से मानवकल्याण सम्भव है।
लीजिए इस अच्छे मूड और मस्त मौसम के साथ मेरी नई ग़ज़ल का आनंद लीजिए--
ग़ज़ल-- ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ये  जो  शाखों  से  पत्ते  झर  गए  हैं,
ख़िज़ाँ  का ख़ैर  मक़दम  कर गए हैं।

कलेजा  मुँह को  आता है ये सुनकर,
वबा  से   लोग   इतने  मर   गए  हैं।

चमक आए न  फिर क्यों  ज़िंदगी में,
नए  जब   रंग  इसमें   भर   गए  हैं।

वो जब-जब आए हैं,लहजे से अपने-
चुभोकर   तंज़   के   नश्तर  गए  हैं।

डटे  हैं   भूखे-प्यासे  काम   पर  ही,
कहाँ  मज़दूर  अब  तक  घर गए हैं।

है इतना  दख्ल  नभ  में आदमी का,
उड़ानों   से    परिंदे    डर    गए  हैं।

अभी  कुछ  देर  पहले  ही तो हमसे,
अदू  के  हारकर   लश्कर   गए   हैं।
               ---ओंकार सिंह विवेक
                (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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May 20, 2022

बस यूँ ही ख़याल आ गया

शुभ प्रभात मित्रो🙏🙏
अक्सर ऐसा होता है कि कविता या शायरी जब नहीं होती तो कई-कई दिन तक नहीं होती और यदि माँ शारदे की कृपा होने लगे तो हर घड़ी या दिन-रात काव्यात्मक विचार मष्तिष्क में आते रहते हैं।ऐसा ही कल दोपहर को हुआ जब इन दिनों की  गर्मी के प्रचंड रूप पर घर में सब आपस में बातें कर रहे थे।सबका एक ही आग्रह था कि हे सूरज देवता ! अब आग उगलना बंद करो,बहुत हुआ। काश ! कोई ठंडी हवा का झोंका आए और बारिश का सँदेशा दे जाए, सबकी ज़ुबान पर बस यही बात थी।तभी अचानक माँ की कृपा से यह दोहा हो गया-

सूर्य देव इतना  अधिक,क्रोध न करिए आप,
विनती है करबद्ध अब, घटा लीजिए   ताप।

चित्र : गूगल से साभार
कल्पना ने उड़ान भरी तो अपने गाँव के पुराने दिन भी याद आ गए।
पेड़ों पर चढ़कर आम और अमरूद तोड़ना,दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलना,ट्यूवैल पर जाकर गर्मियों में नहाना-- वह सदाबहार चौपालें और घर के आँगन में सबको छाँव देता वह नीम का पेड़।स्मृतियों में न जाने क्या-क्या सुंदर दृश्य उभर आए।उसी समय एक दोहा और हुआ जो आप सबकी नज़्र करता हूँ--

सच है  पहले  की  तरह,नहीं रहे  अब गाँव,
मिल जाती है पर वहाँ,अभी नीम की  छाँव।

चित्र : गूगल से साभार

सिलसिला आगे बढ़ा तो भिन्न-भिन्न रंगों के  कुछ और दोहे भी हुए जो प्रस्तुत हैं :

कथ्य-शिल्प  के  साथ हों,भाव  भरे भरपूर,
झलकेगा  सच  मानिए,फिर कविता में नूर।

घूमे   लंदन - टोकियो , रोम   और    रंगून,
मगर  रामपुर-सा  कहीं,पाया  नहीं  सुकून।
    
क्रोध-दंभ का जिस घड़ी, होता है अतिरेक,
खो देता  है  आदमी, अपना  बुद्धि-विवेक।
                 --ओंकार सिंह विवेक

🌷🌷🌺🌺🙏🙏जय हिंद,जय भारत
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May 16, 2022

जीवन की राहों को कुछ आसान करूँ

दोस्तो नमस्कार🙏🙏
कविता या शायरी कसौटी पर खरी तभी कही जा सकती है जब उसे सुन या पढ़कर श्रोता/पाठक आह!अथवा वाह! करने के लिए मजबूर हो जाए।कविता में सुनने वाले के चिंतन को जागृत करने की क्षमता होगी तभी वह सिर चढ़कर बोलेगी।इसके लिए कविता में भाव,कथ्य,तथ्य और शिल्प का बेजोड़ संगम होना चाहिए।कविता में केवल भाव हों और शिल्प तथा शब्द-संयोजन,वाक्य-विन्यास आदि की अनदेखी की गई हो तो वह अपना असर छोड़ने में इतनी कारगर नहीं होती।इसी तरह यदि केवल शिल्प के पालन के लिए उसके कलात्मक पक्ष पर ध्यान न दिया गया हो तो भी कविता सार्थक नहीं कही जा सकती।कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छी कविता या शायरी में भाव,कला तथा शिल्पपक्ष का बेहतरीन तालमेल होना पहली शर्त है।प्रसंगवश मशहूर शायर मरहूम कृष्णबिहारी नूर साहब का एक शेर याद आ रहा है : 
             मैं तो  ग़ज़ल सुना  के  अकेला खड़ा रहा,
             सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गए।
                                       ---कृष्णबिहारी नूर
इस शेर का सार यही है कि हम शेर/कविता/ग़ज़ल कहें तो ऐसी कहें कि लोग उसे सुनकर अपने चाहने वालों में खो जाएँ यानी मन से एकाग्र होकर कुछ सार्थक चिंतन के लिए प्रेरित हो जाएँ।
तो लीजिए इस भाव और भूमिका के साथ प्रस्तुत है मेरी नई ग़ज़ल

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
********************************
ख़ुद को समझूँ, जग की भी पहचान करूँ,
जीवन  की  राहों  को  कुछ आसान करूँ।

मेरे   बाद   भी  देखेगा  कोई  जग  इनसे,
बेहतर  होगा, इन  आँखों  को  दान करूँ।

तिश्नालब  ही  उसके  पास  खड़ा  रहकर,
सोच  रहा   हूँ  दरिया   को   हैरान  करूँ।

जिनकी  कथनी-करनी  में  हो  फ़र्क़ सदा,
उन  लोगों  का  कैसे  कुछ  सम्मान करूँ।

हिम्मत-जोश- अक़ीदा- अज़्म-जुनूं-जज़्बा,
जीने  की  ख़ातिर  कुछ  तो सामान करूँ।

इतनी क्षमता  और  समझ   देना  भगवन,
पूरा  माँ-बापू   का    हर   अरमान  करूँ।

कोशिश  यह  रहती है, अपनी  ग़ज़लों में,
शोषित-वंचित का  दुख-दर्द  बयान करूँ।
             ---ओंकार सिंह विवेक
********************************
       (सर्वाधिकार सुरक्षित)

May 14, 2022

थोथा ज्ञान

दो साहित्यिक पटलों पर एक  वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा अपने दंभ और क्रोध के चलते एक अन्य अति वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति निरंतर अमर्यादित टिप्पणियाँ की गईं ।उनकी वरिष्ठता को देखते हुए फिर भी उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान किया गया परंतु उनकी अनुशासनहीनता कम नहीं हुई।अंततः एडमिन महोदय को उन्हें पटल से मुक्त करना पड़ा।बाद में उनके दंभ और मनोदशा को लेकर सहित्यकारों नें पटल पर अपनी-अपनी काव्य-अभिव्यक्तियाँ भी रखीं।उस समय मैंने भी कुंडलिया छंद में कुछ कहने का प्रयास किया था जो आपके संमुख प्रस्तुत है : 

              कुंडलिया 
            --- ----------
********************************
सबसे बढ़कर  हूँ यहाँ, मैं  ही  बस  विद्वान,
ऐसा वह  ही सोचता,जिसका  थोथा ज्ञान।

जिसका थोथा ज्ञान,किसी की राय न माने,      
सबको समझे  मूर्ख,स्वयं  को  ज्ञानी जाने।

ऐसे   मानुष  हेतु,यही  है   विनती  रब  से,
दें उसको  सद्बुद्धि,रहे वह  मिलकर सबसे।
********************************
                        ---ओंकार सिंह विवेक
चित्र : गूगल से साभार

May 9, 2022

इतने तेवर दिखा न ऐ सूरज

ग़ज़ल----ओंकार सिंह विवेक
  मोबाइल 9897214710

ज़ोर   शब  का  न  कोई  चलना  है,
जल्द  सूरज  को  अब निकलना है।

ये   ही  ठहरी  गुलाब  की  क़िस्मत,
उसको  ख़ारों  के  बीच  पलना  है।

ख़ुद  को   बदला  नहीं  ज़रा  उसने,
और   कहता   है  जग  बदलना  है।

दूध    जितना    उसे    पिला  दीजे,
साँप   को   ज़ह्र    ही   उगलना  है।

लाख  काँटे  बिछे  हों  पग- पग  पर,
राह-ए-मंज़िल पे फिर भी चलना है।

तोड़ना    है    ग़ुरूर    ज़ुल्मत    का,
यूँ  ही   थोड़ी  दिये  को  जलना  है।

इतने   तेवर   दिखा   न    ऐ  सूरज,
आख़िरश  तो  तुझे   भी  ढलना है।

              ----ओंकार सिंह विवेक

 (ब्लॉगर पॉलिसी के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित)

  चित्र : गूगल से साभार


May 8, 2022

विश्व मातृ-दिवस पर

          मेरा कलाम : माँ के नाम
दोस्तो जैसा कि हम सब जानते हैं , माँ के बिना एक बालक के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।यदि पिता अपनी संतान को कांधे पर बैठाकर दुनिया में घुमाते हुए उसकी बुलंदी की कामना करता है तो माँ संतान को अपने आँचल की छाया प्रदान करके ग़मों की धूप से बचाती है।माँ ख़ुद गीले में सोती है परंतु संतान को सूखे में सुलाती है,ख़ुद भूखी रहती है पर औलाद को भरपेट खिलाती है, बच्चे के बीमार होने पर माँ के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ जाती है---ऐसी होती है माँ।
आज विश्व मात्र-दिवस है तो आइए मैं आपको माँ के प्रति अपने जज़्बात से रूबरू करवाता हूँ --

विश्व मातृ-दिवस पर
****************
               ---ओंकार सिंह विवेक
              मुक्तक : माँ
         🌷🌷🌷🌷🌷
  डगर का  ज्ञान होता है अगर माँ  साथ होती है,
  
  सफ़र  आसान होता है अगर माँ साथ होती है।
  
  कभी मेरा जगत में बाल बाँका हो नहीं सकता,
  
  सदा  यह भान होता है अगर माँ साथ होती है।
          🌷🌷🌷🌷🌷
               ग़ज़ल : माँ
💐
दूर   सारे   अलम   और   सदमात  हैं,
माँ  है  तो  ख़ुशनुमा  घर के हालात हैं।
💐
दिल को  सब  ठेस  उसके  लगाते  रहे,
ये न  सोचा  कि  माँ के भी जज़्बात हैं।
💐
दुख  ही दुख  वो उठाती है सबके लिए,
माँ के हिस्से में कब सुख के लमहात हैं।
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छोड़  भी आ  तू अब लाल  परदेस को,
मुंतज़िर  माँ  की  आँखें ये दिन-रात हैं।

मैं जो  महफ़ूज़ हूँ  हर बला से 'विवेक',
ये तो  माँ की  दुआओं  के असरात हैं।
 💐           ---ओंकार सिंह विवेक
                   रामपुर-उ0प्र0
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May 6, 2022

आख़िर बात दिल की है

शुभ प्रभात साथियो🙏🙏

पता नहीं कब इन सांसों का साथ छूट जाए और हमारा घर-परिवार तथा दुनिया से नाता टूट जाए।अतः अच्छा हो कि हम घर-परिवार और ख़ुद के साथ-साथ दुनिया और समाज के लिए भी कुछ ऐसा काम करते रहें जिससे हमारे इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच करने के बाद भी लोग हमें याद रखें।
आज सुब्ह अखबार पढ़ते हुए एक ख़बर पर नज़र पड़ी तो एक सज्जन के नेक कार्यों के बारे में जानकर मस्तक उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया।दिल के रोगियों के लिए पेसमेकर एक ऐसा उपकरण है जो दिल की धड़कनों को नियमित बनाए रखता है परंतु अर्थाभाव में कई लोग इसे लगवा नहीं पाते हैं क्योंकि यह एक मँहगा उपकरण है।
छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई शहर की सामाजिक संस्था "मम्मा की रसोई" के संस्थापक श्री रुबिंदर बाजवा जी दान में एकत्र किए गए पेसमेकर्स केवल 5 रुपए में ऐसे ज़रूरतमंदों को उपलब्ध कराते हैं जो आर्थिक विपन्नता के चलते यह मँहगा उपकरण खरीदकर अपने बीमार दिल में नहीं लगवा सकते।श्री बाजवा साहब की संस्था ऐसे लोगों से पेसमेकर्स प्राप्त करती है जिनके परिजनों के पेसमेकर लगा हुआ था और उनकी मृत्यु हो चुकी होती है।यह संस्था अपने इस नेक कार्य की जानकारी सोशल मीडिया आदि पर भी साझा करती है ताकि ज़रूरतमंद इसका लाभ प्राप्त कर सकें।
इस संस्था और इसके प्रमुख के ऐसे नेक काम देखकर निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि दुनिया में जनसेवकों ,परोपकारियों और इंसानियत के पैरोकारों की कमीं नहीं है।
मैं आदरणीय बाजवा जी के दीर्घायु होने की कामना करता हूँ ताकि वह अपनी संस्था के माध्यम से इसी तरह ज़रूरतमंदों की ख़िदमत करते रहें।
आप सब से भी अनुरोध करना चाहूँगा की इस जानकारी को हर ज़रूरतमंद के साथ साझा करें।
          ---ओंकार सिंह विवेक
          ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर
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May 4, 2022

गुलसितां में ज़र्द हर पत्ता हुआ

दोस्तो नमस्कार🙏🙏
कुछ पारिवारिक कारणों और साहित्यिक आयोजनों में सहभागिता के चलते यात्राओं पर जाना पड़ा इसलिए आप लोगों से रूबरू न हो सका।
आज अपने पहले ग़ज़ल-संकलन "दर्द का अहसास" की पहली ग़ज़ल आपके संमुख प्रस्तुत कर रहा हूँ : 

  ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक

©️
सोचता हूँ अब  हवा को क्या हुआ,
गुलसिताँ  में  ज़र्द  हर  पत्ता हुआ।

हाथ  पर  कैसे  चढ़े  रंग- ए- हिना,
जब ख़ुशी पर रंज का पहरा हुआ।

दूर  नज़रों  से  रहे  अपनों की जब,
खूं  का  रिश्ता और भी गहरा हुआ।

ईद और  होली  का हो कैसे मिलन,
जब  दिलों  में ख़ौफ़ हो बैठा हुआ।

तंगहाली   देखकर   माँ - बाप  की,
बेटी  को  यौवन  लगा ढलता हुआ।
        --- ©️   ओंकार सिंह विवेक

जहाँ तक ग़ज़ल विधा की बारीकियों की बात है ,इस कोमल विधा में लय की दृष्टि से अक्षरों की तकरार को भी एक दोष माना जाता है।जैसे कोई शब्द यदि र अक्षर पर समाप्त होता है तो कोशिश यह करनी चाहिए कि उससे आगे का शब्द र अक्षर से प्रारम्भ न हो।यद्यपि यह शिल्पगत दोष की श्रेणी में नहीं आता परंतु गेयता को प्रभावित करता है।यदि कोई सब्स्टीट्यूट उपलब्ध न हो तो ऐसा किया भी जा सकता है।उस्ताद शायर भी ऐसा करते रहे हैं।ऊपर पोस्ट की गई ग़ज़ल के दूसरे शेर में भी एक स्थान पर र और र की तकरार है।

ग़ज़ल-संग्रह "दर्द का अहसास" का विमोचन कोरोना-काल में एक सादे समारोह में घर पर ही मेंरे पिता जी द्वारा किया गया था।
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इस पुस्तक की कुछ प्रमुख साहित्यकारों /ग़ज़लकारों द्वारा की गयी समीक्षा के अंश यहाँ उदधृत हैं---
      तेज़ इतनी न क़दमों की रफ़्तार हो,
      पाँव की  धूल का सर पे अंबार हो।

      न  बन  पाया कभी दुनिया के जैसा,
      तभी तो मुझको दिक़्क़त हो रही है।

      शिकायत  कुछ  नहीं  है जिंदगी से,
      मिला जितना मुझे हूँ ख़ुश उसी से।

ओंकार सिंह विवेक भाषा के स्तर पर साफ़-सुथरे रचनाकार हैं।अगर वह इसी प्रकार महनत करते रहे तो निश्चय ही एक दिन अग्रणी ग़ज़लकारों में शामिल होने के दावेदार होंगे।
         -----  अशोक रावत,ग़ज़लकार         (आगरा)

सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसिताां  में  ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

तंगहाली  देखकर  माँ - बाप की,
बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ।

भरोसा  जिन  पे करता जा रहा हूँ,
मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ।

ओंकार सिंह विवेक के यहाँ जदीदियत और रिवायत की क़दम- क़दम पर पहरेदारी नज़र आती है।उनकी संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।
                  ----शायर(डॉ0 )कृष्णकुमार नाज़ (मुरादाबाद )

उसूलों  की   तिजारत  हो  रही  है,
मुसलसल यह हिमाक़त हो रही है।

बड़ों  का   मान  भूले  जा  रहे   हैं,
ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं।

इधर  हैं झुग्गियों  में  लोग भूखे,
उधर महलों में दावत हो रही है।

ओंकार सिंह विवेक की ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ   के साथ उपस्थित है।मूल्यहीनता, सामाजिक विसंगति,सिद्धांतहीनता,नैतिक पतन,सभ्यता और संस्कृति का क्षरण आदि ;आज का वह सब जो एक प्रबुद्ध व्यक्ति को उद्वेलित करता है,उनकी शायरी में मौजूद है।                 

               ---- साहित्यकार अशोक कुमार वर्मा,

                      रिटायर्ड आई0 पी0 एस0

विशेष---पुस्तक  को गूगल पे अथवा पेटीएम द्वारा Rs200.00(Rs150.00 पुस्तक मूल्य तथा Rs50.00पंजीकृत डाक व्यय) का मोबाइल संख्या 9897214710 पर भुगतान करके प्राप्त किया जा सकता है।

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