June 30, 2019

ज़िन्दगी से

ग़ज़ल-ओंकार सिंह'विवेक'
शिकायत कुछ नहीं है ज़िन्दगी  से,
मिला जितना मुझे हूँ ख़ुश उसी  से।

ज़रूरत  और   मजबूरी  जहाँ    मैं,
करा  लेती हैं सब  कुछ आदमी से।

रखें  उजला  सदा किरदार  अपना,
सबक़  लेंगे  ये  बच्चे आप  ही से।

न छोड़ेगा जो उम्मीदों का दामन,
वो होगा आशना इक दिन ख़ुशी से।

उसे  अफ़सोस  है अपने  किये  पर,
पता  चलता है आँखों की नमी  से।
-ओंकार सिंह 'विवेक'(सर्वाधिकार सुरक्षित)

June 29, 2019

दोहे: अब तो हो बरसात

मिलकर सब करते विनय,जमकर बरसो आज,
अपनी ज़िद को छोड़  दो, हे  बादल   महाराज।

आज बहुत प्यासी धरा, मेघ बरस  दिल   खोल,
यदि बरसेगा  बाद  में,   तो  क्या   होगा    मोल।

सबके  होठों  पर  यहाँ,  सिर्फ़  यही  है    बात,
गरमी की हद  हो  गयी,  भगवन कर  बरसात।

उमड़  पड़े आकाश  में, जब  बादल  दो- चार,
सबकी आशा को लगे, जग  में  पंख   हज़ार।

पशु-पक्षी, मानव जगत, पौधों  सजी  क़तार,
सब को ही राहत मिले, जब कुछ पड़े  फ़ुहार।
----(सर्वाधिकार सुरक्षित) ओंकार सिंह'विवेक'

June 25, 2019

सिंहासन

आज का चित्राधारित लेखन--          
  तितली  पकड़ी  हैं बाग़ों में,छत  मे  झूले डाले हैं,
  मस्ती ही की है जीवन में,जब से होश सँभाले हैं।
  पर अब थोड़ी बात अलग है,अब सत्ता है हाथों में,
  अब हमको शासन करना है,अब हम गद्दी वाले हैं।
-                           ----------ओंकार सिंह विवेक

June 21, 2019

Yoga Day

आज अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर कुछ विषयगत दोहे प्रस्तुत हैं-

तन मन दोनों स्वस्थ हों,दूर रहें सब रोग,
आओ इसके वासते, करें साथियो योग।

जब से शामिल कर लिया ,दिन चर्या में योग,
मुझसे घबराने लगे,सभी तरह के रोग।
 
औषधियों से तो हुआ,सिर्फ क्षणिक उपचार,
मिटा दिये पर योग ने,जड़ से रोग विकार।

घोर निराशा,क्रोध,भय,उलझन और तनाव,
योग शक्ति से हो गये, ग़ायब सभी दबाव।

योग साधना से मिटे, मन के सब अवसाद,
जीवन मेरा हो गया,ख़ुशियों से आबाद।

रामकिशन,गुरमीत सिंह, या जोज़फ़, रहमान,
सजी योग से सभी के,चेहरों पर मुसकान।

एक दिवस नहिं योग का,प्रतिदिन हो अभ्यास,
सबके जीवन में तभी,आयेगा उल्लास।

------ओंकार सिंह विवेक (सर्वाधिकार सुरक्षित)

June 2, 2019

हक़ीक़त

ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल9897214710
क़द यहाँ औलाद का जब उनसे बढ़कर हो गया,
फ़ख़्र  से  ऊँचा  तभी  माँ-बाप  का सर हो गया।

जब  भरोसा  मुझको अपने बाज़ुओं पर हो गया,
साथ   मेरे   फिर  खड़ा  मेरा  मुक़द्दर  हो   गया।

मुब्तिला इस ग़म में अब रहने लगा वो रात-दिन,
क्यों  किसी का क़द यहाँ उसके बराबर हो गया।

बाँध  रक्खी  थीं  उमीदें  सबने  जिससे जीत की,
दौड़  से  वो  शख़्स  जाने  कैसे  बाहर  हो  गया।

ख़ून  है  सड़कों  पे  हर  सू और फ़ज़ा में ज़ह्र है,
देखते  ही  देखते  यह   कैसा   मंज़र   हो   गया।
----------ओंकार सिंह'विवेक'(सर्वाधिकार सुरक्षित)

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