February 24, 2022

मदमाता फागुन

शुभ प्रभात मित्रो🙏🙏🌷🌷
वसंत और फागुन मास के आनंद और आकर्षण का मस्त चित्रण
कवि और साहित्यकार बहुत ही प्रभावशाली ढंग से करते आए हैं।
फूलों की मादकता,सुगंधित हवा,कोकिला का मधुर गान, खेत-खलिहानों का खिला रूप और प्राणियों में नवल ऊर्जा व उत्साह का संचार----क्या -क्या देखने को नहीं मिलता फागुन के इस मोहक महीने मे।
आज मन और चिंतन ने यही चित्र हिंदी काव्य की  लोकप्रिय विधा कुंडली के माध्यम से उकेरा है  जिसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ--

कुंडलिया : फागुन
       ----ओंकार सिंह विवेक
🌷
फागुन आते  ही  खिले,खेत और  खलिहान,
हवा  सुगंधित  हो   गई, महक  उठे  उद्यान।
महक   उठे   उद्यान, कोकिला   राग  सुनाए,
लख-लखकर यह दृश्य,सभी के मन हरषाए।
गाएँ  हम भी फाग ,लगी  है केवल यह   धुन,
आया  जबसे  द्वार, सखे   मदमाता  फागुन।
🌷
          ---ओंकार सिंह विवेक
             सर्वाधिकार सुरक्षित
चित्र---गूगल से साभार







February 22, 2022

जीवन में फिर भी पहले-सा हास नहीं

ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
🌷
सुख का है क्या साधन जो अब पास नहीं,
जीवन  मे  फिर भी  पहले-सा  हास नहीं।
🌷
मुजरिम  भी   जब   उसमे  जाकर  बैठेंगे,
क्या संसद  का  होगा  फिर उपहास नहीं?
🌷
कर  लेते   हैं   ख़ूब  यकीं  अफ़वाहों  पर,
लोगों  को  सच  पर  होता  विश्वास  नहीं।
🌷
दरिया   को   जो   अपनी   ख़ुद्दारी   बेचे,
मेरे  होठों   पर  हरगिज़  वो  प्यास  नहीं।
🌷
उठ ही आना था फिर उनकी महफ़िल से,
रंग  हमे  जब  उसका  आया  रास  नहीं।
🌷
कोई  बदलता  है  दिन  मे   दस  पोशाकें,
पास किसी  के साबुत एक  लिबास नहीं।
🌷
ध्यान-भजन-पूजा-अर्चन  हैं  व्यर्थ  सभी,
मन मे  जब तक  सच्चाई  का वास नहीं।
🌷         ---ओंकार सिंह विवेक



February 20, 2022

निर्धन की क्या दीवाली है

नमस्कार मित्रो 🙏🙏 
आज फिर जनसरोकारों से जुड़ी एक छोटी
बह्र की ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले🙏🙏🌺🌺🌷🌷
***********************
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
फ़ेलुन ×4
2   2   2      2   2  2  2  2
खेतों   की   जो  हरियाली  है,
हरिया  के  मुख  की लाली है।

लूट  रहे  हैं  नित  गुलशन को,
जिनके  ज़िम्मे   रखवाली  है।

आस है  इन सूखी फ़सलों की,
नभ  मे  जो  बदली  काली है।

दे  जो  सबको  अन्न  उगाकर,
उसकी  ही   रीती   थाली  है।

याद  कभी  बसती थी उनकी,
अब  मन का आँगन ख़ाली है।

पूछो   हर्ष  धनी   से   इसका,
निर्धन  की  क्या  दीवाली  है।

फँस  जाती है चाल  मे उनकी,
जनता  भी  भोली -भाली  है।
         ---ओंकार सिंह विवेक

February 17, 2022

सिन्फ़-ए-नाज़ुक

फ़ारसी,अरबी और उर्दू से होती हुई ग़ज़ल आज हिंदी देवनागरी में 
भी ख़ूब धूम मचा रही है।बड़े-बड़े शायरों के ग़ज़ल संग्रह आज हिंदी में छप रहें हैं और आम लोगों को पढ़ने के लिए सुलभ हो रहे हैं।अगर मैं यह कहूँ की हिंदी में जब से ग़ज़ल कही जाने लगी है तब से इसे और ऊँचाइयाँ हासिल हुई हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
ग़ज़ल कहते वक़्त शब्दों को बड़ी कुशलता से बरतना होता है।मफ़हूम,शिल्प,कहन और अशआर में शब्दों का चयन ही ग़ज़ल को हुस्न बख़्शता है।निरंतर अभ्यास के बाद भी हम ग़ज़ल कहने में उसके मिज़ाज के हिसाब से  शब्दों के चयन में अक्सर चूक जाते हैं जिसकी वजह से इस सिन्फ़-ए-नाज़ुक(ग़ज़ल )के साथ न्याय नहीं कर पाते।मैं भरसक कोशिशों के बाद भी अभी अपनी ग़ज़लों को वो रंग नहीं दे पा रहा हूँ जिसकी वे हक़दार हैं।कोशिश जारी है ,उम्मीद है कि एक न एक दिन कामयाबी ज़रूर मिलेगी।
आज की ताज़ा ग़ज़ल आपकी समाअतों के हवाले--

 ग़ज़ल--©️ ओंकार सिंह विवेक
              ©️ 
             दुश्मनों   से    तो   नहीं   है    कोई   ऐसा   डर   मुझे,
             हाँ, डराते  हैं   मगर   अहबाब   कुछ   अक्सर   मुझे।

             आदमी  के  ज़ुल्म   धरती  पर  भला  कब  तक सहूँ,
             गंग कहती  है , बचा   लो  आज  शिव  आकर  मुझे।

             थे   कँगूरों    की     बुलंदी    देखने    मे    मस्त   वो,
             और  याद  आते    रहे   बुनियाद   के   पत्थर   मुझे।
              ©️ 
             काश!हो मेरे भी  सर  को  अब  तो कोई  छत नसीब,
             कब  तलक  फुटपाथ   को  कहना  पड़ेगा  घर  मुझे।

             हो  मेरी   भी  दस्तरस   मे   ये  अदब   का  आसमां,
           रब की जानिब से अता हों फ़िक्र-ओ-फ़न के पर मुझे।

             सच कहूँ  तो और  भी  अच्छी  लगी  अपनी  ग़ज़ल,
             जब  सुनाई  साज़   पर    मद्दाह   ने   गाकर   मुझे।

             या तो  बेहिस हो  गए हैं  सब  मकीं  ही अब विवेक,
             खटखटाना  ही  नहीं   आता  है   या  फिर  दर मुझे।
                                      --   ©️ ओंकार सिंह विवेक                 
यूट्यूब चैनल के लिए क्लिक करें 👉 Youtube Channel  

         

February 11, 2022

काश!ऐसा न हो

 आज रूस और यूक्रेन युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं।यूक्रेन जो कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था आज रूस से अलग एक छोटा-सा देश है जो अपनी स्वायत्तता और स्वतंत्रता के अधिकार का उपयोग करते हुए नाटो देशों का सदस्य होना चाहता है और ऐसे ही कुछ और स्वतंत्र निर्णय अपने भविष्य को लेकर करना चाहता है जो रूस को नागवार गुज़र रहे हैं।स्थिति यह है कि रूस बेलारूस के साथ मिलकर युद्ध अभ्यास कर रहा है और निरंतर यूक्रेन को परमाणु युद्ध की धमकी दे रहा है।दूसरी तरफ यूक्रेन भीअपनी पूरी सामर्थ्य जुटाकर रूस से मुक़ाबले के लिए कमर कस रहा है।नाटो देश यूक्रेन के साथ आ गए हैं और अमरीकी राष्ट्रपति बाइडन ने तो यहाँ तक कह दिया है कि यदि रूस यूक्रेन पर हमला करता है तो दुनिया को जल्द ही तीसरे विश्व युद्ध का सामना पड़ेगा क्योंकि यूरोप और अमेरिका यूक्रेन की तरफ से रूस के ख़िलाफ़ मैदान में उतर जाएँगे।
यदि ऐसा हुआ, जो नहीं होना चाहिए,तो दुनिया तबाह होकर रह जायेगी क्योंकि ये परमाणु शक्ति सम्पन्न देश हैं।फ्रांस ने इस  संबंध में रूस से कुछ रास्ता निकालने के बारे में वार्ता की भी पर कोई सार्थक परिणाम नहीं रहे।
यही कामना की जा सकती है कि ये सर्वशक्ति सम्पन्न देश अपनी अति महत्वाकांक्षी सोच और अहंकार से बाहर आएँ और विश्वबंधुत्व व इंसानियत के हित को ध्यान में रखते हुए अपने-अपने दुराग्रह त्यागकर समझौते की राह निकालें।
इंसान का इंसान से हो भाईचारा,
यही पैग़ाम हमारा,यही पैग़ाम हमारा।
जय विश्व बंधुत्व,जय मानवता🙏🙏
      ---ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार


February 10, 2022

पानी रे पानी !!!!!(विश्व जल दिवस विशेष)

दुनिया मे निरंतर विकराल होते जा रहे जल संकट को देखकर भी हम सचेत नहीं हो रहे, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।वैज्ञानिक,पर्यावरणविद और अन्य लोकहितकारी संगठन इस बात को लेकर जागरूकता फैलाने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं कि आदमी घटते जल स्रोतों को लेकर चिंतित हो और अनुचित जल दोहन से बचे। 
काश! सब समय रहते चेत जाएँ और व्यर्थ जल न बहाकर इसके संरक्षण के यथोचित उपाय करें इसी कामना के साथ🙏🙏
कुंडलिया -- ओंकार सिंह विवेक
--------------------------------------------------------
  पानी   जीवन   के   लिए, है  अनुपम  वरदान,
  व्यर्थ न  इसकी बूँद  हो, रखना  है  यह ध्यान।
  रखना है  यह ध्यान,करें  सब  संचय  जल का,
  संकट हो विकराल,पता  क्या है कुछ कल का।
  करता  विनय  विवेक, छोड़  दें  अब  मनमानी,
  अनुचित  दोहन   रोक,बचा  लें   घटता  पानी।
  ------------------------------------------------------
             --ओंकार सिंह विवेक
               सर्वाधिकार सुरक्षित
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार
  

February 8, 2022

अब बहुत हुआ ऑनलाइन

कोरोना महामारी ने दुनिया को बदल कर रख दिया है इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता।इसने मिलना-जुलना,आपसी व्यवहार,कारोबार,शिक्षा और चिकित्सा के साथ-साथ और भी इंसानी ज़िंदगी से जुड़ी तमाम चीजों को बहुत हद तक बदल दिया है।
साहित्यिक गतिविधियाँ भी इसके प्रभाव से अछूती नहीं रहीं।बीमारी के डर और सुरक्षा संबंधी शासन के निर्देशों के पालन के चलते साहित्यिक आयोजन बंद हो गए।गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों/सेमिनारों का आयोजन और उनमे जाना बंद हो गया।इससे साहित्यकारों का चिंतन और सृजन भी प्रभावित हुआ।पर क्रियाशील/चिंतनशील प्राणी हर मुश्किल या प्रतिबंध का कोई न कोई हल/तोड़ ढूँढ़ ही लेता है।साहित्यिक आयोजनों के साथ भी यही हुआ।जब सीधे किसी स्थल पर इस तरह के आयोजन सुरक्षा की दृष्टि से बंद करने पड़े तो सोशल मीडिया ने साहित्यकारों का बाहें पसार कर स्वागत किया।फटाफट फेसबुक,व्हाट्सएप्प,गूगल मीट तथा स्ट्रीमयार्ड आदि पर एकल काव्य पाठ,गोष्ठियाँ और सेमिनार शुरू हो गए और साहित्यकारों का रुका कारोबार एक भिन्न रास्ते से फिर चल निकला।कार्यक्रमों के ख़ूब पोस्टर और बैनर बनने लगे।साहित्यकारों के चेहरों की खोई चमक लौट आई।दो साल से भी अधिक ये कार्यक्रम चलते रहे जो कमोबेश अब भी जारी हैं।लेकिन जैसे हर गतिविधि या प्रक्रिया का एक पीक पॉइंट होता है वैसे ही साहित्य की इन ऑनलाइन गतिविधियों का भी रहा।अब ऑनलाइन गोष्ठियों या कवि सम्मेलनों में इतने आदमी/साहित्यकार नहीं जुड़ते जितने शुरू में जुड़ते थे।कहीं-कहीं तो एकल लाइव में एक कवि घंटे भर काव्य पाठ करता रहता है और मुश्किल से दो या तीन लोग जुड़े होते हैं।यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं लेकिन इस प्रकार के ऑनलाइन कार्यक्रमों की लोकप्रियता में कमी तो निश्चित ही आई है।
हम यही कामना कर सकते हैं कि विश्व से जल्दी कोरोना की विदाई हो और सामान्य स्थितियाँ बहाल हों ताकि फिर से एक-दूसरे से आत्मीयता से  मिलना मुमकिन हो और कवि सम्मेलनों और मुशायरों की बहुप्रतीक्षित बहारें फिर से लौटें।
जय हिंद,जय भारत🙏🙏

February 7, 2022

आसमान से

नमस्कार मित्रो 🙏🙏
हज़रत दाग़ देहलवी साहब बहुत बड़े शायर गुज़रे हैं।उन्होंने
शायरी को जिस मुक़ाम तक पहुँचाया वो हम जैसे सुख़नवरों के लिए एक दर्स है।यदि हम उन जैसे महान शायरों के कलाम को पढ़कर थोड़ा-बहुत भी कुछ कहना सीख लें तो ज़िंदगी सँवर जाए।
अभी कुछ दिन पहले एक साहित्यिक ग्रुप में हज़रत दाग़ साहब की ग़ज़ल का एक मिसरा दिया गया था।उस ज़मीन में मैंने भी कुछ कोशिश की जो आप सब की प्रतिक्रिया के लिए हाज़िर कर रहा हूँ--

मिसरा  -- मुझको जमीं से लाग उन्हें आसमान से
                शायर दाग देहलवी
2    2 1      21      21   12    2 1  21  2

ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक
©️
इंसां   जो   छेड़   करता  रहा  आसमान  से,
डरते   रहेंगे    यूँ    ही     परिंदे   उड़ान  से।

कुछ हाल  तो हो जाता है आँखों से भी बयां,
हर  एक  बात   की  नहीं  जाती  ज़ुबान  से।

दुनिया  को  दर्स  देता  है जो मेल-जोल  का,
रिश्ता   हमारा   है   उसी    हिन्दोस्तान   से।
©️
सैलाब  में   घिरे  रहे  बस्ती  के  आम  लोग,
उतरे  न  ख़ास  लोग   मदद  को  मचान से।    

इच्छा  रखें  न  फल की, सतत कर्म बस करें,
संदेश ये  ही  मिलता  है  'गीता' के  ज्ञान से।

भड़काके  रात-दिन यूँ तअस्सुब की आग को,
खेला  न जाए  मुल्क के अम्न-ओ-अमान से।

मछली की आँख ख़्वाब में भेदी बहुत 'विवेक',
निकला  न तीर सच  में  तो उनकी कमान से।
               -- ©️ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार

चित्र--गूगल से साभार

February 6, 2022

हे!ऋतुराज वसंत जी बहुत-बहुत आभार


      
      हे ! ऋतुराज वसंत जी, बहुत-बहुत आभार
       ********************************
कल वसंत पंचमी के शुभ अवसर पर राष्ट्रीय पल्लव काव्य मंच,रामपुर-उ0प्र0 की ओर से कवि  शिव कुमार चंदन के आवास पर वरिष्ठ कवि श्री राम सागर शर्मा की अध्यक्षता में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया।
माँ शारदे के सम्मुख दीप प्रज्ज्वलन व पुष्प अर्पित कर सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ जिसमें कवियों ने ऋतुराज वसंत के साथ -साथ विभिन्न सामयिक विषयों पर अपनी प्रभावशाली प्रस्तुति से कार्यक्रम को रोचक बना दिया।
कवि/ग़ज़लकार ओंकार सिंह विवेक ने अपनी प्रस्तुति देते हुए कहा--
   धरती माँ  का  कर दिया,मनमोहक शृंगार,
   हे!ऋतुराज वसंत जी, बहुत-बहुत आभार।
विवेक जी ने अपनी एक सहज ग़ज़ल भी कार्यक्रम में प्रस्तुत की
             ©️ओंकार सिंह विवेक
             है जल भी  साफ़ और ताज़ा हवा है,
             नगर  से  गाँव  ही  अपना  भला है।

             कहा   है  ख़ार  के  जैसा  किसी  ने,
             किसी ने ज़ीस्त को गुल-सा कहा है।

            किसे   लानत - मलामत  भेजते  हो,
            अरे!  वो  आदमी  चिकना  घड़ा  है।
              ©️
            ज़रा   सी  चूक  ने  बाज़ी  पलट  दी,
            सिवा अफ़सोस के अब क्या बचा है।

            बड़ा  नादां  है, जो  दरिया  के  आगे-
            समुंदर  प्यास   का  लेकर  खड़ा  है।

            उसे   धमका   रहा   है  रोज़  कुहरा,
            ये  कैसा  वक़्त  सूरज  पर  पड़ा  है।

            भला क्यों जाएँ मयख़ाने की जानिब,
            चढ़ा  शेरो-सुख़न  का  जब  नशा है।
                      ---  ©️ओंकार सिंह विवेक
            
कवि शिव कुमार चंदन ने कुछ इस प्रकार अपने उद्गार व्यक्त किए
   शारदे  निवार  दे  तू जग  के विविध ताप,
   ज्ञान ज्योति कौ प्रकाश अन्तस् जगाय दे।
कवि प्रदीप राजपूत माहिर ने कुछ इस प्रकार अभिव्यक्ति दी
      सुबह  वसंती, सांझ वसंती,रात वसंती है,
      हम से दीवानों की हर एक बात वसंती है।
कवि राम सागर शर्मा ने कहा
        टेसू फूल फूले कानन में,
        आग लगाए नव यौवन में।
        गई शिशिर हेमंत ठिठुर-ठिठुरकर
        ऋतु वसंत आ गई बदन में।
कवि जितेंद्र कुमार नंदा ने कहा
       फूल हैं हम सरस् कोमल,
       दिव्यता की शान हैं हम।
       जिसने भी हमको बनाया,
       उस साईं की पहचान हैं हम।
कार्यक्रम में आशीष पांडे तथा नवीन पांडे आदि के साथ शिव कुमार चंदन जी के समस्त परिजन उपस्थित उपस्थित रहे।अंत में मिष्ठान वितरण के उपरांत कवि चंदन द्वारा सभी का आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।

February 4, 2022

साहित्यकार स्मृतिशेष श्री हीरालाल "किरण"


नमस्कार मित्रो🙏🙏
आज रामपुर-उ0प्र0 के एक ऐसे साहित्यकार के संबंध में आपके साथ संस्मरण साझा करने का मन हो रहा है जो जीवनपर्यंत बहुत ही साधारण दशा में जीवन यापन करते हुए जनसरोकारों से जुड़ा भावना प्रधान साहित्य सृजन करते रहे।जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ रामपुर के  स्मृतिशेष साहित्यकार श्री हीरालाल "किरण"जी की।

         स्वर्गीय श्री हीरालाल किरण जी से मेरा पहला संपर्क वर्ष 1984 में हुआ।मेरी नियुक्ति उसी वर्ष प्रथमा बैंक, जो अब प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक के नाम से जाना जाता है, पीपल टोला मेस्टन गंज,रामपुर में हुई थी।उन्हीं दिनों मेरी कुछ प्रारम्भिक सामयिक रचनाएँ नगर के प्रतिष्ठित समाचार पत्र "रामपुर समाचार" में प्रकाशित हुई थीं।मेरी उन रचनाओं को पढ़कर मेरा पता पूछते हुए श्री किरण जी प्रथमा बैंक की पीपल टोला शाखा में आए और अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं यहाँ आपकी शाखा के पीछे ही स्थित टैगोर शिशु निकेतन विद्यालय में शिक्षक हूँ।उन्होंने कहा कि रामपुर समाचार में प्रकाशित हुई आपकी रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं,भविष्य में आप एक अच्छे रचनाकार बनेंगे।फिर उन्होंने मुझे अपने द्वारा गठित और संचालित "गुंजन साहित्यिक मंच" के बारे में बताया तथा कहा कि आप हमारे यहाँ होने वाली काव्य गोष्ठियों में आया करें।उस समय मैं किरण जी से बहुत प्रभावित हुआ तथा उनका ह्रदय से आभार प्रकट किया।इसके बाद मैं "गुंजन मंच" की काव्य गोष्ठियों  में जाने लगा।किरण जी गुंजन की लगभग हर काव्य गोष्ठी की सूचना देने मेरे घर अथवा कार्यालय ज़रूर आते थे।अनेक बार मैं बैंकिंग कार्यों की अति व्यस्तता या अन्य कारणों के चलते गोष्ठियों में नहीं जा पाता था परंतु आदरणीय किरण जी ने अपनी ओर से कभी मुझे सूचना या निमंत्रण देने में कोई कोताही नहीं की।मैं उनके सौम्य-सरल व्यवहार और हिंदी साहित्य के प्रति समर्पण भाव से सदैव प्रभावित रहा।चेहरे पर सादगी और सौम्यता लिए हुए इकहरे बदन के श्री किरण जी साईकिल पर सदैव चुस्ती और फुर्ती के साथ शहर की गलियों में घूमकर साहित्यकारों को उत्साहित एवं प्रेरित करते हुए साहित्यिक आयोजनों की सूचना देने का काम निःस्वार्थ भाव से करते रहते थे।शहर के कई ऐसे रचनाकारों से मैं  परिचित हूँ जिनको प्रोत्साहित करने का कार्य किरण जी आजीवन करते रहे।
 श्री किरण जी के साहित्य में भले ही कुछ मूर्धन्य साहित्य मनीषी शिल्पगत त्रुटियां ढूँढ लें पर उनका सहज,सरल और स्वाभाविक सृजन भावना के स्तर पर हर आम आदमी के दिल को छूने वाला है।
 स्मृतिशेष किरण जी की विभिन्न रचनाओं के कुछ अंश यहाँ उदधृत कर रहा हूँ जिससे आपको उनके भावों की गहराई और अभिव्यक्ति की सरलता का अनुमान हो जाएगा--
 
  --मेरा क्या मैं तो जी लूँगा,ये खारे आँसू पी लूँगा।
     लेकिन अपनी बात कहो तुम,ये जीवन कैसे काटोगे।

--अपनी व्यथा न कहना मन रे,जग तो हँस रह जाएगा।
    आँसू की बरसात न करना,नीर व्यर्थ बह जाएगा।

---प्रीत मन की वह लहर हूँ,बस गया इसमें नगर है।
      पथ नए खुलते दिखे हैं,जुड़ गया सारा शहर है।

---दर्पण में जब-जब मैंने, मन में रख अंतर देखा।
      जो चित्र बने थे उर में,उनकी उभरी थी रेखा।
            ---स्मृतिशेष हीरालाल किरण

किरण जी की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी परंतु फिर भी साहित्य में अपनी गहन रुचि और समर्पण भाव के कारण साहित्यिक आयोजनों में यथाशक्ति आर्थिक योगदान अवश्य किया करते थे।उनकी बेटी गरिमा एक बहुत ही प्रतिभाशाली छात्रा रही।जब वह अध्ययनरत थी तो गोष्ठी/समारोह आदि में उसकी प्रतिभा और प्रगति के बारे में किरण जी से अक्सर ही चर्चा हुआ करती थी।मैंने उनकी होनहार बेटी की प्रतिभा से प्रभावित होकर अपनी बड़ी बेटी का नाम भी गरिमा रखा।बाद के दिनों में जब कभी उनसे मुलाक़ात होती थी तो मुझसे वह यह ज़रूर पूछते थे कि भाई!तुम्हारी गरिमा के क्या हाल चाल हैं,उसकी पढ़ाई-लिखाई कैसी चल रही है।उनकी  ये सब बातें याद करके जी भर आता है।
आज साहित्य जगत में अपने स्थान से मैं संतुष्ट हूँ।एक ग़ज़ल संग्रह "दर्द का एहसास" आ चुका है अक्सर मंचों पर काव्य पाठ को भी जाता हूँ और आजकल दूसरे ग़ज़ल संग्रह पर काम चल रहा है जो जल्द ही प्रतिक्रिया के लिए आपके संमुख होगा परन्तु मैं यह अवश्य कहना चाहूँगा कि आज साहित्य जगत में जो सम्मान मुझे हासिल है उसमें श्री किरण जी की प्रेरणा का भी बहुत बड़ा योगदान है।
ऐसे सहज और सरल ह्रदय इंसान तथा साहित्य को समर्पित रहे व्यक्तित्व की स्मृतियों को मैं ह्रदय की असीम गहराइयों से श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ🙏🙏🌷🌷🌷🌷
             ---ओंकार सिंह विवेक






     

February 1, 2022

जो मुददआ नहीं है उसे -----

सादर प्रणाम मित्रो🙏🙏
आज साहित्यिक संस्था विद्योत्तमा फाउंडेशन नाशिक,महाराष्ट्र से साहित्यिक सेवाओं हेतु सम्मान पत्र प्राप्त हुआ जो आप सब के साथ साझा करते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है।इस तरह के प्रोत्साहन प्रतिसाद पाकर सृजन अभिरुचि को नई ऊर्जा मिलती है।आज फिर से एक नई जदीद ग़ज़ल आप सब की ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ।
आनंद लें और बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं से अवगत कराएँ--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
हम   कैसे  ठीक  आपका   ये   मशवरा  कहें,
जो   मुददआ  नहीं   है   उसे   मुददआ  कहें।

मालूम   है    कि   होगा  हवाओं   से  सामना,
फिर  किस  लिए  चराग़  इसे  मसअला कहें।

इंसां  को  प्यास  हो  गई   इंसां  के  ख़ून  की,
वहशत  नहीं   कहें  तो  इसे  और  क्या  कहें।
©️
है  रहज़नों   से   उनका   यहाँ  राबिता-रसूख़,
तुम  फिर भी  कह  रहे  हो  उन्हें रहनुमा कहें।

वो  सुब्ह  तक  इधर  थे मगर  शाम  को उधर,
ऐसे   अमल   को   सोचिए  कैसे  वफ़ा   कहें।

इंसानियत  का  दर्स  ही  जब सबका अस्ल है,     
फिर क्यों किसी भी धर्म को आख़िर बुरा कहें।

मिलती  है  दाद भी  उन्हें  फिर  सामिईन  की,
शेरो-सुख़न  में  अपने  जो  अक्सर  नया कहें।
               ----©️ओंकार सिंह विवेक


Featured Post

साहित्यिक सरगर्मियां

प्रणाम मित्रो 🌹🌹🙏🙏 साहित्यिक कार्यक्रमों में जल्दी-जल्दी हिस्सेदारी करते रहने का एक फ़ायदा यह होता है कि कुछ नए सृजन का ज़ेहन बना रहता ह...