March 31, 2022

मोदी-योगी

कुंडलिया : योगी सरकार
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       --ओंकार सिंह विवेक
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योगी-मोदी  का चला,जादू फिर इस बार,
योगी जी की आ गई,यूoपीo में सरकार।
यूoपीo में सरकार,राम की महिमा न्यारी,
हुए  विपक्षी पस्त,पड़ी बीoजेoपीoभारी।
अन्य दलों की आज,बस यही इच्छा होगी ,
हो  जाएँ   अतिशीघ्र,रिटायर  मोदी-योगी।
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          ---ओंकार सिंह विवेक
          ( सर्वाधिकार सुरक्षित)

चित्र -- गूगल से साभार
चित्र --गूगल से साभार


March 25, 2022

हाँ, यह सच है

                 हाँ, यह सच है
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                       --- ओंकार सिंह विवेक

यह कहावत बिल्कुल सत्य है कि सच कड़वा होता है।पर सच की कड़वाहट अपने अंदर मिठास की अनंत संभावनाएँ सँजोए हुए होती है।अतः किसी भी क़ीमत पर सच से मुँह मोड़ना या उसे झुठलाने का प्रयास ख़ुद हमारी ही प्रगति का रास्ता रोकता है।सच कितना भी विद्रूप क्यों न हो उसे स्वीकार कर उसकी तह तक जाकर एक नवीन चिंतन के बाद ही हम अपनी भलाई के बारे में सोच सकते हैं।

ख़ैर छोड़िए --इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा फिर कभी सही।
आज अपने आसपास और जीवन में घटित हो रहे विरोधाभासों पर कुछ बात करते हैं और इन्हीं सरोकारों से जुड़ी शायरी का भी आनंद लेते हैं।
आम आदमी हमेशा ही ज़िंदगी की जद्दोजहद में बिखरा-बिखरा और थका-सा नज़र आता है।एक तरफ़ तो आर्थिक गतिविधियों की शिथिलता के चलते उसके धंधे पर मंदी की भयानक मार पड़ती रहती है ,ऊपर से उस पर चढ़ा साहूकार का क़र्ज़ा उसकी नींदें उड़ाए रहता है।आम आदमी की इसी कैफ़ियत को मैंने अपने शेर में कुछ उस तरह ढाला है--       
        एक    तो     मंदा    ये    कारोबार   का,
       और   उस    पर    क़र्ज़   साहूकार  का।

ऐसी स्थिति से पार पाने के लिए व्यक्ति और निज़ाम दोनों को ही गंभीरता से सोचना चाहिए।सरकार और शासन को चाहिए कि नीतियाँ कुछ उस तरह बनें या परिवर्तित हों कि आम आदमी को अपने धंधे तथा जीविका को चलाने के लिए मंदी की मार कम से कम झेलनी पड़े।आख़िर आम और मध्यम तबक़ा ही समाज की रीढ़ होता है।दूसरी तरफ आम आदमी को भी चाहिए कि वह अपनी कारोबारी और घरेलू ज़रूरतों को इस प्रकार नियोजित करे कि उसकी सभी आवश्यक  गतिविधियां/व्यवसाय सुचारु रह सकें।
आज निरंतर बढ़ती महँगाई के कारण आम आदमी की आमदनी के साधन तो निरंतर सीमित होते जा रहे हैं परंतु घर-परिवार का खर्च सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा है।इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे परिवार के सद्स्यों की संख्या में वृद्धि, शिक्षा और शादी समारोह आदि पर होने वाला व्यय आदि आदि---।

           आय   के   साधन   तो  सीमित  ही  रहे,
           ख़र्च   पर   बढ़ता   गया   परिवार   का।

ऐसी परिस्थितियाँ  भी आदमी को तोड़कर रख देती हैं जब आमदनी बहुत सीमित हो और पारिवारिक दायित्व दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जाएँ।आदमी दिन-रात ऐसी परिस्थिति से निकलने के लिए सोचता रहता पर कोई उपाय दिखाई नहीं पड़ता।यहाँ भी शासन और व्यक्ति की स्वयं की सूझबूझ व युक्ति दोनों ही सामूहिक रूप से निदान प्रस्तुत कर सकती हैं।राज्य की नीतियाँ ऐसी हों कि आम आदमी का काम धंधा चलता रहे और उसकी न्यूनतम आय की राह अवरुद्ध न हो।विपरीत परिस्थितियों में उसे वैकल्पिक संसाधन राज्य द्वारा उपलब्ध कराए जाएँ ताकि वह घर-परिवार को चलाने में समर्थ हो सके। विपरीत परिस्थितियों से गुज़र रहे व्यक्ति का स्वयं का भी यह दायित्व बनता है कि वह इन चुनौतियों से निपटने के लिए अपने परिवार को नियोजित करे,ग़ैर ज़रूरी खर्चों में कटौती करे और संकट से उबरने के लिए अपने हुनर,कौशल और चातुर्य से वैकल्पिक मार्ग तलाश करे।ख़ाली सरकार या शासन प्रशासन को ही सब बातों के लिए ज़िम्मेदार तथा दोषी ठहराना भी अपनी जिम्मेदारियों से भागना ही कहलाएगा।
थोड़ा विषयांतर हो रहा है परंतु एक और बात पर चर्चा करना ज़रूरी समझता हूँ।आज विकास की अंधी दौड़ और ग्लोबलाइजेशन के इस युग में भौतिक सुख-सुविधाएँ तो बढ़ी हैं पर हम अपनी मूल सभ्यता और संस्कारों से बहुत दूर हो गए है।सिद्धांतों से पलायन और नैतिक मूल्यों का समाज में निरंतर ह्रास देखने को मिल रहा है।नई पीढ़ी  माता- पिता और बड़ों के सम्मान के प्रति इतनी जागरूक और प्रतिबद्ध नज़र नहीं आती जो चिंताजनक है। वे माता-पिता जो अपने बच्चों की ज़िंदगी सँवारने में अपनी ज़िंदगी को होम  कर  देते हैं ,जीवन के आख़िरी चरण में अपने बच्चों की उपेक्षा सहने को अभिशप्त हुए जा रहे हैं।यह दशा ह्रदय को बहुत विचलित करती है।जिन माँ बाप ने हमारी ज़िंदगी सँवारने में अपनी सारी जिंदगी खपा दी हो क्या उनके उपकारों का कभी मोल चुकाया जा सकता है? उत्तर है नहीं-नहीं-कभी नहीं।इसी कथ्य को लेकर यह शेर हुआ--
                ऋण  चुका  सकता  नहीं  कोई 'विवेक',
                उम्र भर   माँ - बाप   के   उपकार  का।
दोस्तो आइए अपनी जड़ों की और लौटें।अपने मूल्यों और संस्कारों का संरक्षण करें और माता-पिता को वह  सम्मान देकर जिसके वे हक़दार हैं अपने जीवन को सार्थक करें  🙏,🙏🌷🌷

लेख के सभी चित्र गूगल से साभार प्राप्त किए गए हैं।
लीजिए अब मेरी वह ग़ज़ल पूरी पढ़िए जिसके बहाने यह लेख पूरा हो सका।

धन्यवाद🙏🙏
ओंकार सिंह विवेक

ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
©️ 
🌹
 एक    तो     मंदा    ये    कारोबार   का,
 और   उस    पर    क़र्ज़   साहूकार  का।
🌹
 आय   के   साधन   तो  सीमित  ही  रहे,
 ख़र्च   पर   बढ़ता   गया   परिवार   का।
🌹
 हम जिसे  समझे   मुख़ालिफ़  का किया,
 काम  वो   निकला     हमारे   यार   का।
🌹
 आजकल  देता  हो   जो   सच्ची  ख़बर,
 नाम  बतलाओ   तो  उस  अख़बार का।
🌹
 जंग   क्या   जीतेंगे   वो   सोचो , जिन्हें-
 जंग    से   पहले   ही  डर  हो  हार  का।
🌹
 फिर   किनारे   तोड़ने   पर   तुल    गई,
 नाश  हो  ज़ालिम  नदी   की  धार  का।
🌹
 ऋण  चुका  सकता  नहीं  कोई 'विवेक',
 उम्र भर   माँ - बाप   के   उपकार  का।
🌹  
    --- ©️ ओंकार सिंह विवेक
       सर्वाधिकार पूर्णतयः सुरक्षित
    
    
      

March 23, 2022

पुस्तक समीक्षा : "वहाँ पर गीत उग आए"

          पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक - गीत संग्रह  "वहाँ पर गीत उग आये"
गीतकार- डॉ0 शिवशंकर यजुर्वेदी
समीक्षक - ओंकार सिंह विवेक

साहित्य साधना एवं उसमें भी गीत की साधना, निश्चित रूप से आसान कार्य नहीं है।गीत की अस्मिता को बनाए रखकर अपने काव्य धर्म का सही अर्थों में निर्वहन करना बहुत दुरूह कार्य है परंतु प्रस्तुत काव्य संग्रह में कवि ने अपनी सक्षम लेखनी से सुकोमल अनुभूतियों को गीत के माध्यम से बहुत ही उत्कृष्ट व मनमोहक रूप में प्रस्तुत किया है।
श्री शिवशंकर यजुर्वेदी ने अपने गीत संग्रह "वहाँ पर गीत उग आए" की रचना से पूर्व विद्या की देवी माँ शारदे की वंदना की है और माँ शारदे ने कवि की वंदना स्वीकार भी की है जिसके प्रतिफल के रूप में श्री यजुर्वेदी जी की लेखनी का एक और सफल प्रयास "वहाँ पर गीत उग आए" गीत संग्रह के रूप में हमारे सामने है।काव्य संग्रह के शीर्षक गीत की दो पंक्तियाँ देखें--

              मिला सम्मान से जो कुछ,सहेजा जानकर अतिशय,
              डिगा  पाए न  हमको, इस  जगत के रंग भड़कीले।
              
उदधृत पंक्तियों में कवि के परम् संतोषी होने का भाव प्रकट होता है।पंक्तियों में अंतर्निहित भावों से स्पष्ट है कि कवि नैतिकता एवं सद्चरित्रता का प्रबल पक्षधर है।कवि ने अपनी रचनाओं में  शृंगार, सामाजिक सरोकार, प्रकृति  एवं मानव जीवन के अन्य तमाम पहलुओं पर गहन दृष्टि डाली है।समाज में विद्यमान विभिन्न विसंगतियों का चित्रण करने के साथ साथ रचनाकार ने अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए उनका समाधान करने का भी गीतों के माध्यम से सार्थक प्रयास किया है।एक सफल रचनाकार की यही पहचान है कि  यदि वह किसी समस्या की और इशारा करे तो उसका समाधान भी सुझाए।काव्य संग्रह की प्रत्येक रचना कवि के मौलिक चिंतन का बेजोड़ नमूना है।वास्तव में मौलिक चिंतन की पराकाष्ठा के उपरांत ही रचनाकार के द्वारा सार्थक सर्जन हो पाता है।

          गिरे आँसू जहाँ मेरे,वहाँ पर गीत उग आए
          
इस पंक्ति  में कवि के भावों और संवेदनाओं का अथाह विस्तार देखने को मिलता है।कवि एक स्थान पर कहता है कि मेरे पास संसार को देने के लिए कुछ नहीं है सिवाय विरासत में पाई संस्कृति और संस्कारों की थाती के, जो मैं अपने गीतों के माध्यम से समाज को दे रहा हूँ।कवि की विनम्रता देखिए कि वह अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को सब कुछ देकर भी अपने आपको तुच्छ की श्रेणी में ही रखता है।

           हमारे पास क्या है जो कि हम संसार को दे दें
           
कवि श्री यजुर्वेदी की विनम्रता का यह भाव उन्हें महान रचनाकारों की पंक्ति में खड़ा करता है। "एक गीत लिख" में कवि ने संदेश दिया है कि थोड़ा लिखो मगर सार्थक और शिक्षाप्रद लिखो।ऐसा लिखो जो जनमानस को झकझोर कर कुछ सोचने को मजबूर कर दे।यह संदेश नई पीढ़ी के रचनाकारों के लिए बहुत प्रेरणादायी हो सकता है।

              पा रहा जीवन प्रकृति से
              
इस पंक्ति से प्रारंभ होने वाली रचना में पर्यावरण असंतुलन के प्रति सह्रदय कवि की स्वाभाविक चिंता स्पष्ट झलकती है।पर्यावरण प्रदूषण/असंतुलन से आज असमय ही मानव सभ्यता के मिट जाने का ख़तरा उत्पन्न हो गया है।ऐसी स्थिति में कवि की यह रचना जनमानस को चेताने का एक सफल प्रयास है।

         चाहकर  भी तुम न उन्हें
         
उपरोक्त पंक्ति की  गीत रचना में विशाल भारत की सभ्यता और संस्कारों के दर्शन कराती ग्राम्य संस्कृति को बचाने की ललक का मार्मिक चित्रण है।

                बहुत ऊँची उड़ानें हैं

इस गीत रचना में भी इशारों ही इशारों में कवि ने भारतीय संस्कृति के प्रतीक गांवों की और लौटने का आह्वान किया है।

    युग-दर्शन
    
इस गीत में कवि ने  भागमभाग वाली ज़िंदगी में निरंतर खोती जा रही रिश्तों की मिठास और अपनत्व की भावना के अभाव का बड़ा ह्र्दयस्पर्शी चित्रण किया है।"दीपोत्सव" रचना में कवि ने सभी त्योहारों को संदेशपरक ढंग से मनाने की प्रेरणा दी है।

    लोकतंत्र में वोट की क़ीमत
    
इस रचना के माध्यम से जनता व समाज को जागरूक करने का सफल प्रयास रचनाकार द्वारा किया गया है।"माँ" रचना में माँ के प्रति प्रकट किए गए आदर के भाव और उसके ह्रदय में छिपी ममता और वेदना की अभिव्यक्ति बहुत मार्मिक बन पड़ी है।इनके अतिरिक्त बेटा , कर्फ़्यू, धरा के नैन हैं सजल और विश्वास बनाए रखिए जैसी रचनाएँ कवि की सह्रदयता और उसके मानवतावादी सोच को दर्शाती हैं।
काव्य संग्रह की भाषा सरल ,सहज और बोधगम्य है।जगह-जगह मुहावरों का भी बड़ी कुशलता के साथ प्रयोग किया गया है।सार रूप में यह कहना उचित होगा कि संग्रह की प्रत्येक रचना कवि के गहन चिंतन और शोध का सार्थक सर्जन है।मुझे आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि श्री यजुर्वेदी जी की यह स्तरीय कृति साहित्य जगत में बहुत आदर और सम्मान पाएगी। हर रचनाकार को इस गीत संग्रह को अवश्य पढ़ना चाहिए।
मैं अंत में अपनी इन पंक्तियों के माध्यम से कवि के प्रति आदर-भाव प्रकट करते हुए उन्हें शुभकामनाएँ देता हूँ--

         माँ शारदे  से मिल गया सदज्ञान  आपको,
         कैलाशपति  ने  दे  दिया वरदान आपको।
         सच मानिए यह गीत की निष्काम साधना,
         जग  में  दिलाएगी  नई  पहचान आपको।

                                         ओंकार सिंह विवेक
                              ग़ज़लकार,समीक्षक, स्वतंत्र विचारक व 
                                          ब्लॉगर
                                        रामपुर-उ0प्र0


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March 21, 2022

पानी रे पानी!!!!!!विश्व जल दिवस पर

कल यानी 22 मार्च को विश्व जल दिवस है।इस अवसर पर दुनिया भर में सेमिनार, संगोष्ठियाँ, भाषण और पोस्टर प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाएँगी।बुद्धिजीवी, राजनेता और स्कोलर्स जल संकट पर चिंता व्यक्त करेंगे अगले दिन सब भुलाकर पहले की तरह ही जल का अनुचित  दोहन शुरू हो जाएगा।

वर्षों  से यही क्रम चल रहा है।जल के अनुचित दोहन और बर्बादी से जल संसाधन निरंतर घट रहे हैं।दुनिया के कुछ इलाक़ों में लोग एक घड़े पानी के लिए मीलों-मील पैदल चलकर जाते हैं और कभी-कभी निराश होकर ख़ाली भी लौटते हैं या गंदा पानी भरकर लाने को मजबूर होते हैं।दुनिया के तमाम क्षेत्रों में जल का संकट विकराल रूप ले चुका है।
हम सभी जानते हैं कि जल हमारे के अस्तित्व के लिए कितना ज़रूरी है।पानी या जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं कि जा सकती।प्यास बुझाने,नहाने,कपड़े धोने,किसी निर्माण या वाहनों आदि की सफ़ाई और धुलाई के लिए पानी की ही ज़रूरत होती है। अन्न ,जो जीवन के लिए सबसे ज़रूरी है,उगाने के लिए भी पर्याप्त पानी की आवश्यकता होती है।ग़रज़ यह कि जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए हर क्ष्रेत्र में पानी की ज़रूरत पड़ती है।क़ुदरत ने इंसान को वह हर चीज़ उपलब्ध कराई है जो उसके जीवन के लिए ज़रूरी है परंतु प्राकृतिक संसाधनों की भी अपनी एक सीमा होती है।जब मनुष्य प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराए गए संसाधनों का अनुचित दोहन या दुरुपयोग करेगा तो एक दिन उसके जीवन पर संकट आना तय है।जल संसाधनों के साथ आज यही हो रहा है।घरों में अनावश्यक नल खुले रहते हैं, सार्वजनिक स्थानों पर जल साधनों का उपयोग करके लोग पानी बहता ही छोड़ जाते हैं ,गाड़ियों की धुलाई या अन्य व्यवसायिक कार्यों में भी जितने जल की ज़रूरत होती है उससे कहीं अधिक का प्रयोग किया जा रहा है या यूँ कहें कि पानी को बरबाद किया जा रहा है तो ग़लत नहीं होगा।बड़े-बड़े बोरवेल लगाकर पानी को खींचा जा रहा है जिससे जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है।पेड़ों और वनों का अंधा-धुंध कटान हो रहा है जिससे बारिश की संभावनाओं में कमी आ रही है।अगर यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब दुनिया की आधी आबादी बूँद-बूँद जल को तरसेगी।
इस समस्या से निपटने के लिए समय रहते चेतने की ज़रूरत है।हर व्यक्ति को चाहिए कि आज से ही अनुचित जल दोहन बंद करे।तालाबों और पोखरों के माध्यम से अत्यधिक वर्षा जल का संचयन सुनिश्चित किया जाए। पेड़-पौधों की जड़ें जल संचयन का भी काम करती हैं अतः पेड़ों का पोषण बहुत आवश्यक है। वाटर हार्वेस्टिंग को प्रोत्साहित किया जाए।दुनिया में तमाम ऐसे स्थान हैं जहाँ पूरे साल वर्षा होती है वहाँ जल संचयन की ठोस नीति बनाई जानी चाहिए ताकि वहाँ के पानी का ऐसी जगह प्रयोग किया जा सके जहाँ पानी की कमी है।हमारे देश भारत में चेरापूँजी ऐसा ही स्थान है जहाँ वर्ष भर वर्षा होती रहती है।वहाँ के अतिरिक्त जल का अन्यत्र उपयोग करने पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

जल दिवसके अवसर पर मेरे कुछ दोहे आपकी प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत हैं--

विश्व जल दिवस पर कुछ दोहे 
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          ---ओंकार सिंह विवेक
🌷
जल है जीवन   के  लिए, एक बड़ा  वरदान,
व्यर्थ न  इसकी बूँद हो, रखना है यह ध्यान।
🌷
घटते जल को देखकर,चिंतित हों  सब लोग,
अब  इसका यों  हो नहीं, मनमाना उपयोग।
🌷
पेड़ों  का  होता  रहा, यों  ही  अगर  कटान,
बढ़ना ही  है  फिर यहाँ,जल संकट श्रीमान।
🌷
जल  साधन घटने लगे, संकट है  विकराल,
कैसे  इसका हल  करें,है यह  बड़ा  सवाल।
🌷
बोरिंग  के  उपयोग के,  नियम बनें  गंभीर,
नहीं   मिलेगा  अन्यथा, गहरे  में  भी  नीर।
🌷
झीलें-पोखर- बावड़ी, सबका करें  विकास,
पूरी होगी तब कहीं, जल संचय  की आस।
🌷
झूठ नहीं इनमें तनिक, सच्चे  हैं  यह  बोल,
बूँद-बूँद  में   ज़िंदगी, पानी   है   अनमोल।
🌷              ---ओंकार सिंह विवेक






March 18, 2022

होली के जाते-जाते

शुभ संध्या मित्रो🙏🙏
अभी आप सब होली की ख़ुमारी में ही होंगे। हों भी क्यों न आख़िर साल में एक ही बार तो होली जैसा रंग-बिरंगा मस्त त्योहार आता है।
प्रेम और भाईचारे के इस त्योहार होली के बहाने हिंदी साहित्य की  एक पुरानी परंपरा समस्या पूर्ति अनायास याद आ गई।इसमें किसी चित्र को देखकर अथवा किसी विषय विशेष या शब्द पर सर्जन करके रचना को पूर्ण रूप देना होता है।पहले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं अथवा आयोजनों में यह बहुत प्रचलित थी पर अब समस्या पूर्ति पर आधारित काव्य सर्जन थोड़ा कम देखने में आता है परंतु अब भी कई साहित्यिक पटलों पर ऐसे आयोजन अक्सर होते रहते हैं जो बहुत अच्छी बात है।इससे लिखने का उत्साह बना रहता  है और इस बहाने किसी विधा में रचनाओँ की वृद्धि भी हो जाती है।
कासगंज-उ0 प्र0 का एक प्रतिष्ठित व्हाट्सएप्प साहित्यिक ग्रुप है जिसका नाम है "काव्यानंद" जिसके संस्थापक माननीय भ्रमर जी हैं जो बड़े विनम्र और मिलनसार व्यक्ति हैं।इस पटल पर प्रत्येक शुक्रवार को समस्या पूर्ति की कार्यशाला आयोजित की जाती है जिसका संचालन एक बहुत ही विचारशील साहित्यकार श्री तेजपाल शर्मा जी करते हैं।श्री शर्मा जी दिनभर साहित्यकारों को इस आयोजन में सहभागिता हेतु प्रेरित भी करते हैं,उनकी सदाशयता प्रणम्य है।इस आयोजन में आज एक  शब्द "होली" पर समस्या पूर्ति करनी थी जिसमें अधिकतम आठ पंक्तियों की रचना का सर्जन करना था  तथा होली शब्द का रचना के अंत में आना अनिवार्य था।
इस बहाने एक मुक्तक मैंने भी कहा जो आपके सम्मुख प्रस्तुत है--
🌷
रंगों  की   बौछार  लिए  आई  होली,      
बरगुलियों के  हार  लिए  आई होली।
आओ मिलकर नाचें, धूम-धमाल करें,
फगुआ  मस्त  बयार लिए आई होली।
🌷       ---ओंकार सिंह विवेक
             सर्वाधिकार सुरक्षित

सभी चित्र--गूगल से साभार

     




March 17, 2022

अपनी तहज़ीब ही भुला बैठे

मित्रो शुभ प्रभात🙏🙏 सभी को रंगोत्सव होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ
आधुनिक दौर में प्रगति या ग्लोबलाइजेशन के नाम पर कुछ बातें ठीक हो रहीं हैं तो कुछ ग़लत भी।आज विज्ञान ने नगरों ,प्रदेशों और देशों की दूरियाँ मिटा दी हैं।आदमी चाय भारत में पीता है, लंच इंग्लैंड में करता है उसी दिन डिनर अमरीका में।यह सब विज्ञान की  प्रगति के कारण ही संभव हो सका है।हवाई यात्रा जैसे साधनों के चलते दूरियों का कोई अर्थ नहीं रह गया है।लोग एक-दूसरे की सभ्यता और संस्कृति से परिचित हो रहे हैं।युवा दूर देशों में जाकर अच्छी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।यहाँ तक तो ठीक है परंतु दिक़्क़त यह है कि लोग अपनी जड़ों से भी कटते जा रहे हैं।नई पीढ़ी अपनी सभ्यता और संस्कार भूलती जा रही है।धन-दौलत के बढ़ने से एक आदमी दूसरे को मान सम्मान देना भूल रहा है,अहंकार की भावना बढ़ रही है।आदमी चेहरे पर मुखौटा लगाने और औपचारिक होने में स्वयं को स्मार्ट समझने लगा है।विकास की अंधी दौड़ और अनावश्यक भौतिक संसाधन जुटाने के चक्कर में मानव प्रकृति के मूल स्वरूप से भी निरंतर छेड़-छाड़ कर रहा है।ऐसी स्थितियाँ मानव अस्तित्व के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं।

आइए चिंतन करें  और प्रण लें कि विकास की दौड़ में हम कभी अपनी सभ्यता और संस्कार नहीं भूलेंगे,प्रकृति से अनावश्यक छेड़- छाड़ करने से बाज़ आएँगे और कभी इंसानियत और मानवीय मूल्यों का पतन नहीं होने देंगे।

लीजिए हाज़िर है मेरी नई ग़ज़ल जिसमें ऐसी ही कुछ बातों को शेरो में पिरोने का प्रयास किया है।ब्लॉग पर आकर कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए।

          २१२२  १२१२  २२/११२

          ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
            ©️
           दोस्तों   को   जो   आज़मा  बैठे,
           अपनी  ही  मुश्किलें   बढ़ा  बैठे।

           कब सज़ा  होगी  उन अमीरों को,
           हक़  ग़रीबों  का  जो  दबा  बैठे।

           आपको     कैसे    हुक्मरानी   दें,
           आप  तो   साख   ही   गँवा  बैठे।
            ©️
           यार हमने  तो दिल-लगी  की  थी,   
           आप   दिल   से  उसे  लगा   बैठे।

           क्या हुआ दौर-ए- नौ के बच्चों को,
           अपनी   तहज़ीब   ही  भुला  बैठे।

           वज़्न  ही  कुछ न दें  जो औरों को,
           ऐसे   लोगों   में   कोई  क्या  बैठे।

           कितने  ही  पंछियों  का  डेरा  था,
           आप  जिस  पेड़   को  गिरा  बैठे।
               --- ©️ ओंकार सिंह विवेक



       


March 16, 2022

होली के अवसर पर पल्लव काव्य मंच की गोष्ठी

आया है फिर झूमकर,होली का त्योहार
    
पल्लव काव्य मंच रामपुर के तत्वावधान में होली के उपलक्ष्य में रंगारंग काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।गोष्ठी की अध्यक्षता मंच के संरक्षक कवि शिवकुमार चंदन द्वारा की गई तथा संचालन कवि गोपाल ठहाका द्वारा किया गया।
गोष्ठी में रचना पाठ करते हुए रामपुर के ग़ज़लकार ओंकार सिंह विवेक द्वारा होली के स्वागत में अपने उदगार कुछ यों प्रकट किए गए--
       जीवन में  उत्साह का, करने नव  संचार,
       आया है फिर झूमकर,होली का त्योहार।
खटीमा के कवि रामरतन यादव रतन ने कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति दी--
       रंगों का पर्व आया,सॅंग में बहार लाया।
       हर दिल में हैं उमंगें,फागुन का रंग छाया।
       
डॉ सत्येंद्र शर्मा,हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रस्तुति--
        फागुन का पर्व आया गंधमय उमंग लाया,
        गाल पे गुलाल छाया,गीत है संगीत है।
        
कवि मान सिंह बघेल,ग़ाज़ियाबाद--
        सांवरिया की वांसुरी, बाजी यमुना तीर,
        मन ह्रदय रसमय करे,शीतल मंद समीर।

इनके अतिरिक्त शिवकुमार चंदन रामपुर,गोपाल ठहाका हरदोई कृष्णमुरारी लाल मानव एटा, महेंद्रपाल सिंह शाहजहाँपुर ,गीता देवी औरैया तथा राजकुमार छापड़िया मुंबई द्वारा भी कवि गोष्ठी में  सस्वर काव्य पाठ किया गया।

होली के अवसर पर कही गई मेरी कुछ और रचनाओँ का भी आनंद लीजिए---
होली है

        मुक्तक

रंग-गुलाल-अबीर   लगाएँ  होली  में,
गुझिया खाएँ  और खिलाएँ होली में।
मृदुता का ही भाव रखें मन में केवल,
कटुता  का हर भाव जलाएँ होली में।

           दोहे : होली है --सादर समीक्षार्थ
               ---ओंकार सिंह विवेक
जीवन  में   उत्साह   का,करने  नव  संचार,
आया  है  फिर  झूमकर,होली  का त्योहार।

होली  का  त्योहार  है,हो  कुछ  तो  हुड़दंग,
सबसे   यह   कहने   लगे, नीले -पीले  रंग।

बच्चे   आँगन   में   खड़े,रंग   रहे   हैं  घोल,
रामू   काका   झूमकर,बजा   रहे   हैं  ढोल।

दीवाली   के   दीप   हों,या   होली   के  रंग,
इनका आकर्षण तभी,जब हों प्रियतम संग।

महँगाई   को    देखकर,जेबें    हुईं   उदास,
पर्वों  का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।
          ---ओंकार सिंह विवेक
           (सर्वाधिकार सुरक्षित)




March 13, 2022

होली है--होली है--होली है

दोस्तो नमस्कार🙏🙏
रंगों,उमंगों और उल्लास का त्योहार होली दस्तक दे रहा है।वातावरण में फागुन के मस्त रंग घुले हुए हैं। सभी के तन-मन में एक अजब -सी खुमारी और मस्ती भरी हुई है।त्योहार,उत्सव और मेले अपने आप में पूरी एक संस्कृति और परंपरा को समेटे हुए होते हैं।ऐसे आयोजनों और उत्सवों का  एक ही उद्देश्य होता है कि जनमानस में नवीन ऊर्जा का संचार हो और आपसी प्रेम और भाईचारा बढ़े।त्योहार और उत्सव मिल-जुलकर मनाने से जीवन में नवीन उत्साह का संचार होता है और सहअस्तित्व की भावना का विकास होता है।
तो आइए इसी सुंदर कामना के साथ होली के रंगों में डूब जाएँ और विश्वशांति की मंगल कामना करें।

होली है  होली है  होली है

        मुक्तक

रंग-गुलाल-अबीर   लगाएँ  होली  में,
गुझिया खाएँ  और खिलाएँ होली में।
मृदुता का बस भाव रखें मन में अपने,
कटुता  का हर भाव जलाएँ होली में।

           दोहे
सरसों  फूले  खेत  में, फूल   खिलें  बाग़ान।
तो समझो ऋतुराज जी, द्वार खड़े हैं आन।।

जीवन  में   उत्साह   का,करने  नव  संचार।
आया  है  फिर  झूमकर,होली  का त्योहार।।

होली  का  त्योहार  है,हो  कुछ  तो  हुड़दंग।
सबसे   यह   कहने   लगे, नीले -पीले  रंग।।

कर में   पिचकारी  लिए, पीकर  थोड़ी भंग।
देवर   जी   डारन  चले,भौजाई   पर   रंग।।

बच्चे   आँगन   में   खड़े,रंग   रहे   हैं  घोल।
रामू  काका   झूमकर,बजा   रहे   हैं  ढोल।।

दीवाली   के   दीप   हों,या   होली   के   रंग।
इनका आकर्षण तभी,जब हों प्रियतम संग।।

महँगाई   को     देखकर,जेबें    हुईं   उदास।
पर्वों  का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।।
          ---ओंकार सिंह विवेक
           (सर्वाधिकार सुरक्षित)

      (चित्र--गूगल से साभार)

March 11, 2022

राजनीति तब और अब

हम सुनते और पढ़ते आए हैं कि एक ज़माना था जब राजनीति जनसेवा का माध्यम हुआ करती थी।घर के लोग अपने परिवार के किसी सदस्य को उसकी क्षमता और रुचि को देखते हुए राजनीति में इस उद्देश्य से भेजते थे कि वह अपने संघर्ष और सदप्रयासों से शासन-सत्ता का हिस्सा बनकर देश और समाज की सेवा के दायित्व का निःस्वार्थ भाव से निर्वहन करेगा।घर और परिवार को चलाने के लिए उन साधनों और संसाधनों को ही पर्याप्त माना जाता था जो परिवार को पहले से उपलब्ध रहे हों।राजनीति में लोग विशुद्ध जनसेवा के भाव से जाते थे उसमें रोज़गार की तलाश कदापि नहीं करते थे।
आज स्थितियाँ बिल्कुल इसके विपरीत हैं। अब राजनीति एक व्यापार बन चुकी है।इस युग में अधिकांश व्यक्ति राजनीति में जाते ही इस उद्देश्य से हैं कि वे किसी तरह इस क्षेत्र में प्रवेश भर पा लें फिर तो अगली कई पीढ़ियों के पालन पोषण का प्रबंध हो ही जाएगा।जब आदमी इस मानसिकता के साथ राजनीति में पदार्पण करेगा और उसका परिवार भी उससे यही अपेक्षा रखेगा तो राजनीति में मूल्यों,आदर्शों और सिद्धांतों की क्या दशा होगी यह भली प्रकार समझा जा सकता है।
आजकल हर दिन ,हर घंटे राजनीतिज्ञों का दल बदलना,अमर्यादित बयान देना,कदाचार करना और कुर्सी पाने के लिए अपने ज़मीर को बेचना आम बात हो गई है।राजनीति में हुए इस नैतिक क्षरण ने प्रजातंत्र और राजनीति का मज़ाक़ बना कर रख दिया है।हाँ यह बात ठीक है कि पहले के ज़माने में भी राजनीति में थोड़ा-बहुत मूल्यों से विचलन नज़र आता था लेकिन राजनीतिज्ञ इस हद तक भ्रष्ट और उसूलों से बग़ावत करने वाले नहीं होते थे जो स्थिति आज है।आज राजनीति में  आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को दबंग और चुनाव जिताऊ माना जाता है और विभिन्न राजनैतिक दल उनको खुलकर टिकट बाँटते हैं।इस दौर में जो जितना छली और बली है उतना ही  राजनीति में प्रभावशाली साबित होता है।जब राजनीति में ऐसा नकारात्मक और मानवता के विपरीत आचरण एक योग्यता समझा जाएगा तो मूल्यों पर आधारित राजनीति की कल्पना करना ही व्यर्थ होगा।
राजनीति को स्वच्छ और मूल्यों पर आधारित तभी किया जा सकता है जब राजनीतिज्ञों/विधायकों और सांसदों आदि के लिए भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की जाए, हर पार्टी दाग़ी लोगों को टिकिट देने से बचे,जनता ऐसे उम्मीदवारों का बॉयकॉट करने का साहस करे।ईमानदार और उच्च शिक्षित लोग राजनीति में आने की पहल करें,राजनीति में परिवारवाद को हतोत्साहित किया जाए,विधायकों और सांसदों की अधिकतम आयु सीमा का भी निर्धारण किया जाए आदि आदि----।
इस युग में राजनीति भयानक संक्रमण और अवमूल्यन के दौर से गुज़र रही है। ज़रूरत है कि हर नागरिक इसके स्वास्थ्य की चिंता करे और अपना-अपना दायित्व समझते हुए इसे संक्रमण मुक्त करने में सहयोग प्रदान करे।

चित्र--गूगल से साभार

March 10, 2022

ख़ुशी भी ज़िंदगानी दे रही है

दोस्तो शुभ प्रभात🙏🙏
अब से कुछ देर बात पाँच राज्यों में हुए चुनाव की मतगणना का हाल जानने के लिए सब अपने-अपने टी वी सेट्स से चिपककर बैठ जाएँगे।पहला रुझान आते ही सब अपने आस्था वाले दल या पार्टी को मिलने वाली सीटों का अनुमान लगाने लगेंगे।आज दिन भर यही गहमा-गहमी रहेगी।जो नेता इलेक्शन लड़ रहे हैं उनको निःसंदेह रात नींद नहीं आई होगी। नेताओं के दिमाग़ में बस एक ही बात चल रही होगी कि जैसे भी हो सीट जीतनी ही चाहिए।बहरहाल ,आज दिनभर के लिए बहुत मसाला है चर्चा-परिचर्चा के लिए सबके पास।
आप वोटों की गिनती के रुझान और परिणाम देखिए और एक ताज़ा ग़ज़ल का आनंद भी लीजिए--

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
©️ 
अगर  कुछ   सरगिरानी  दे  रही है,
ख़ुशी   भी  ज़िंदगानी  दे   रही  है।

चलो  मस्ती  करें , ख़ुशियाँ  मनाएँ,
सदा  ये   रुत   सुहानी  दे   रही है।

बुढ़ापे  की   है  दस्तक  होने वाली,
ख़बर  ढलती  जवानी  दे   रही  है।

गुज़र आराम  से  हो  पाये , इतना-
कहाँ खेती - किसानी  दे   रही  है।

फलें-फूलें न क्यों नफ़रत  की  बेलें,
सियासत  खाद -पानी  दे  रही  है।

सदा  सच्चाई  के  रस्ते  पे  चलना,
सबक़ बच्चों  को  नानी  दे रही है।

तख़य्युल की है बस परवाज़ ये तो,
जो  ग़ज़लों  को  रवानी दे  रही है।  
     ---©️ ओंकार सिंह विवेक


March 8, 2022

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस विशेष

लो फिर आ गया हर वर्ष की भांति महिला दिवस।फिर बुद्धिजीवियों को सभाओं/सेमिनारों और सरकारी आयोजनों के माध्यम से महिला विकास और सशक्तिकरण को लेकर लंबे-लंबे मार्मिक भाषण देने का अवसर प्राप्त हो गया।आज दिन भर महिला शक्ति को लेकर बहसें और आयोजन चलेंगे और  फिर साल भर के लिए लोग महिलाओं के प्रति अपने दायित्व और उसके अधिकारों की बातों को भूल जाएँगे।
निःसंदेह महिलाओं की स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है समय के साथ पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम इस बात को विस्मृत कर दें कि पुरातन काल में भी महिला सशक्त और सक्षम रही है।हम इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो पाते हैं कि पहले भी महिलाओं ने अपनी बहादुरी और सूझबूझ के झंडे गाड़े हैं,देश और समाज के निर्माण में महती भूमिका निभाई है।इसलिए यह कह देना शायद ठीक नहीं होगा कि महिला आधुनिक युग में ही सशक्त हुई है।
इस तरह वर्ष में किसी एक दिन को महिला दिवस के रूप में मनाने को लेकर  लोग पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क देते हैं।
एक मत यह है कि किसी एक दिन को महिला  दिवस का नाम देकर लोग महिला की महत्ता को कम करके आँकने का प्रयास करते हैं और केवल एक दिन उसका गुणगान करके अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। इस दिवस को लेकर दूसरा पहलू और मत यह है कि निःसंदेह महिला शक्ति की महत्ता को स्वीकारने और उसे मान-सम्मान देने का कोई एक दिन नियत नहीं हो सकता वह तो साल के 365 दिन और हर लमहा शक्ति स्वरूपा है और उसके सहयोग और सानिध्य के बिना पुरुष किसी भी दशा में पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता परंतु फिर भी इस तरह के आयोजन नारी वर्ग को यह आभास तो कराते ही हैं कि पुरुष समाज उनके मान-सम्मान और महत्ता को लेकर अपने दायित्व से विमुख नहीं है। अतः इस अवसर की प्रासंगिकता तभी है जब पुरुष वर्ग भाषणों और आयोजनों से सिर्फ़ आज ही नारी शक्ति का बखान न करे अपितु वर्ष भर/जीवन भर नारी शक्ति की महत्ता को पहचाने और उसका सम्मान करना सीखे।
आइए इस अवसर पर यही कामना करें कि संसार में  नारी शक्ति हर क्षेत्र में  निरंतर  बेहतर प्रदर्शन करके और भी शिद्दत से अपनी  शक्ति का लोहा मनवाती रहे ।
 
महिला शक्ति के सम्मान में कुछ दोहे
****************************
                                -----ओंकार सिंह विवेक
🌷
बस घर  के ही काम  में,रत  रहना दिन-रात,
अब  महिलाओं के लिए,  हुई  पुरानी  बात।
🌷
आज  विश्व  में नारियाँ, करके  दुर्लभ  काम,
धरती से आकाश तक, कमा  रही  हैं  नाम।
🌷
दफ़्तर  में  भी  धाक है ,घर  में  भी  है राज,
नारी  नर  से कम नहीं,किसी बात में आज।
🌷
जिस  घर में  होता नहीं ,नारी  का  सम्मान,
उस घर  की होती नहीं,ख़ुशियों से पहचान।
🌷
            ----ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार



March 5, 2022

लोकतंत्र और चुनाव

लोकतंत्र में जनता द्वारा किए गए मतदान से जनप्रतिनिधियों का चुना जाना और  फिर एक निर्धारित प्रक्रिया द्वारा सूबे और केंद्र में सरकारों का गठन निःसंदेह एक पारदर्शी पद्धति है।
पर गहराई से पिछले तमाम चुनावों का अगर विश्लेषण करें तो हम पाएँगे की लगभग देश की आधी आबादी तो अपने वोट का प्रयोग करने में रुचि ले ही नहीं रही है।पिछले कई चुनावों के ट्रेंड तो यही बताते हैं कि मतदान का औसत प्रतिशत 60 से 65 ही रहता है।इस 60 से 65 प्रतिशत में से जिस दल या पार्टी को 30 प्रतिशत भी वोट मिल जाते हैं वह सरकार बनाने में सक्षम हो जाती है।इसे यह तो  कदापि नहीं कहा जा सकता कि ऐसी सरकार अधिकांश आबादी की सहमति का प्रतिनिधित्व करती है।
व्यवस्था में कुछ इस प्रकार सुधार की आवश्यकता महसूस होती है कि अधिकतम आबादी जो वोट देने की अर्हता रखती है आवश्यक रूप से मतदान करे ताकि जनप्रतिनिधियों की सही लोकप्रियता का अनुमान हो सके ।इसके लिए मतदाताओं की वोट डालने की कोई वैधानिक बाध्यता भी निर्धारित की जानी चाहिए ताकि लोकतंत्र में इस चुनाव पद्धति का न्यायसंगत मूल्यांकन हो सके और इसकी प्रासंगिकता बनी रहे।
चित्र--गूगल से साभार

March 4, 2022

जो ठीक है वह ठीक है

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जितनी ज़रूरी पूर्ण बहुमत की सरकार होती है उतनी ही ज़रूरी एक मज़बूत विपक्ष की भूमिका भी होती।अक्सर ऐसा देखने में आया है कि मज़बूत विपक्ष न होने से कभी-कभी सत्ता पक्ष के निरंकुश होने का ख़तरा बढ़ जाता है।
विपक्ष की भूमिका ही यह है कि वह सरकार के निरंकुश होने की   स्थिति में उसके के प्रति अपना विरोध दर्ज कराए।लेकिन सशक्त विपक्ष की यह भी ज़िम्मेदारी है कि वह महज़ विरोध के लिए सरकार का  विरोध न करे अपितु किसी सार्थक और जाइज़ मुद्दे पर ही विरोध दर्ज कराए ताकि उसे जन समर्थन भी हासिल हो सके।
पिछले कुछ दिनों में अपने देश भारत में यह देखने में आया कि देश की सुरक्षा और संप्रुभता जैसे संवेदनशील मुद्दों पर सरकार द्वारा लिए गए कुछ अच्छे निर्णयों का भी विपक्षी पार्टियों द्वारा विरोध किया गया जो  दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।विपक्ष को चाहिए कि कम से कम राष्ट्रहित के सही  फ़ैसलों पर तो सरकार को कटघरे में खड़ा न करे।विपक्षी दलों की ऐसी भूमिका से देश और विदेश में तमाम विपरीत विचारधारा के लोग फ़ायदा उठाने की कोशिश करने लगते हैं जो देश के लिए सही नहीं।
आज पहली बार रूस-यूक्रेन युद्ध के मौक़े पर देश की विपक्षी पार्टियों ने भारत सरकार की विदेश नीति और उसके स्टैंड की एक सुर में प्रशंसा करते हुए उससे सहमति जताई जो एक अच्छा क़दम है।राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर कभी किसी को भी राजनैतिक लाभ लेने के लिए अनर्गल बयानबाज़ी से दूर ही रहना चाहिए।
 उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे भी विपक्ष का इसी तरह का  रचनात्मक रवैया देखने को मिलेगा और सरकार भी राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों पर विपक्ष को विश्वास में लेकर स्वस्थ्य चिंतन प्रक्रिया को बहाल रखेगी जिससे कि भारतीय लोकतंत्र दुनिया में मिसाल क़ायम कर सके।
जय हिंद, जय भारत🙏🙏
@ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

March 3, 2022

विरोधाभासों,असंगतियों और विसंगतियों में घिरा आदमी और एक आस

शुभ संध्या मित्रो🙏🙏
वक़्त हो चला है कि आपसे कुछ गुफ़्तगू की जाए।मन तो व्यथित और उद्वेलित है ही रूस और यूक्रेन युद्ध को लेकर पर क्या किया जाए इन्हीं हालात के बीच जब तक भी सांसें इजाज़त देती हैं जीना तो है ही।
मैं सोच रहा था कि हमारे दैनिक जीवन में क्या -क्या अप्रत्याशित घटता रहता है इस पर कुछ बात करूँ।सुब्ह उठते ही हम सोचते हैं कि हमारा आज का दिन अच्छा जाए,धन हासिल हो ,तरक़्क़ी होने की ख़बर मिले या कोई पुराना दोस्त मिलने आ जाए---आदि आदि।
कभी -कभी हमारी सोची और चाही हुई बातें हो भी जाती हैं और कई बार बातें उलट भी हो जाती हैं।हम नदी की तरफ़ जाते हैं इस उम्मीद के साथ कि वह जल से लबालब मिलेगी,देखकर मन को अच्छा लगेगा लेकिन नदी हमारी कल्पना के विपरीत सूखी हुई मिलती है।कभी किसी मुद्दे पर कोई बैठक होती है तो मन में यह आस लेकर बैठते हैं कि काश! इस मुद्दे पर सब एक राय हो जाएँ पर ऐसा नहीं होता।जंगल जाने का मन होता है और मन में यह भाव होता है कि क्या हरा-भरा जंगल देखने को मिलेगा पर जाकर देखते हैं तो जंगल को कराहता हुआ पाते हैं।पेड़ कटे हुए,सूखे हुए तथा अधमरी हालत में मिलते हैं जिन्हें देखकर मन दुखी हो उठता है।
कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है ।अचानक कोई पुराना दोस्त घर आ जाता है जिसके यों अचानक आने के बारे में कभी सोचा भी न था--मन बहुत ख़ुश हो जाता है। आदमी अभ्यर्थियों की लंबी सूची और और इंटरव्यू में अपनी परफॉर्मेन्स को देखते हुए प्रमोशन की आस छोड़ चुका होता है पर अचानक ख़बर मिलती है कि उसे तरक़्क़ी मिल गई है।इस अप्रत्याशित ख़ुशी से आदमी फूले नहीं समाता।ग़रज़ यह कि हर आदमी का जीवन तमाम विरोधाभासों और संशयों के बीच ही झूलता-झूलता अंजाम को पहुँच जाता है।
        इन बातों का उल्लेख करने का सिर्फ़ यही मक़सद है कि हम इस बात को स्वीकार करके चलें कि सुख-दुख,प्रत्याशित-अप्रत्याशित और अच्छा-बुरा जीवन तथा दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं और इनसे ताल-मेल बैठाकर जीने में ही जीवन का असली सुख छिपा हुआ है।जीवन या दिनचर्या में कभी अपने हिसाब से सब कुछ घटित नहीं हो सकता।
ज़ियादा गंभीर न होकर आइए जीवन की तल्ख़ सच्चाइयां बयान करती एक ग़ज़ल से रूबरू होते हैं--
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह 'विवेक'
©️
मिला दरिया  भी प्यासा  देखने को,
मिलेगा  और  क्या-क्या देखने को।

किसी  मुद्दे  पे  सब  ही एकमत हों,
कहाँ  मिलता  है  ऐसा  देखने  को।

तो   गुजरेंगे  अजूबे  भी   नज़र  से,
अगर निकलोगे  दुनिया  देखने को।
©️
किसी  के  पास  है  अंबार  धन का,
कोई  तरसा  है   पैसा   देखने  को।

सुना  आँधी  को  पेड़ों  से  ये कहते,
तरस   जाओगे   पत्ता   देखने  को।

बना था ज़ेहन में कुछ अक्स वन का,
मिला  कुछ  और  नक़्शा देखने को।

नज़र   दहलीज़   से   कैसे  हटा  लूँ,
कहा   है   उसने  रस्ता   देखने  को।
    --- ©️ ओंकार सिंह 'विवेक'
चित्र--गूगल से साभार
         
चित्र--गूगल से साभार

March 2, 2022

रूस-यूक्रेन युद्ध : दिल बहुत दुखी है

यूक्रेन में हर तरफ़ बम धमाके हो रहे हैं,तोपें गोले बरसा रही हैं,निर्दोष मारे जा रहे हैं और मानवता कराह रही है।कैसा खौफ़नाक मंज़र है यह। शक्तिसम्पन्न लोगों/देशों की वहशत और अतिमहत्वाकांक्षा दुनिया को श्मशान बनाकर छोड़ेगी।क्या हम तृतीय विश्वयुद्ध के मुहाने पर खड़े हैं?यह सवाल बार-बार मन को उद्वेलित करता है।
एक पुरानी हिंदी फ़िल्म के गाने की दो पंक्तियाँ मुझे प्रसंगवश स्मरण हो आईं---
       इंसान  से  इंसान  का  हो  भाईचारा,
       यही पैग़ाम हमारा,यही पैग़ाम हमारा।
कितनी नेक कामना की गई है इस गीत में।दुनिया और इंसानियत को बचाने के लिए यही कामना तो ज़रूरी है पर आज तो लगता है जैसे  ये पंक्तियाँ हमारा मुँह चिढ़ा रही हैं।आज आदमी अपनी ज़िद और घमंड के चलते भाईचारे के स्थान पर विध्वंस का पैग़ाम देने पर तुला है।
आज रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के सही या ग़लत होने के इन दोनों ही देशों के अपने-अपने तर्क और तकनीकी  कारण हो सकते हैं पर इंसानियत के पहलू की किसी को कोई फ़िक्र नहीं है। एक तरफ़ यूक्रेन का रूस की दादागिरी को न मानना ,नेटो देशों का सदस्य बनने की पहल करना जैसे उसके अपने निर्णय हैं तो दूसरी तरफ़ इन सबसे रूस अपने  लिए सामरिक ख़तरे  उभरते देख रहा है जो उसकी अपनी एक दलील है।रूस और यूक्रेन के अलावा नेटो देश,शेष यूरोपीय देश और अमेरिका भी इस त्रासदी के लिए कम ज़िम्मेदार नहीं हैं।प्रसंगवश फिर एक पुराने फिल्मी गाने की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं--
      देख तेरे इंसान की हालत क्या हो गई भगवान,
      कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान
      कहीं पे लूट कहीं पे दंगा,
      नाच रहा नर होकर नंगा।
जैसा कि मैंने ऊपर ज़िक्र किया है  यदि गहराई से युद्ध की पृष्ठभूमि में जाएँ तो बहुत से सटीक तर्क इसके पक्ष और विपक्ष में सामने आएँगे पर मेरा मक़सद उन तर्कों की गहराई में जाना बिल्कुल भी नहीं है। 
         मेरा मकसद सिर्फ़ इतना है कि इंसानी बिरादरी मानवीय पहलूओं को ध्यान में रखते हुए इस समस्या का समाधान जल्दी से जल्दी निकाले ताकि निर्दोष लोगों की जानें न जाएँ।इतिहास गवाह है कि जंग से कभी किसी मसअले का स्थायी समाधान आज तक नहीं निकला।मुझे अपनी ही एक ग़ज़ल का शेर याद आया--
               जंग से मसअले का हल होगा,
               ये भरम  पालना  हिमाक़त है।
आइए यह उम्मीद करें कि देश/लोग अपनी नाहक़ ज़िदें,अतिवादी नज़रिए और घमंड छोड़ेंगे और निर्दोष तथा मासूम लोगों पर  थोपी गई इस जंग को समाप्त कराने में अपनी-अपनी वांछित भूमिकाएं निभाएँगे।

विश्वशांति की कामना के साथ फिर से ऊपर कही गई पंक्तियों को दोहराते हुए अपनी बात ख़त्म करता हूँ--
       इंसान  का  इंसान  से   हो  भाईचारा,
      यही पैग़ाम हमारा, यही पैग़ाम हमारा।

ओंकार सिंह विवेक🙏🙏💐🌷🌺💐
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार
     

March 1, 2022

खेतों की जो हरियाली है----

नमस्कार मित्रो🙏🙏
मार्च,2022 का पहला दिन है।मौसम में परिवर्तन आने से अच्छा महसूस हो रहा है।मदमाता फागुन सबको  मस्त कर रहा है।पीली सरसों,टेसू के फूल ,रंगों की बौछार और गुझियों की महक---न जाने किन-किन चीज़ों में खोकर यह मन  मस्त हुआ जाता है।
इसी मस्त मूड में यथार्थ को स्पर्श करती ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले--
आज एक बहुत ही आसान बह्र 
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ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
फ़ेलुन ×4
2   2   2      2   2  2  2  2
खेतों   की   जो  हरियाली  है,
हरिया  के  मुख  की लाली है।

लूट  रहे  हैं  नित  गुलशन को,
जिनके  ज़िम्मे   रखवाली  है।

आस है  इन सूखी फ़सलों की,
नभ  मे  जो  बदली  काली है।

दे  जो  सबको  अन्न  उगाकर,
उसकी  ही   रीती   थाली  है।

याद  कभी  बसती थी उनकी,
अब  मन का आँगन ख़ाली है।

पूछो   हर्ष  धनी   से   इसका,
निर्धन  की  क्या  दीवाली  है।

फँस  जाती है चाल  में उनकी,
जनता  भी  भोली -भाली  है।
         ---ओंकार सिंह विवेक
       (सर्वाधिकार सुरक्षित)
चित्र--गूगल से साभार

चित्र--गूगल से साभार

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