December 13, 2021

घर से निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर

मित्रो सादर प्रणाम🙏🙏
समाज में या हमारे आस-पास जो कुछ घटित हो रहा होता है
यों तो उसे सभी देखते हैं परंतु एक साहित्यकार हर घटना या
दृश्य को एक ख़ास नज़रिए से देखता है।यही ख़ास नज़रिया
उसकी सृजनशीलता को उड़ान देता है।एक रचनाकार की
नज़र में हर आम बात या घटना भी कुछ ख़ास होती है।अपने
आस-पास से प्रेरणा लेकर मन में मंथन हुआ और फिर एक 
नई ग़ज़ल हो गई जो आपकी अदालत में पेश है--
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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घर  से  निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर,
मानेंगे  पंछियों  की  वे  अब  उड़ान  लेकर।

वहशत  अगर  नहीं  है  तो बोलिए ये क्या है,
ख़ुश  हो  रहा  है इंसां, इंसां की जान लेकर।

होगा  नहीं   यक़ीनन  वो  आपके  मुताबिक़,
क्या  कीजिएगा  हज़रत  मेरा  बयान  लेकर।
©️
हरगिज़ न साथ जाएगा ,दोस्त वक़्ते-आख़िर,
जिस धन का जी रहे हो मन  में गुमान लेकर।

मजबूर  हो  गया  है  फुटपाथ  पर  बसर को,
क़र्ज़े  ने  जान  उसकी  छोड़ी  मकान  लेकर।

दफ़्तर में  काम  का नित रहता है बोझ इतना,
घर लौटते  हैं  अक्सर  ज़ेहनी  थकान  लेकर।
       --- ©️ओंकार सिंह विवेक


10 comments:

  1. हार्दिक बधाई आदरणीय सर।
    सराहनीय सृजन।
    सादर

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  2. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (15-12-2021) को चर्चा मंच        "रजनी उजलो रंग भरे"    (चर्चा अंक-4279)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  3. गहन भावों से सुसज्जित ग़ज़ल ....

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  4. Replies
    1. हार्दिक आभार भानरे जी

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  5. गिरे भावों वाला सारगर्भित सृजन ।
    बहुत सुंदर।

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