January 31, 2022

संविधान का मान

कुंडलिया : 
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         ---ओंकार सिंह विवेक
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जागे  सबकी  चेतना,रखें  सभी यह ध्यान,
संविधान का हो नहीं,किंचित भी अपमान।
किंचित भी अपमान,करें सब इसकी पूजा,
इसके  जैसा   श्रेष्ठ, नहीं  दुनिया  में दूजा।
रखना  हमें   सदैव,राष्ट्र के  हित को आगे,
सबके  मन  में  काश!भावना  ऐसी जागे।
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                      --ओंकार सिंह विवेक
चित्र---गूगल से साभार

January 28, 2022

जिसकी बनती हो बने----

कुंडलिया---ओंकार सिंह विवेक
         सर्वाधिकार सुरक्षित
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जिसकी  बनती  हो  बने, सूबे  में  सरकार,
हर  दल   में  हैं  एक-दो, उनके  रिश्तेदार।
उनके   रिश्तेदार, रोब   है   सचमुच  भारी,
सब   साधन  हैं  पास,नहीं  कोई  लाचारी।
अब उनकी  दिन-रात,सभी से गाढ़ी छनती,
बन जाए सरकार,यहाँ  हो  जिसकी बनती।
🌷       --ओंकार सिंह विवेक
          सर्वाधिकार सुरक्षित

January 26, 2022

लग रहा है डर हमें उनकी इनायत देखकर

ग़ज़ल--ग़ज़ल-ग़ज़ल   बस यही एक जुनून है मुझे ।अपने
भावों को काव्य रूप में अभिव्यक्त करने के लिए मेरी पसंदीदा विधा यही है।यद्यपि रस परिवर्तन के लिए मैं अक्सर दोहे,मुक्तक,नवगीत और कुंडलिया आदि भी कह लेता हूँ पर सहज भावाभिव्यक्ति मैं ग़ज़ल विधा में ही कर पाता हूँ।आपका निरंतर प्रोत्साहन भी मिल रहा है।मैं इसके लिए सबका ह्रदय से आभारी हूँ।आप मेरे ब्लॉग पर आते हैं,चर्चा करते हैं और बहुमूल्य प्रतिक्रिया भी देते हैं जो मेरी सृजनात्मकता को संजीवनी प्रदान करता है।आपका प्यार यूँ ही मिलता रहे।
आज फिर से एक नई ग़ज़ल आप सब के बहुमूल्य प्रतिक्रियाओं हेतु ----
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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यक-ब-यक  अपने  लिए इतनी मुहब्बत देखकर,
लग  रहा  है  डर  हमें  उनकी  इनायत  देखकर।

एक-दो  की  बात  हो  तो  हम  बताएँ  भी  तुम्हें,
जाने  कितनो  के  डिगे  ईमान   दौलत  देखकर।

हुक्मरां  का  क्या अमल  है और है कैसा निज़ाम,
ख़ुद समझ लें आम जन की आप हालत देखकर।
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आप चाहे  कुछ भी कहिए ,हो नहीं सकता कभी,
जो न खाए  ख़ौफ़  झूठा,सच की ताक़त देखकर।

दरमियां  काँटों  के भी  खिलना  नहीं  जो छोड़ते,
सीख तो मिलती है उन फूलों की हिम्मत देखकर।

खेत भी होरी  का  गिरवी,काम  भी  मिलता नहीं,
आ  रहा मुँह को कलेजा  उस पे आफ़त देखकर।
  
धर्म   का   नश्शा   सुँघाकर   माँगते  हैं  वोट  वो,
कैसे  दिल तड़पे  न  ये  सस्ती सियासत देखकर।
             ---©️ ओंकार सिंह विवक



 

January 23, 2022

फ़िक्र फूली-फली नहीं होती----तो

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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फ़िक्र   फूली-फली    नहीं  होती,
तो    हसीं   शायरी   नहीं  होती।

ख़ास लोगों से ही है दिल मिलता,
सबसे   तो   दोस्ती   नहीं  होती।

हौसला   हो   अगर   बुलंदी  पर,
कोई  मुश्किल  बड़ी  नहीं  होती।
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तर्क   मज़बूत   उसके   हैं  इतने,   
हमसे कुछ  काट  ही  नहीं  होती।

चंद  लोगों   के  साफ़   मन  होते,
तो   यूँ   बस्ती  जली  नहीं  होती।

सब जतन  कर लिए,मगर उनकी,
दूर     नाराज़गी     नहीं     होती।

हद तो  यह है कि बात अब उनसे,
ख़्वाब तक  में  कभी  नहीं  होती।
      ---©️ओंकार सिंह विवेक

January 22, 2022

झूठ पर झूठ वो बोलता रह गया

बार-बार चिंतन को विवश करती और ह्रदय को झकझोरने
वाली कड़वी सच्चाइयां सृजन का आधार बनती ही हैं।और फिर बने भीं क्यों नहीं,यह भाव ही तो अहसास कराता है कि हमारे अंदर की संवेदनशीलता जीवित है।
तो लीजिए साथियो ऐसे ही कुछ भावों के सुमन  पिरोकर फिर ग़ज़ल की माला में आपके सम्मुख रख रहा हूँ प्रतिक्रिया की उम्मीद के साथ🙏🙏

ग़ज़ल--©️ओंकार सिंह विवेक

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झूठ  पर   झूठ  वो   बोलता  रह  गया,
देखकर  मैं   ये   हैरान-सा   रह   गया।  
   
अर्ज़  हाकिम  ने लेकिन  सुनी  ही नहीं,
एक  मज़लूम   हक़  माँगता  रह  गया।
      
जीते  जी  उसके, बेटों  ने  बाँटा  मकां,
बाप अफ़सोस करता हुआ  रह   गया।
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जाने  वाले  ने  मुड़कर  न  देखा  ज़रा,
दुख  हमें  बस इसी बात का  रह गया।

नाम  से  उनके चिट्ठी  तो  इरसाल  की,
पर लिफ़ाफ़े  पे  लिखना पता रह गया।

हाल  यूँ  तो  कहा  उनसे दिल  का बहुत,
क्या करें फिर भी कुछ अनकहा रह गया।
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वो   हिक़ारत   दिखाता   रहा, और  मैं,
"शब्द  ही  प्यार  के  बोलता  रह  गया"

देखकर  हाथ  में  उनके  आरी 'विवेक',
डर  के  मारे  शजर  काँपता  रह गया।
            --- ©️ओंकार सिंह विवेक

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January 21, 2022

चुनावी मौसम : एक नवगीत


चित्र-गूगल से साभार
आज एक नवगीत चुनावी मौसम के नाम
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    --©️ओंकार सिंह विवेक

राजनीति के कुशल मछेरे,
फेंक रहे हैं जाल।

जिस घर में थी रखी बिछाकर,
वर्षों अपनी खाट।
उस घर से अब नेता जी का,
मन हो गया उचाट।
देखो यह चुनाव का मौसम,
क्या-क्या करे कमाल।                   

घूम रहे हैं गली-गली में,
करते वे आखेट।
लेकिन सबसे कहते सुन लो,
देंगे हम भरपेट।
काश!समझ ले भोली जनता,
उनकी गहरी चाल।

कुछ लोगों के मन में कितना,
भरा हुआ है खोट।
धर्म-जाति का नशा सुँघाकर,     
माँग रहे हैं वोट।
ऊँचा कैसे रहे बताओ,
लोकतंत्र का भाल।

नैतिक मूल्यों, आदर्शों को,
कौन पूछता आज,
जोड़-तोड़ वालों के सिर ही,
सजता देखा ताज।
जाने कब अच्छे दिन आएँ,
कब सुधरे यह हाल।
    --- ©️ ओंकार सिंह विवेक

चित्र : गूगल से साभार

January 16, 2022

चुनावी मौसम पर कुंडलिया

कुंडलिया : चुनावी मौसम
           --ओंकार सिंह विवेक
खाया  जिस  घर  रात-दिन,नेता जी ने  माल,
नहीं  भा  रही  अब  वहाँ, उनको  रोटी-दाल।
उनको  रोटी-दाल , बही   नव   चिंतन  धारा,
छोड़   पुराने   मित्र , तलाशा   और   सहारा।
कहते  सत्य  विवेक,नया  फिर  ठौर  बनाया,
भूले  उसको  आज ,जहाँ  वर्षों  तक खाया।
          ---ओंकार सिंह विवेक
          (सर्वाधिकार सुरक्षित)
चित्र : गूगल से साभार
चित्र : गूगल से साभार

January 13, 2022

लोहड़ी व मकर संक्रांति

💥दोहे:मकर संक्रांति पर💥
                  -–-ओंकार सिंह विवेक
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  सूरज  दादा  चल   दिए ,अब  उत्तर  की  ओर,
  शनैः-शनैः  कम  हो रहा,शीत  लहर  का ज़ोर।
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  दिखलाकर सबको यहाँ, प्रतिदिन नए  कमाल,
  सर्दी   रानी   जा   रहीं  ,  ओढ़े  अपनी  शाल।
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 शुद्ध  भाव  से  कीजिए , भजन-साधना-ध्यान,
 पर्व   मकर   संक्रांति  का , देता  है  यह  ज्ञान।
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 समरसता  है  बाँटता ,  खिचड़ी  का  यह  पर्व,
 करें न क्यों संक्रांति पर, फिर  हम  इतना गर्व।
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  जीवन  में   उत्साह   का , हो  सबके    संचार,
  कहता है   संक्रांति  का , यह  पावन  त्योहार।
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                                ---–ओंकार सिंह विवेक
                                       सर्वाधिकार सुरक्षित
  
  

January 12, 2022

हाड़ कँपाती सर्दी आई है

वृक्षों के संरक्षण को लेकर

           कुंडलिया 
        ---ओंकार सिंह विवेक
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देते   हैं  सबको  यहाँ,प्राणवायु   का   दान,

फिर भी वृक्षों की मनुज,लेता है नित जान।

लेता है नित जान, गई  मति  उसकी  मारी,

जो वृक्षों पर आज,चलाता पल-पल आरी।

कहता सत्य विवेक,वृक्ष हैं कब कुछ  लेते,

वे तो  छाया-वायु,,फूल-फल  सबको  देते। 
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        ---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

January 8, 2022

बड़ी दिलकश तुम्हारी शायरी है

ग़ज़ल--  ©️ओंकार सिंह विवेक
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यूँ   लगता   है,  गुलों   की  ताज़गी  है,
बड़ी    दिलकश   तुम्हारी   शायरी   है।

कमी   कुछ  आपसी   विश्वास   की  है, 
अगर  बुनियाद  रिश्तों   की   हिली  है।

न   जाने     ऊँट   बैठे    कौन   करवट,
दिये   की   फिर   हवाओं   से  ठनी  है।
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ज़ुबां  से   फिर  गया  है  वो   भी  देखो,
जिसे   समझा,   उसूलों   का   धनी  है।

किए    हैं    तीरगी    से    हाथ   दो-दो,
मिली   यूँ   ही    नहीं   ये    रौशनी   है।

सो  उसकी   फ़िक्र तो  होगी ही   आला,
किताबों   से    जो   गहरी    दोस्ती   है।

सदा  है   मौत   के  साये   में,  फिर  भी,
सँवरती   और     सजती     ज़िंदगी   है।
       ----©️ ओंकार सिंह विवेक

January 6, 2022

कुंडलिया : सर्दी के नाम

कुंडलिया 
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        ----ओंकार सिंह विवेक
सर्दी  से   यह  ज़िंदगी , जंग   रही  है  हार,
हे भगवन! अब  धूप का,खोलो  थोड़ा द्वार।
खोलो   थोड़ा   द्वार,  ठिठुरते  हैं   नर-नारी,
जाने  कैसी  ठंड , जमी  हैं   नदियाँ  सारी।
बैठे  हैं  सब  लोग ,पहन   कर   ऊनी  वर्दी,
फिर भी रही न छोड़,बदन को  निष्ठुर सर्दी।
           ---ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

January 1, 2022

मिला है ख़ुश्क दरिया देखने को

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह 'विवेक'
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मिला  है  ख़ुश्क  दरिया  देखने को,
मिलेगा  और  क्या-क्या देखने को।

किसी  मुद्दे  पे  सब  ही एकमत हों,
कहाँ  मिलता  है  ऐसा  देखने  को।

तो   गुजरेंगे  अजूबे  भी   नज़र  से,
अगर निकलोगे  दुनिया  देखने को।
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किसी  के  पास  है  अंबार  धन का,
कोई  तरसा  है   पैसा   देखने  को।

सुना  आँधी  को  पेड़ों  से  ये कहते,
तरस   जाओगे   पत्ता   देखने  को।

बना था ज़ेहन में कुछ अक्स वन का,
मिला  कुछ  और  नक़्शा देखने को।

नज़र   दहलीज़   से   कैसे  हटा  लूँ,
कहा   है   उसने  रस्ता   देखने  को।
    --- ©️ ओंकार सिंह 'विवेक'

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बात सोहार्द और सद्भावना की

नमस्कार मित्रो 🌷🌷🙏🙏 हम जिस मिश्रित सोसाइटी में रहे हैं उसमें सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना की बहुत ज़रूरत है। त्योहार वे चाहे किसी भी ...