March 29, 2024

सत्याविहार,फेज -2 रामपुर (उoप्रo) में शानदार होली-उत्सव

मित्रो सादर प्रणाम 🌷🌷🙏🙏

       (कार्यक्रम की प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग करने वालों को प्रोत्साहन स्वरूप उपहार भी प्रदान किए गए)

त्योहार हमारी सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं के वाहक होते हैं।जब सभी लोग मिल-जुलकर सोहार्द पूर्ण वातावरण में तीज-त्योहार मनाते हैं तो जीवन में एक नई ऊर्जा और उमंग महसूस होने लगती है। होली भी एक ऐसा ही त्योहार है जिसमें मन फाग गाने को आतुर हो जाता है,रंगों की धनक सबको आकर्षित करने लगती है गुजियों और ऐसे ही तमाम पकवानों की सुगंध कई दिन पहले से ही आनी प्रारंभ हो जाती है।
होली का ख़ुमार सर चढ़ने पर सत्याविहार फेज-2 रामपुर(उत्तर प्रदेश) के निवासियों ने दिनांक 25 तथा 26 मार्च,2024 को पारस्परिक सहयोग से कॉलोनी में एक शानदार कार्यक्रम का आयोजन किया।
रंग वाले दिन अर्थात 25 मार्च को प्रात: 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक सबने जमकर होली खेली।एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगाकर तथा ढोल की थाप पर होली और फाग गाकर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान किया। रंग के इस उत्सव में सूक्ष्म जलपान की भी व्यवस्था रही। जलपान में ठंडाई को ख़ास तौर पर लोगों ने पसंद किया।
रंग के अगले दिन अर्थात 26 मार्च,2024 को सांय 6 बजे से रात्रि 10 बजे तक क्रमश: सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा सहभोज का आयोजन रहा।
दूसरे दिन के कार्यक्रम का प्रारंभ हाऊजी/तंबोला गेम से हुआ। हाऊजी किटी पार्टीज आदि में खेला जाने वाला एक लोकप्रिय गेम है। इसमें महिला वर्ग ने काफ़ी बढ़- चढ़कर हिस्सेदारी की। गेम के संयोजन/संचालन में श्रीमती आशा भांडा तथा श्रीमती सपना अग्रवाल का विशेष सहयोग रहा।
हाऊजी गेम के बाद श्रीमती पूनम गुप्ता व श्रीमती अलका गुप्ता के संयोजन/संचालन में "वह शक्ति हमें दो दयानिधे ---" प्रार्थना से कार्यक्रम का विधिवत शुभारंभ हुआ।सभी महिलाओं ने सस्वर प्रस्तुति देकर कार्यक्रम का सुंदर आग़ाज़ किया। पुरुषों ने भी महिला मंडल के सुर से सुर मिलाकर प्रार्थना का गायन किया।
यदि ऐसे कार्यक्रमों में बच्चों की सक्रिय सहभागिता न हो तो आनंद नहीं आता। अत: कार्यक्रम में बच्चों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए कई रोचक आइटम्स जैसे डांस,गायन, ट्रिकी प्रश्न तथा tounge twister आदि ख़ास तौर पर रखे गए।
बच्चों की प्रतिभाओं को पल्लवित और पोषित करने वाले इन कार्यक्रमों का संयोजन और संचालन कलात्मक अभिरुचि की धनी श्रीमती पूनम गुप्ता तथा श्रीमती अलका गुप्ता जी द्वारा किया गया। खचाखच भरे पंडाल में सभी ने मोहक प्रस्तुतियों पर करतल ध्वनि से बच्चों का उत्साहवर्धन किया।
कार्यक्रम में श्रीमती रेखा सैनी जी ने भी अपनी मधुर आवाज़ में लोकप्रिय फिल्मी गीत "झिलमिल सितारों का आंगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा" गाकर उपस्थित लोगों की ख़ूब तालियां बटोरीं।
श्री अतर सिंह जी ने चुटीले अंदाज़ में देहात और शहर को लेकर अपने कई संस्मरण/जोक्स सुनाए जिन्हें सुनकर लोग हँसने को मजबूर हो गए।
कॉलोनी निवासी व्यायाम शिक्षक श्री वीर सिंह जी ने शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर कई महत्वपूर्ण बातें साझा कीं तथा आत्म सुरक्षा के कुछ दांव-पेचों का प्रेजेंटेशन भी दिया।उनके प्रेजेन्टेशन से लोग बहुत प्रभावित हुए।
          (कार्यक्रम में प्रसन्नचित मुद्रा में महिला शक्ति)
कार्यक्रम का संचालन करते हुए बीच-बीच में मुझे भी अपने कुछ सामयिक दोहे प्रस्तुत करने का अवसर प्राप्त होता रहा।आप भी उन दोहों का रसास्वादन करें ---
        बच्चे   आंगन  में   खड़े, रंग   रहे  हैं   घोल।
        बजा रहे हैं भागमल,ढम-ढम अपना ढोल।।

        कर में पिचकारी लिए, पीकर थोड़ी भंग।
         देवर जी  डारन  चले, भौजाई  पर रंग।।
                  ©️ ओंकार सिंह विवेक 
 कार्यक्रम को मूर्त रूप प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले श्री प्रवीण भांडा जी ने भविष्य में और अच्छे कार्यक्रमों की अपेक्षा करते हुए सभी का आभार ज्ञापित किया।
यों तो यह भव्य आयोजन सभी कॉलोनी वासियों के पारस्परिक सहयोग और सहमति से ही संपन्न हो सका। परंतु कुछ लोगों का यदि ख़ास तौर पर ज़िक्र न किया जाए तो यह ब्लॉग पोस्ट अधूरी ही कही जाएगी।कार्यक्रम की रुपरेखा,व्यवस्था और यथोचित क्रियान्वयन में श्री प्रवीण भांडा जी, श्री आर के गुप्ता जी,भाई अंकुर रस्तौगी जी तथा श्री के के अग्रवाल,एडवोकेट का विशेष सहयोग रहा।इन लोगों की पहल के कारण ही इतना सुंदर आयोजन संभव हो सका। अत: इन लोगों के प्रति विशेष आभार प्रकट करना हम सबका दायित्व है।
कार्यक्रम के अंत में सबने लज़ीज़ डिनर का लुत्फ़ उठाया।
इन आयोजनों का उद्देश्य जलपान,सहभोज और मनोरंजन करना मात्र ही नहीं होता।ऐसे अवसरों पर लोग अपने रुतबे/ओहदे आदि के पूर्वाग्रह से मुक्त होकर एक साथ बैठ पाते हैं,यह एक बड़ी बात है।आशा है भविष्य में सबकी सहमति,सुझाव और सहयोग से कॉलोनी में और अच्छे कार्यक्रमों का आयोजन होता रहेगा।
इति !!!
--- ओंकार सिंह विवेक
 ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/टेक्स्ट ब्लॉगर

March 23, 2024

होली के नव रंग : कुछ दोहों के संग

प्रणाम मित्रो 🌹🌹🙏🙏
आप सभी को रंगोत्सव होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं।
मन फाग गाने को आतुर है,रंगों की धनक सबको आकर्षित कर रही है।गुजियों और ऐसे ही तमाम पकवानों की सुगंध आनी प्रारंभ हो गई है।आशय यह है कि होली का ख़ुमार सर चढ़ने लगा है

त्योहार चाहे किसी भी मत अथवा संप्रदाय द्वारा मनाए जाते हों,सभी त्योहार आपसी सौहार्द और मेल-मोहब्बत का ही संदेश देते हैं।जीवन में नए उत्साह और ऊर्जा का संचार करते हैं। किसी भी त्योहार को संकीर्ण विचारधारा /मानसिकता के साथ मनाने से उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।रंगों का पर्व होली एक-दूसरे को रंग और गुलाल लगाकर गले मिलने का त्योहार है। मनुष्य के जीवन में रंगों का बहुत महत्त्व है।रंगों के बिना जीवन नीरस है।तो आईए भारतीय परंपरा और संस्कृति को संवर्धित और पोषित करने वाले आपसी सौहार्द के प्रतीक रंगोत्सव होली को मिलजुलकर मनाएं।
होली को लेकर कहे गए मेरे कुछ दोहों का आनंद लीजिए :

होली : कुछ दोहे

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©️

महँगाई  की   मार   से, टूट   गई   हर  आस।

निर्धन की  इस  बार भी, होली  रही उदास।।

 🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊

आओ मिलकर आज तो,कर लें कुछ हुडदंग।

मुस्काकर   कहने   लगे, हमसे   सारे    रंग।।

🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊

जाने  उनके  नाम   पर, होती  है  क्यों  जंग।

उजला   केसरिया   हरा ,हैं सब   प्यारे  रंग।।

🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊

बच्चे   आँगन   में   खड़े, रंग   रहे   हैं   घोल।

बजा  रहे हैं भागमल, ढम-ढम अपना ढोल।।

🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊🎊

कर  में  पिचकारी  लिए, पीकर  थोड़ी  भंग।

देवर  जी   डारन   चले, भौजाई   पर   रंग।।

            ©️ ओंकार सिंह विवेक 




March 18, 2024

होली है भाई होली है!!!(उत्तर प्रदेश साहित्य सभा रामपुर इकाई की होली के अवसर पर काव्य गोष्ठी/निशस्त )

होली के अवसर पर उत्तर प्रदेश साहित्य सभा की रामपुर इकाई की शानदार कवि गोष्ठी/निशस्त

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मन फाग गाने को आतुर है,रंगों की धनक सबको आकर्षित कर रही है।गुजियों और ऐसे ही तमाम पकवानों की सुगंध आनी प्रारंभ हो गई है।आशय यह है कि होली का ख़ुमार सर चढ़ने लगा है।होली की इस बढ़ती ख़ुमारी के चलते कल दिनांक 17 मार्च,2024 को रामपुर के होटल कॉफी कॉर्नर में उत्तर प्रदेश साहित्य सभा की रामपुर इकाई द्वारा एक शानदार काव्य गोष्ठी/निशस्त का आयोजन किया गया।


गोष्ठी के अध्यक्ष(स्थानीय सभा के संरक्षक)अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर ताहिर फ़राज़ साहब ने तग़ज़्ज़ुल से भरपूर कलाम पेश करते हुए कहा :

     उतरता है  जो आँखों  से  तुम्हारे  ग़म का पैराहन,

      सहर को गुल पहनते हैँ,वही शबनम का पैराहन।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध शायर नईम नज्मी जी ने अपनी फ़िक्र के गुलशन के नायाब फूल/शेर पेश करते हुए कहा :

   जब भी हम फ़िक्र के गुलज़ार में आ जाते हैं,

   लफ़्ज़ महके  हुए अशआर  में आ  जाते  हैं।      

 

साहित्य सभा के संयोजक सुरेंद्र अश्क रामपुरी जी ने आज भी हरियाली को बचाए हुए गांवों का सुंदर चित्र अपनी रचना में प्रस्तुत  किया--

तुम्हारे शहर में हरसू हैं बेशक कोठियां ऊंची,

महकता फूलों  से आंगन  हमारे  गांव में है।

ये माना  है सुकूं  इन ए सी औं  में कूलरों में,

मगर सुख चैन तो उन पीपलों की छांव में है।


कार्यक्रम में सभा की स्थानीय इकाई के अध्यक्ष ओंकार सिंह विवेक ने अपने इस दोहे के माध्यम से होली खेलने एक का शानदार  चित्र प्रस्तुत किया --

         कर में पिचकारी लिए, पीकर थोड़ी भंग।

         देवर  जी  डारन चले, भौजाई  पर  रंग।।


वरिष्ठ शायर डॉक्टर जावेद नसीमी साहब के इस मार्मिक शेर ने सभी के दिलों को छू लिया 

   हाय!वो लोग जो तस्कीने-दिलो-जां थे कभी,

   क्या बिगड़ जाता जो वो लोग भी जीते रहते।

सभा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष फ़ैसल मुमताज़ ने अपने सुख़न के रिवायती अंदाज़ से रूबरू कराते हुए कहा --

  मस्त पवन के झोके में जो लहरा दे वो आंचल को,

   पानी-पानी  कर डालेगा आवारा से  बादल को।

शायर अशफ़ाक़ ज़ैदी ने अपने तरन्नुम का कमाल दिखाते हुए पढ़ा --

   दीवानगी-ए-इश्क़ बड़ा काम कर गई,

   कच्चे घड़े पे बैठ के दरिया उतर गई।

कवि/लेखक सुधाकर सिंह जी ने इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर तरह से आम जन के ही ठगे जाने की व्यथा कुछ इस तरह अभिव्यक्त की--

कोई हारा कहीं अगर तो,              

समझो जनता ही हारी है।                  

नेता कब नेता से हारा,                        

दल भी दल से नहीं हारते।

सभा के सह सचिव सुमित सिंह मीत का यह आशावादी शेर  बहुत पसंद किया गया --

      नए बहुत से दरवाज़े खुल जाते हैं,

      बंद अगर कोई दरवाज़ा होता है।

कोषाध्यक्ष अनमोल रागिनी चुनमुन ने अपनी सामयिक काव्य प्रस्तुति में कहा --

यत्र तत्र सर्वत्र हैं,ख़ुशियाँ अपरम्पार।

बसंत लेकर आ गया, होली का त्योहार।।

सभा के मंत्री भाई राजवीर सिंह राज़ ने गोष्ठी का संचालन करते हुए ज़ुल्म के पैरोकारों को लेकर तरन्नुम में अपना कलाम पेश करते हुए कहा --

      क्यों सुकूं की वो आरज़ू करते,

       जिनके ख़ंजर लहू-लहू करते।

कार्यक्रम में संरक्षक ताहिर फ़राज़ साहब ने नए रचनाकारों को उच्चारण तथा काव्य में शिल्प और कलात्मकता को लेकर कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए। उन्होंने कहा कि इस तरह की अदबी सरगर्मियां जारी रखने से नए रचनाकारों में मश्क़ करने का जज़्बा बना रहता है।


सभा के स्थानीय अध्यक्ष ओंकार सिंह विवेक द्वारा सभी सदस्यों से आपसी सहयोग तथा समन्वय द्वारा नियमित अंतराल पर संस्था की गोष्ठियों के आयोजन को सक्रियता से जारी रखने का अनुरोध किया गया।

उत्साह और उमंग के बीच सबने एक दूसरे को आपसी सौहार्द के प्रतीक रंगोत्सव होली की शुभकामनाएं दीं।अंत में सभा के संयोजक सुरेंद्र अश्क रामपुरी जी द्वारा सभी का आभार प्रकट करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।

 ---- ओंकार सिंह विवेक,अध्यक्ष 

उत्तर प्रदेश साहित्य सभा रामपुर इकाई

(ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर)

होली है!!!होली है!!! होली है !!!🌹🌹👈👈

सम्मानित अख़बारों द्वारा कार्यक्रम की शानदार कवरेज करने के लिए हम ह्रदय से आभारी हैं 🙏🙏 👇👇



           

March 16, 2024

स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी की स्मृतियों को नमन 🌹🌹🙏🙏

यूँ तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए
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स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी का स्मरण करते हुए महमूद रामपुरी साहब का यह शेर बार-बार याद आता है:
         मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस,
         यूँ तो  दुनिया  में  सभी आए  हैं मरने के लिए।
                     --- महमूद रामपुरी 
नि:संदेह यह शेर मुरादाबाद जनपद के श्रेष्ठ साहित्यकार और सामाजिक चिंतक स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी(1958-2023) जैसे लोगों के लिए ही कहा गया होगा। यों तो सभी को इस नश्वर संसार से जाना है परंतु अच्छे लोग जब असमय हमें छोड़कर जाते हैं तो बहुत दुःख होता है। अभी तो समाज,साहित्य जगत और श्रमिक वर्ग के कल्याण को लेकर मधुकर जी के मन में न जाने कितने सार्थक विचार और योजनाएँ रहीं होंगी थीं जिन्हें मूर्त रूप दिया जाना शेष था। उनका यों अचानक चले जाना सबको स्तब्ध कर गया।
 (चित्र में कैप लगाए हुए स्मृतिशेष मधुकर जी तथा उनकी संस्था "संकेत" से वर्ष,2022 में सम्मानित होते हुए आपका अनुज ओंकार सिंह विवेक)

मेरा मुरादाबाद के साहित्यिक कार्यक्रमों में अक्सर 
आना-जाना होता रहता है। इसके चलते मैं मधुकर जी को  काफ़ी पहले से जानता था।लेकिन उन्हें नज़दीक से जानने और समझने का अवसर मुझे वर्ष, 2022 से मिला।वर्ष,2022 (माह तो ठीक से ध्यान नहीं) में मधुकर जी का फोन आया था कि "संकेत" संस्था के बैनर तले हम आपके साहित्यिक अवदान के लिए आपको "समृद्ध लेखनी सम्मान" से सम्मानित करना चाहते हैं।उसके बाद इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि और सामाजिक सरोकार आदि को लेकर उनसे कई बार फोन पर बात हुई।साझा संकलन "साधना के पथ पर" हेतु उन्हें अपनी रचनाएँ भी प्रेषित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।इस दौरान बीच-बीच में उनसे साहित्य और समाज के अंतर्संबंधों को लेकर बहुत चर्चा हुई।मधुकर जी भी मेरी तरह इस बात के पक्षधर थे की काव्य में केवल कलात्मकता और शब्दों की जादूगरी ही नहीं होनी चाहिए अपितु उसमें सामाजिक सरोकार भी दिखाई देने चाहिए। उनकी "अभिलाषाओं के पंख" और "अजनबी चेहरों के बीच" कृतियों ने साहित्य जगत में बड़ी पहचान बनाई।मधुकर जी के काव्य चिंतन की गहराई को जानने के लिए उनके दो मुक्तक देखें :                (1)

कोई सच छुप सकता कैसे झूठ की झीनी चादर से,         बार-बार छलकेगा पानी मित्रों अधजल गागर से।

  इतना  तो  हैं  सभी जानते ज्ञानी भी अज्ञानी भी,             कैसे तुलना कर सकती है कोई नदिया  सागर से।

               (2)

जीने का अब नया बहाना सीख लिया,

बीच ग़मों के भी मुस्काना सीख लिया।

रोते-रोते    कैसे    हँसना   है   हमको, 

हमने भी जज़्बात दबाना सीख लिया।

मधुकर जी की  ग़ज़ल के ये दो शेर उनके चिंतन की धार और तेवर जानने के लिए काफ़ी हैं :

     दुष्टों से टकराने वाले, लोग अभी तक ज़िंदा हैं।

   गीत न्याय के गाने वाले, लोग अभी तक ज़िंदा हैं।।

  हमें नींद की गोली देकर, कब तक आप सुलाएंगे,

  सबको रोज़ जगाने वाले, लोग अभी तक ज़िन्दा हैं।।

उनके काव्य सृजन में समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की ज़बरदस्त पैरवी देखने को मिलती है।अपनी रचनाओं में मधुकर जी ने सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर बड़ी गहरी चोट की है।बहुमुखी प्रतिभा के धनी मधुकर जी ने कुछ लघु फिल्मों में काम किया तथा लघु फिल्मों के लिए कहानियां और डायलॉग आदि भी लिखे। 

मधुकर जी श्रमिक और सर्वहारा वर्ग के शोषण को लेकर भी ख़ासे चिंतित दिखाई देते थे।उनके हितों को लेकर वे जीवन पर्यंत ट्रेड यूनियंस आदि में सक्रिय रहे। उनकी वाकपटुता, स्पष्टवादिता और सदाशयता से मैं काफ़ी प्रभावित रहा।
मधुकर जी की स्मृतियों को सादर नमन🌹🌹🙏🙏

ओंकार सिंह विवेक 
साहित्यकार
रामपुर(उत्तर










 




        





March 10, 2024

यादें 'शशि' जी की

   यादें 'शशि' जी की
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मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस,
यूं तो दुनिया में  सभी आए हैं  मरने के  लिए।
        -- महमूद रामपुरी
मृत्यु ही जीवन का सत्य है।हम सबको एक न एक दिन यह दुनिया छोड़कर जाना है।इस सत्य को जानते हुए भी
भले लोगों के दुनिया से रुख़सत होने पर बहुत अफ़सोस होता है। ऐसे लोग अपने परोपकार के कामों के कारण मरकर भी अमर हो जाते हैं। आदरणीय कल्याण कुमार जैन शशि जी एक ऐसे ही नेक दिल इंसान,हकीम तथा आशुकवि थे जिनके असमय परलोकवासी होने का बहुत दुःख होता है। महमूद रामपुरी साहब का ऊपर कोट किया गया शेर शायद शशि जी जैसे लोगों के लिए कहा गया हो।
शशि जी का जन्म जनपद रामपुर(उत्तर प्रदेश) में 8 मार्च,1908 को तथा देहावसान 9 सितंबर,1988 को हुआ था।
स्मृतिशेष शशि जी के साथ मुझे कई स्थानीय कवि गोष्ठियों में सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ।अत्यधिक वरिष्ठ कवि होने के कारण शशि जी अक्सर उन दिनों कवि गोष्ठियों की अध्यक्षता किया करते थे। वे हर कार्यक्रम में प्रत्येक कवि/शायर को बड़े ध्यान से सुना करते थे और व्यक्ति,प्रसंग तथा समय के अनुसार तुरंत रचित अपनी चार पंक्तियां सुनाकर महफ़िल लूट लेते थे। भाव और शिल्प के कुशल निर्वहन के साथ रामपुर में आशु कविता सुनाने का दौर तो जैसे शशि जी के साथ ही ख़त्म हो गया-सा लगता है।आज रामपुर के कवि समाज तथा श्रोताओं को शशि जी की कमी बहुत खलती है।मुझे याद आ रहा है,एक बार रामपुर की विश्व प्रसिद्ध रज़ा लाइब्रेरी में एक कवि सम्मेलन/मुशायरे का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम में शशि जी भी मंच पर विराजमान थे।संयोगवश मैं भी उस कार्यक्रम में उपस्थित था।कार्यक्रम में उठने-बैठने को लेकर कुछ नौजवानों ने वहां व्यवधान उत्पन्न करना प्रारंभ कर दिया।शशि जी ने उसी समय व्यवधान उत्पन्न करने वाले युवाओं को लक्ष्य करके अपनी आशु कविता की चार पंक्तियां सुनाईं। शशि जी की त्वरित कविता का भाव समझकर कुछ ही देर में सब चुप होकर बैठ गए और कार्यक्रम शांति पूर्वक चलने लगा। ऐसे थे कवि कल्याण कुमार जैन शशि जी।
शशि जी के साहित्य में हमें नैतिक मूल्यों, सिद्धांतों, शालीन आचरण तथा मानवीय संवेदनाओं की ज़बरदस्त पैरोकारी देखने को मिलती है। स्मृतिशेष शशि जी की कुछ पुस्तकों के नाम याद आ रहे हैं -- क़लम, ख़राद, मेरी आराधना,मुर्दा अजायबघर तथा देवगढ़ दर्शन एवम जैन समाज दर्पण आदि। क़लम और ख़राद पुस्तकें तो मेरी घरेलू लाइब्रेरी में अब तक मौजूद हैं जिन्हें मैंने कई- कई बार पढ़ा है। ख़राद की एक रचना में शशि जी एक जगह कहते हैं :
   जो  ख़राद पर चढ़े चमक उन हीरों में आई है।
उनकी सभी रचनाओं की भाषा बहुत सरल और सहज है जो आम आदमी की समझ में आसानी से आ जाती है।रचनाकार वही महान होता है जो कविता में अपने भावों और कला का ही प्रदर्शन न करे अपितु उसकी रचनाओं के कुछ सामाजिक सरोकार भी हों। शशि जी की अधिकांश रचनाएँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।इंसानियत की पैरवी करती हुई शशि जी की रचना की ये पंक्तियां देखें :
 मैं मानव हूं मानवता को मानूंगा महान वरदान,
आजीवन सम्मुख रक्खूंगा मानव का आदर्श महान।

शशि जी एक योग्य वैद्य भी थे। नब्ज़ देखकर पुराने से पुराने रोगों की चिकित्सा भी किया करते थे।मुझे याद है कि एक बार में भी नब्ज़ दिखाकर शशि जी से 
नुस्ख़ा बंधवाकर लाया था।
मैंने शशि जी की रचनाओं को इंटरनेट/सोशल मीडिया पर खोजने का प्रयास किया तो 'कविता कोश' पटल पर
उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी और उनकी दो बाल रचनाएँ देखने को मिलीं।यह देखकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई।मेरी गुड़िया तथा दावतनामा शीर्षक से उपलब्ध इन दो रचनाओं में से एक ' दावतनामा' की चार पंक्तियां यहां उद्धृत हैं :
    कहा शेर ने टेलीफोन पर हलो! शिकारी मामा,
    भेज रहा हूं सालगिरह का तुमको दावतनामा।
    मामी,मौसी,मुन्ना, मंगू  सबको   लेकर   आना,
    मगर शर्त यह याद रहे  बंदूक़ साथ मत लाना।
                           ('पराग' जनवरी,1980)
शशि जी का साहित्य बच्चों और बड़ों सबको युगों-युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। उनके असामयिक निधन से हुई क्षति की पूर्ति असंभव है। मैं अपनी इन चार पंक्तियों के माध्यम से स्मृतिशेष शशि जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए वाणी को विराम देता हूं :
     महफ़िलों   का    नूर   थे   शृंगार   थे,
    सबकी चाहत  थे  सभी  का  प्यार थे।
    कहते हैं आदर से 'शशि' जी सब जिन्हें,
    वो  अदब  के   इक  बड़े   फनकार  थे।
                       ©️ओंकार सिंह विवेक 

--- ओंकार सिंह विवेक
     ग़ज़लकार/समीक्षक/ब्लॉगर/कंटेंट राइटर


 

March 7, 2024

उसकी फाइल ही नीचे दबी रह गई



दोस्तो नमस्कार🌷🙏

जिन साहित्यिक कार्यक्रमों में तरही मिसरे दिए जाते हैं उनमें हिस्सेदारी का एक बड़ा फ़ायदा यह होता है कि इस बहाने रचना/ग़ज़ल का सृजन हो जाता है।उसमें एक चुनौती रहती है कि अमुक पंक्ति/मिसरे पर बहुत से साहित्यकार अभ्यास करेंगे और ग़ज़ल कहेंगे सो हमें भी कुछ न कुछ कहना ही चाहिए।इस सोच के साथ जब चिंतन की उड़ान शुरू होती है तो ग़ज़ल मुकम्मल हो ही जाती है।
किसी दी हुई पंक्ति पर रचना कहना काव्य की पुरानी परंपरा है।इस बहाने साहित्यकारों का सृजन समृद्ध होता है। अलग - अलग साहित्यकारों की रचनाएं पढ़कर उनकी फ़िक्र का भी अंदाज़ा हो जाता है।
हाल ही में एक साहित्यिक पटल पर एक मिसरा/पंक्ति दी गई थी उस पर हुई ग़ज़ल के कुछ शेर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ पोस्ट कर रहा हूं :
नई ग़ज़ल के चंद अशआर 
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       फ़ाइलुन  फ़ाइलुन फ़ाइलुन  फ़ाइलुन
          ©️
       अब  कहाँ   इसमें  पाकीज़गी  रह गई,
        मस्लहत  की  फ़क़त  दोस्ती  रह गई।

        लोग  ज़ुल्मत  के  हक़  में खड़े हो गए,
        देखकर   दंग   ये ,रौशनी    रह     गई।
                 
        कब हुईं दिल की पूरी  सभी  ख़्वाहिशें,
         एक    पूरी    हुई    दूसरी    रह    गई।

         जिसने  बाबू  के   संकेत  समझे  नहीं,
         उसकी  फ़ाइल  ही  नीचे  दबी रह गई।

         मंच    पर    चुटकुले   और   पैरोडियाँ,
        आजकल  बस  यही  शायरी  रह  गई।
                  --- ©️ ओंकार सिंह विवेक


March 1, 2024

लोग कैसे किसी से मिलते हैं


सम्मानित सदीनामा पत्रिका में प्रकाशित हुई मेरी ग़ज़ल का आनंद लीजिए। इस बीच हिंदी देवनागरी में ग़ज़ल कहने वाले अपने साथियों के साथ कुछ जानकारी भी साझा करता हूं।
सब साथी को तो नहीं परंतु कुछ को मैंने ग़ज़ल में आज तुकांत या क़ाफिये के साथ राज़ तुकांत भी प्रयोग करते हुए देखा है।उच्चारण की दृष्टि से यह प्रयोग बिल्कुल उचित नहीं हैं। अत: हमें ऐसे प्रयोगों से हर संभव बचना चाहिए।
हिंदी वर्णमाला में ज ध्वनि के लिए एक अक्षर ज ही है। ज़ अर्थात ज के नीचे बिंदु/नुक्ता लगाकर जो उच्चारण किया जाता है उसके लिए अलग से कोई अक्षर नहीं है।जबकि उर्दू वर्णमाला में ज ध्वनि के लिए ج (जीम) अक्षर होता है तथा ज़ ध्वनि के लिए पांच अक्षर होते हैं।जिनमें उच्चारण की दृष्टि से थोड़ी-थोड़ी भिन्नता होती है। इसके बारे में विस्तार से फिर कभी चर्चा करेंगे।
आजकल जो नई ग़ज़ल मुकम्मल हो रही है चलते-चलते उसका मतला' और एक शेर देखिए :

@
लोग   जब   सादगी   से   मिलते  हैं,
हम भी फिर ख़ुश-दिली से मिलते हैं।

राम    जाने   सियाह   दिल   लेकर,
लोग   कैसे   किसी   से  मिलते  हैं।
@ ओंकार सिंह विवेक 
(यह ग़ज़ल मेरे शीघ्र प्रकाश्य ग़ज़ल संग्रह "कुछ मीठा कुछ खारा" में प्रकाशित होने वाली है)

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साहित्यिक सरगर्मियां

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