July 25, 2021

गुलों में ताज़गी आए कहाँ से

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
दिनाँक- 24.07.2021

चित्र--गूगल से साभार
©️
चमन   है   रूबरू  पैहम    ख़िज़ाँ  से,
गुलों    में   ताज़गी   आए   कहाँ   से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
कहा  जाए   न   ऐसा  कुछ   ज़ुबाँ  से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 18, 2021

सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से

दोस्तो नमस्कार🙏🏻🙏🏻
यों तो सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है वह सब कुछ
हर आदमी की नज़र से गुज़रता है परंतु एक कवि या 
साहित्यकार दुनिया की हर छोटी-बड़ी चीज़ को एक अलग 
ही नज़रिए से देखता है।इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आप
मेरे द्वारा ग़ज़ल में पिरोए गए  गुलसिताँ, ख़िज़ाँ, आसमाँ,
ज़ुबाँ और माँ आदि शब्दों का आनंद लें--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
यूँ   ही   थोड़ी  गई   वो  गुलसिताँ   से,
लड़ी   है   जंग  फूलों  ने   ख़िज़ाँ    से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
न  ऐसा  लफ़्ज़  इक  निकले  ज़ुबाँ से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 16, 2021

तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर


ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
सभी   फ़ख़्र   करने   लगें  तीरगी  पर,
तो  गुज़रेगी क्या सोचिए  रौशनी पर।

सर-ए-आम ईमान  जब  बिक रहे हों,
तो कैसे भरोसा  करें  हम  किसी पर।

सुनाते   रहे    मंच    से    बस  लतीफ़े,
न आए वो आख़िर तलक शायरी पर।

अलग  दौर  था  वो,अलग था ज़माना,
सभी  नाज़  करते   थे जब दोस्ती पर।

न  रिश्वत  को  पैसे, न कोई सिफ़ारिश,
रखेगा  तुम्हें   कौन  फिर  नौकरी  पर।

किसी ने कभी उसकी पीड़ा न समझी,
सभी  ज़ुल्म  ढाते   रहे  बस  नदी  पर।

बहुत   लोग  थे  यूँ  तो  पूजा-भवन  में,
मगर ध्यान कितनों का था आरती पर?
          ---- ©️  ओंकार सिंह विवेक

July 15, 2021

माननीय अटल जी को समर्पित कुछ दोहे

अटल जी की स्मृति में कहे गए कुछ दोहे
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             ---©️  ओंकार सिंह विवेक
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 नैतिक  मूल्यों  का किया ,सदा मान-सम्मान।
 दिया अटल जी ने नहीं ,ओछा कभी बयान।।
🌷
 विश्व मंच  पर  शान  से , अपना  सीना  तान।
 अटल बिहारी ने  किया, हिंदी  का यशगान।।
🌷
 राजनीति  के  मंच  पर , छोड़ अनोखी  छाप।
 सब के दिल में बस गए,अटल बिहारी आप।।
🌷
 चलकर पथ पर सत्य के,किया जगत में नाम।
 अटल बिहारी आपको,शत-शत बार प्रणाम।।                           ।।
🌷
              ------©️  ओंकार सिंह विवेक

July 12, 2021

राष्ट्रीय कवि गोष्ठी-संस्कार भारती वाराणसी

11/07/2021
हे राष्ट्र तुम्हारा अभिनंदन !
आज संस्कार भारती-वाराणसी (उ.प्र) द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ प्रेरणा चतुर्वेदी के संयोजन में देशभक्तिपरक रचनाओं के साथ ऑनलाइन "राष्ट्रीय कवि गोष्ठी " आयोजित की गई ।
 इस राष्ट्रीय कवि गोष्ठी में उत्तर प्रदेश, बिहार ,नई दिल्ली, मेघालय, हिमाचल प्रदेश तथा मध्य प्रदेश राज्यों के 20 जिलों  से वरिष्ठ  एवं युवा रचनाकारों ने राष्ट्र को समर्पित रचनाओं का  पाठ किया ।
कार्यक्रम में मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) से श्रीमती सुधा गुप्ता,मा. विमलेश अवस्थी कानपुर (उ. प्र), डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव( पटना, बिहार ) ,ओंकार सिंह विवेक  (रामपुर, उ. प्र) ,प्रोफ़ेसर सुधा सिंहा (बिहार) ,डॉ. सपना चंदेल ,डॉ सुनीता जायसवाल (शिमला, हिमाचल प्रदेश ) ,डॉ सुषमा तिवारी (नोएडा, उ.प्र) ,अंजू भारती (नई दिल्ली) डॉ. आलोक सिंह (शिलांग, मेघालय) आदि ने देशभक्तिपरक काव्य पाठ किया।
इसके साथ ही 'राष्ट्रीय कवि गोष्ठी' में उत्तर प्रदेश -वाराणसी से ममता तिवारी, प्रीति जायसवाल, प्रयागराज से डॉ प्रतीक्षा दूबे, जौनपुर से खुशबू उपाध्याय, प्रवीणा दीक्षित झारखंड, मनीष मिश्रा -जहानाबाद ,ऋषि कुमार तिवारी- बिहार ,मीना परिहार- बिहार आदि ने वीर रस से ओत-प्रोत रचनाओं का  पाठ किया ।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि माननीय सनातन दुबे जी ,क्षेत्र प्रमुख (उत्तर प्रदेश) ने कार्यक्रम में अपने आशीर्वचन देते हुए कहा कि-- 'संस्कार भारती' स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने पर 15 अगस्त 2021 से 15 अगस्त 2022 तक पूरे साल  राष्ट्र को समर्पित रचनाओं का संकलन और प्रसारण करेगी ।
इस कार्यक्रम में 'संस्कार भारती'- मानस गंगा  इकाई ,वाराणसी के अध्यक्ष श्री वेद प्रकाश जी भी उपस्थित रहे।

July 11, 2021

शहनाइयाँ अच्छी लगीं


ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
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फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन    फ़ाइलुन

मौसमे - बरसात     की    तैयारियाँ   अच्छी   लगीं,
ख़ुश्क फ़सलों को घुमड़ती  बदलियाँ अच्छी लगीं।

ख़ुश   हुए  बस  दूसरों  की  ख़ामियों  को  देखकर,
कब  भला  उनको किसी की ख़ूबियाँ अच्छी लगीं।

पेट    कोई   दान    के   पकवान    से   भरता   रहा,
और  महनत  की  किसी  को  रोटियाँ अच्छी लगीं।

और  भी  जलने  का  उसमें  हौसला कुछ बढ़ गया,
दीप को इन  आँधियों  की  धमकियाँ  अच्छी लगीं।

हम   पड़ोसी    से   हमेशा    मेल    के    हामी   रहे,
कब  हमें  सरहद  पे  चलती  गोलियाँ अच्छी लगीं।

दुख  हुआ  तो  रुख़सती का हमको बेटी की,मगर-
फिर  भी  घर  में  गूँजती  शहनाइयाँ  अच्छी लगीं।
                                     ---–ओंकार सिंह विवेक
             सर्वाधिकार सुरक्षित

July 6, 2021

मानवीय सरोकार

दोस्तो काफ़ी दिन बाद आपसे फिर मुख़ातिब हूँ अपनी
मानवीय सरोकारों से जुड़ी एक ग़ज़ल लेकर--
 ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️ 
ये  आदमी  ने   यहाँ   कैसा  ज़ुल्म  ढाया  है,
तमाम  मछलियों  को  रेत  पर  ले  आया है।

कुचल  दिया   है   उन्हें  हौसले  के  बूते  पर,
जो  मुश्किलात  ने  जीवन  में  सर उठाया है,

सुना  रहा  है  वो  हमको  फ़क़त  लतीफ़े  ही,
अभी  तलक  भी  कोई  शेर  कब सुनाया है।

करें   न  शुक्र  अदा  क्यों   भला  दरख़्तों का,
इन्हीं   के   साए  ने   तो  धूप  से  बचाया   है।

है  कौन  हमसे अधिक और ख़ुशनसीब भला,
"तुम्हें   ख़ुदा    ने    हमारे    लिए   बनाया   है।

'विवेक' रब  की  इनायत-करम है ये मुझ पर,
जो सर पे आज तलक भी, पिता का साया है।
             ----    ©️   ओंकार सिंह विवेक



July 1, 2021

कच्चा घर नहीं होता

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
  
फ़ाइलुन  मुफ़ाईलुन   फ़ाइलुन   मुफ़ाईलुन
©️ 
गर  हमारी क़िस्मत में कच्चा घर नहीं होता,
तो  हमें भी बारिश  का कोई डर नहीं होता।

चार दिन में हो जाए ज़िंदगी से जो रुख़सत,
ग़म का दौर इतना भी मुख़्तसर नहीं होता।

जाने  टूटकर  कबके  हम  बिखर  गए होते,
ज़िंदगी में  अपनों का  साथ गर नहीं होता।

वो  ही  रंज देते हैं , वो  ही  दिल दुखाते  हैं,
जिनसे चोट खाने  का कोई डर नहीं होता।

क्या  हमें  उजाले  की   नेमतें  मिली  होतीं,
आफ़ताब  जो  अपने काम  पर नहीं होता।

दूर  है  अभी  काफ़ी  इंतेख़ाब  का  मौसम,
रहनुमा  का  बस्ती  से  यूँ गुज़र नहीं होता।
             ----  ©️ ओंकार सिंह विवेक

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नमस्कार मित्रो 🌷🌷🙏🙏 हम जिस मिश्रित सोसाइटी में रहे हैं उसमें सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना की बहुत ज़रूरत है। त्योहार वे चाहे किसी भी ...