January 6, 2022

कुंडलिया : सर्दी के नाम

कुंडलिया 
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        ----ओंकार सिंह विवेक
सर्दी  से   यह  ज़िंदगी , जंग   रही  है  हार,
हे भगवन! अब  धूप का,खोलो  थोड़ा द्वार।
खोलो   थोड़ा   द्वार,  ठिठुरते  हैं   नर-नारी,
जाने  कैसी  ठंड , जमी  हैं   नदियाँ  सारी।
बैठे  हैं  सब  लोग ,पहन   कर   ऊनी  वर्दी,
फिर भी रही न छोड़,बदन को  निष्ठुर सर्दी।
           ---ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

January 1, 2022

मिला है ख़ुश्क दरिया देखने को

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह 'विवेक'
©️
मिला  है  ख़ुश्क  दरिया  देखने को,
मिलेगा  और  क्या-क्या देखने को।

किसी  मुद्दे  पे  सब  ही एकमत हों,
कहाँ  मिलता  है  ऐसा  देखने  को।

तो   गुजरेंगे  अजूबे  भी   नज़र  से,
अगर निकलोगे  दुनिया  देखने को।
©️
किसी  के  पास  है  अंबार  धन का,
कोई  तरसा  है   पैसा   देखने  को।

सुना  आँधी  को  पेड़ों  से  ये कहते,
तरस   जाओगे   पत्ता   देखने  को।

बना था ज़ेहन में कुछ अक्स वन का,
मिला  कुछ  और  नक़्शा देखने को।

नज़र   दहलीज़   से   कैसे  हटा  लूँ,
कहा   है   उसने  रस्ता   देखने  को।
    --- ©️ ओंकार सिंह 'विवेक'

December 31, 2021

नए साल की पूर्व संध्या पर काव्य गोष्ठी

आज वर्ष 2021 के अंतिम दिन अर्थात वर्ष 2022 की पूर्व संध्या पर  उत्तर प्रदेश उद्योग व्यापार प्रतिनिधि मंडल की रामपुर इकाई के ज़िला अध्यक्ष श्री अनिल अग्रवाल जी के आवास पर रंगारंग काव्यगोष्ठी का आयोजन हुआ।गोष्ठी में व्यापारी बंधुओं तथा अन्य गणमान्य श्रोताओं ने कविगण की सामयिक रचनाओं का रसास्वादन करते हुए उनका भरपूर उत्साहवर्धन किया।कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश शासन के दर्जा प्राप्त राज्य मंत्री श्री सूर्यप्रकाश पाल जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।इस अवसर पर मैंने अपने ग़ज़ल संग्रह "दर्द का अहसास" की प्रति भी श्री सूर्यप्रकाश पाल जी को भेंट की।
कार्यक्रम का संचालन रामपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवकुमार चंदन जी द्वारा किया गया।कार्यक्रम समापन पर मेज़बान श्री अनिल अग्रवाल जी द्वारा कवियों को स्मृति चिन्ह देकर सभी का आभार व्यक्त किया गया।

मित्रों आप सब को नूतन वर्ष की शुभकामनाओं के साथ इस वर्ष की ब्लॉग पर अंतिम पोस्ट अपने पसंदीदा शायर जनाब ओमप्रकाश नदीम साहब के इस मुक्तक के साथ संपन्न करता हूँ--
न छाये ग़ुबार आइने पर किसी के,
फ़ज़ा में कहीं धूल उड़ने न पाए।
मुहब्बत के दीपक की लौ तेज़ कर दे,
नया साल ऐसी हवा ले के आए।
     --ओमप्रकाश नदीम
प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक
अवसर के कुछ छाया चित्र

नया साल : एक कामना

नया साल- एक कामना
       ---ओंकार सिंह विवेक
गए   साल  जैसा   नहीं   हाल  होगा,
तवक़्क़ो  है  अच्छा  नया साल होगा।

न  होगा  फ़क़त  फाइलों-काग़ज़ों  में,
हक़ीक़त में भी मुल्क ख़ुशहाल होगा।

बढ़ेगी  न  केवल  अमीरों  की  दौलत,
ग़रीबों  के हिस्से भी कुछ माल होगा।

रहेगा   सजा    आशियां  रौशनी   का,
घरौंदा   अँधेरे    का   पामाल   होगा।

जगत  में  सभी  और  देशों  से ऊँचा,
हमारे  वतन  का  ही बस भाल होगा।
           --ओंकार सिंह विवेक
            सर्वाधिकार सुरक्षित
चित्र-गूगल से साभार

चित्र--गूगल से साभार


December 30, 2021

सर्दी के नाम

अक्सर लोग कहते हैं कि आदमी को चैन कहाँ है? गर्मी में बहुत गर्मी की ,बरसात में बहुत बारिश की और सर्दी में  कड़क ठंड की शिकायत करता ही रहता है।अरे भाई! सर्दी में अगर सर्दी और गर्मी में अगर गर्मी न होगी तो फिर क्या होगा।बात ठीक भी लगती है कि भिन्न-भिन्न ऋतुओं के अपने भिन्न-भिन्न प्रभाव तो होंगे ही,इसमें शिकायत जैसी क्या बात है।लेकिन इस सत्य और दार्शनिकता से थोड़ा हटकर सोचने की भी ज़रूरत है।आदमी को बातचीत,मनोरंजन ,मस्ती और चुहलबाज़ी का भी तो कोई बहाना चाहिए कि नहीं।जीवन को ऊर्जावान और सक्रिय बनाए रखने के लिए ये सब भी तो ज़रूरी है।सोचिए चिलचिलाती धूप में
जब कोई पसीने से तरबतर होकर अपने दोस्तों से इस बात की शिकायत करता है कि भाई आज तो हद ही हो गई सूरज तो जैसे
भट्टी में झोंकने पर ही आमादा है तो बाक़ी लोग भी उसके डायलॉग से सहमत होते हैं,कसमसाते हैं,मुस्कुराते हैं और फिर बात से बात निकलकर परेशानी के आलम में भी हँसने-मुस्कुराने का बहाना खोज लेते हैं।ऐसा करना माहौल को हल्का-फुल्का रखने के लिए ज़रूरी भी होता है।यदि गर्मी की शिकायत करने वाले साथी को दार्शनिक अंदाज़ में यह कहते हुए टोक दिया जाए कि भाई तुम यह क्या शिकायत लेकर बैठ गए गर्मी में तो ऐसा ही होता है तो संवाद ही टूट जाएगा और मौज-मस्ती तथा मनोरंजन का जो मौक़ा बना है वह भी हाथ से जाता रहेगा।
अतः हर चीज़ को धीर-गंभीर होकर दार्शनिकता के चश्मे से न देखा जाए और शिकवे-शिकायतों और चुहलबाज़ी तथा गप्पबाज़ी
का भी कभी-कभी आनंद लिया जाए।
 मैं भी के आज के मौसम से शिकायत करते हुए अपने इस दोहे के साथ वाणी को विराम देता हूँ, नमस्कार🙏🙏

चित्र--गूगल से साभार



December 25, 2021

अटल जी की स्मृति में

अटल जी की स्मृति में कहे गए कुछ दोहे
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             ---©️  ओंकार सिंह विवेक
🌷
 नैतिक  मूल्यों  का किया ,सदा मान-सम्मान।
 दिया अटल जी ने नहीं ,ओछा कभी बयान।।
🌷
 विश्व मंच  पर  शान  से , अपना  सीना  तान।
 अटल बिहारी ने  किया, हिंदी  का यशगान।।
🌷
 राजनीति  के  मंच  पर , छोड़ अनोखी  छाप।
 सब के दिल में बस गए,अटल बिहारी आप।।
🌷
 चलकर पथ पर सत्य के,किया जगत में नाम।
 अटल बिहारी आपको,शत-शत बार प्रणाम।।                           ।।
🌷
              ------©️  ओंकार सिंह विवेक
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार

December 21, 2021

अब एक भी दरख़्त पे पत्ता नहीं रहा

इस ग़ज़ल पर लोकप्रिय फेसबुक साहित्यिक पटल "ग़ज़लों की दुनिया" में शताधिक साहित्य मनीषियों के उत्साहजनक कमेंट्स
प्राप्त हुए सो आप सब के साथ ग़ज़ल साझा कर रहा हूँ🙏🙏
प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ

ग़ज़ल- ©️ ओंकार सिंह विवेक
                 कैसे    कहें    क़ुसूर    हवा    का    नहीं   रहा,
                 अब   एक  भी  दरख़्त   पे   पत्ता   नहीं   रहा।
                 ©️
                 इक  दूसरे  पे   जान   छिड़कते  थे   हर  घड़ी ,
                 अब  भाइयों   के  बीच  में   रिश्ता   नहीं रहा।
                 
                 लेना    तो   चाहता   था   वो  बच्चे  के   वास्ते,
                 लेकिन  बजट  में   उसके  खिलौना  नहीं  रहा।
                 ©️
                 बाक़ी  तो जस  का  तस  ही  रहा नाश्ते में सब,
                 बस   अब   हमारी   चाय   में  मीठा  नहीं रहा।
                  
                 झूठे   हैं   ऐसे  लोग  जो  कहते   हैं   रात-दिन,
                 अब   झूठ   के   बिना   तो  गुज़ारा  नहीं  रहा।
                   ©️
                 घर   की   ज़रूरतों   ने   बड़ा   कर  दिया उसे,
                 बचपन के  दौर   में  भी वो  बच्चा   नहीं  रहा।

                 हम बा-वफ़ा हैं आज भी कल की तरह 'विवेक',
                 ये   और    बात   उनको   भरोसा   नहीं   रहा।
                                      ©️ओंकार सिंह विवेक

December 19, 2021

एक नवगीत सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के नाम

आज एक नवगीत सामाजिक विरोधाभासों
 और विसंगतियों के नाम
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 ---  ©️ओंकार सिंह विवेक
सच की फौजों पर अब,  
झूठों का दल भारी है।              

सड़क  गाँव  तक  आकर,
नागिन-सी फुँफकार भरे।
पगडंडी बेचारी,
थर-थर  काँपे और डरे।
नवयुग में  विकास  की,
यह अच्छी तैयारी है।

जनता को तो देता,
केवल वादों की गोली।
और हरे नोटों से,
भरता नित अपनी झोली।
जनसेवक है या फिर,
वह कोई  व्यापारी है?

रहा तगादे* वाली,
चाबुक से वह डरा-डरा।
ख़ुद भूखा भी सोया,
पर क़िस्तों का पेट भरा।
होरी पर बनिए की,
फिर भी शेष उधारी है।
  -----©️ओंकार सिंह विवेक

*मूल शुद्ध शब्द तक़ाज़ा है 
परंतु हिंदी में तगादा भी मान्य है
चित्र--गूगल से साभार
चित्र-गूगल से साभार




December 13, 2021

घर से निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर

मित्रो सादर प्रणाम🙏🙏
समाज में या हमारे आस-पास जो कुछ घटित हो रहा होता है
यों तो उसे सभी देखते हैं परंतु एक साहित्यकार हर घटना या
दृश्य को एक ख़ास नज़रिए से देखता है।यही ख़ास नज़रिया
उसकी सृजनशीलता को उड़ान देता है।एक रचनाकार की
नज़र में हर आम बात या घटना भी कुछ ख़ास होती है।अपने
आस-पास से प्रेरणा लेकर मन में मंथन हुआ और फिर एक 
नई ग़ज़ल हो गई जो आपकी अदालत में पेश है--
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
2     2  1  2  1 2 2   2     2  1  2  1 2 2
©️
घर  से  निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर,
मानेंगे  पंछियों  की  वे  अब  उड़ान  लेकर।

वहशत  अगर  नहीं  है  तो बोलिए ये क्या है,
ख़ुश  हो  रहा  है इंसां, इंसां की जान लेकर।

होगा  नहीं   यक़ीनन  वो  आपके  मुताबिक़,
क्या  कीजिएगा  हज़रत  मेरा  बयान  लेकर।
©️
हरगिज़ न साथ जाएगा ,दोस्त वक़्ते-आख़िर,
जिस धन का जी रहे हो मन  में गुमान लेकर।

मजबूर  हो  गया  है  फुटपाथ  पर  बसर को,
क़र्ज़े  ने  जान  उसकी  छोड़ी  मकान  लेकर।

दफ़्तर में  काम  का नित रहता है बोझ इतना,
घर लौटते  हैं  अक्सर  ज़ेहनी  थकान  लेकर।
       --- ©️ओंकार सिंह विवेक


December 11, 2021

सर्दी का नवगीत : अलसाई-सी धूप

आज एक नवगीत : सर्दी के नाम
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      --  ©️ओंकार सिंह विवेक
छत पर आकर बैठ गई है,
अलसाई-सी धूप।

सर्द हवा खिड़की से आकर,
मचा रही है शोर।
काँप रहा थर-थर कुहरे के,
डर से प्रतिपल भोर।
दाँत बजाते घूम रहे हैं,
काका रामसरूप।

अम्मा देखो कितनी जल्दी,
आज गई हैं जाग।
चौके में बैठी सरसों का,
घोट रही हैं साग।
दादी छत पर  ले आई हैं,
नाज फटकने सूप।

आए थे पानी पीने को,
चलकर मीलों-मील।
देखा तो जाड़े के मारे,
जमी हुई थी झील।
करते भी क्या,लौट पड़े फिर,
प्यासे वन के भूप।
    ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार

December 9, 2021

दोहे सर्दी के

     दोहे सर्दी के
******///***********
         --ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
चल  उठ  देनी  है  हमें, अब सर्दी  को  मात,
बहिन  रज़ाई  कह रही ,कंबल से यह  बात।

थोड़ा-सा   साहस  जुटा , किए  एक-दो  वार,
कुहरा  लेकिन  अंत  में , गया  सूर्य  से  हार।

सर्द   हवा   ने   दे  दिया , जाड़े   का  पैग़ाम,
मिल जाएगा कुछ  दिनों ,कूलर को  आराम।

हाड़  कँपाती   ठंड   में , खींचेंगे   सब  कान,
गीजर अपने स्वास्थ्य का,रखना थोड़ा ध्यान।

मूँगफली   कहने  लगी , सुन  ले  ए  बादाम,
मैं तुझ से कम दाम में,करती तुझ-सा काम।

गर्म  सूट में  सेठ का , जीना  हुआ   मुहाल,
नौकर  ने बस  शर्ट  में,जाड़े  दिए  निकाल।

मचा  दिया  कैसा  यहाँ , कुहरे  ने  कुहराम,
दिन निकले ही लग रहा,घिर आई  हो शाम।
 --ओंकार सिंह विवेक(सर्वाधिकार सुरक्षित)

चित्र--गूगल से साभार
 चित्र--गूगल से साभार

December 7, 2021

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव---एक विचार
साथियो यथायोग्य अभिवादन🙏🙏

आज अपने अनुभव के आधार पर एक संवेदनशील विषय पर कुछ लिखने का मन हुआ सो  लिख रहा हूँ। निश्चित तौर पर बहुत
से साथी मुझसे सहमत नहीं होंगे।मैं उनकी असहमति का सम्मान
करता हूँ क्योंकि किसी विषय में कुछ लोगों की  असहमति ही
एक नए विचार को जन्म देकर विमर्श का मार्ग प्रशस्त करती है।
     -- जैसे-जैसे आदमी ज़िंदगी में तमाम मुश्किलों से दो-चार होकर आगे बढ़ता है उसके अनुभव और आत्मविश्वास का भंडार बढ़ता जाता है। अनुभव मुश्किलों से टकराने और बिना रुके आगे बढ़ने में आदमी का मददगार साबित होता है।निःसंदेह वरिष्ठ व्यक्तियों के पास नए लोगों के मुक़ाबले अधिक अनुभव होता है। कनिष्ठ पीढ़ी का यह दायित्व बनता है कि वे वरिष्ठ लोगों का सम्मान करें और उनके अनुभव का लाभ उठाएँ।
यही अपेक्षा वरिष्ठ लोगों से भी की जाती है कि यदि किसी कनिष्ठ
के पास कोई नई जानकारी या ज्ञान है तो वे भी बिना उम्र को बीच मे लाए उसे सीखकर लाभ उठाएँ।
जहाँ तक ज्ञान का प्रश्न है यह अपेक्षाकृत भिन्न क्षेत्र है।निःसंदेह वरिष्ठ साथियो के पास  जीवन के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को लेकर नई पीढ़ी की अपेक्षा कई गुना अधिक अनुभव होता है।
परंतु किसी क्षेत्र में ज्ञान का जहाँ तक प्रश्न है वह एक कनिष्ठ व्यक्ति के पास भी वरिष्ठ जनों से अधिक हो सकता है।इस सत्य को स्वीकारने में कोई अहम आड़े नहीं आना चाहिए।
कई अवसरों पर यह देखने में आता है कि जब  कोई कनिष्ठ किसी  विशेष में अपने  विशेष ज्ञान के आधार पर किसी वरिष्ठ जन की  तथ्यात्मक त्रुटि की ओर विनम्रता से इंगित करता है तो वे इसे अन्यथा लेते हैं जो शायद ठीक नहीं है।
 कई वरिष्ठ जनों को ऐसे भी कहते सुना गया है की यह चार दिन का बच्चा हमारी ग़लती निकालने चला है या हमें सिखाने चला है। नए लोगों को तो बड़ों से बात करने की जैसे तमीज़ ही नहीं रह गई है---वगैरहा वगैरहा---।
वरिष्ठ जनों के मुँह से ऐसी बातें तब तो ठीक हैं जब किसी कनिष्ठ द्वारा कोई अशोभनीय या गरिमा के प्रतिकूल टिप्पणी की गई हो या फिर उसने अपने विशिष्ट ज्ञानार्जन के आधार पर  जो टिप्पणी की है वह तथ्यों के आधार पर ठीक न हो।यदि कनिष्ठ द्वारा कोई तथ्यपरक बात विनम्रता से कही गई हो तो वरिष्ठ जनों का भी यह दायित्व बनता है कि उसे अपने अहम से न जोड़ते हुए सह्रदयता से लें।
सीखना और सिखाना एक वृहद प्रक्रिया है जो जीवन भर चलती है।ज़रूरत इस बात की है हम सब एक-दूसरे का मान रखते हुए कुछ न कुछ एक-दूसरे से सीखते रहें।
वरिष्ठता,ज्ञान और अनुभव निःसंदेह एक दूसरे से जुड़े हैं।यह आपस में  पूरक तो हो सकते हैं परंतु जहाँ तक  ज्ञान और अनुभव का प्रश्न है ये एक दूसरे के समानार्थी कदापि नहीं हैं ,इस बात का ध्यान वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों को ही रखना होगा।
                ---ओंकार सिंह विवेक



December 4, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा

दोस्तो हाज़िर है एक ताज़ा ग़ज़ल--

फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

©️
माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।    
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

December 1, 2021

आज कुछ दोहे यों भी

साथियो नमस्कार🙏🙏
आज काफ़ी दिन बाद किसी आवश्यक कार्य से  रामपुर-उ0प्र0 से गुरुग्राम-हरियाणा जाते समय कुछ दोहे सृजित हुए जो आपके साथ साझा करने का मन हुआ--
🌷कुछ दोहे🌷
                    ----©️  ओंकार सिंह विवेक
     🌹
      मँहगाई   को   देख  कर , जेबें  हुईं  उदास,
      पर्वों का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।
     🌹
     कोई सुनता  ही  नहीं , उसकी  यहाँ  पुकार,
     चीख-चीख कर रात-दिन, मौन गया है हार।
    🌹
     हाँ यह सच है इन दिनों ,बिगड़ी  है हर बात,
     लेकिन बहुरेंगे  कभी , अपने भी  दिन-रात।
    🌹
     मिली  कँगूरों को  सखे,तभी बड़ी पहिचान,
     दिया नीव  की ईंट ने,जब अपना बलिदान।
    🌹
               ---- ©️ ओंकार सिंह विवेक

November 27, 2021

धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई

नमस्कार साथियो🙏🙏
कुछ भी कहिए ग़ज़ल विधा के साथ एक आसानी तो है कि
इसका हर शेर पहले से जुदा होता है और अलग-अलग शेरों
में अलग-अलग कथ्य पिरोए जा सकते हैं।गीत में ऐसा नहीं होता
उसके भावों में विषय की तारतम्यता का महत्व होता है।
अभी मेरे साथ ऐसा ही हुआ ।आजकल अख़बार और टी वी पर
राजनीति और चुनाव को लेकर ख़ूब ख़बरें पढ़ और देख रहें हैं
तो उसी संदर्भ में ग़ज़ल का एक मतला हो गया और फिर उसमें
कई और अलग मिज़ाज के शेर भी हो गए जो आपकी अदालत
में हाज़िर हैं---

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
सूचना  क्या  इलक्शन  की  जारी हुई,
धुर  विरोधी  दलों   में  भी  यारी  हुई।

दीन दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे,
घर  से  निकले तो कुछ जानकारी हुई।

आज  निर्धन  हुआ  और  निर्धन  यहाँ,
जेब   धनवान   की   और   भारी  हुई।
 
मुझपे  होगा  भी  कैसे बला  का असर,
माँ   ने   मेरी   नज़र   है   उतारी   हुई।

खेद  इसका   है   गतिरोध   टूटा  नहीं,
बात    उनसे    निरंतर    हमारी    हुई।
             ---   ओंकार सिंह विवेक

                (Copy right)




November 25, 2021

एक अनूठा प्रयोग : टैगोर काव्य गोष्ठी

आज राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला ,रामपुर में  प्रसिद्ध सर्राफ,समाजसेवी तथा साहित्यकार  टैगोर  स्कूल के  प्रबंधक श्री रवि प्रकाश जी द्वारा "टैगोर काव्य गोष्ठी" का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम में रामपुर की कवयित्री श्रीमती अनमोल रागिनी गर्ग को उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचानते हुए विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया।कार्यक्रम में श्रीमती अनमोल रागिनी जी के अतिरिक्त कविवर सर्व श्री जितेंद्र कमल आनंद ,रामकिशोर वर्मा ,ओंकार सिंह विवेक ,प्रदीप राजपूत ,राजीव कुमार शर्मा ,शिव कुमार चंदन ,सुरेंद्र अश्क रामपुरी ,सुरेश अधीर ,डॉ अब्दुल रऊफ आदि की उल्लेखनीय काव्य प्रस्तुतियाँ एवं संबोधन रहा।
कार्यक्रम के आयोजन का दायित्व श्री रवि प्रकाश जी के संस्कारवान सुपुत्र डेंटल सर्जन डॉ. रजत प्रकाश तथा उनकी पत्नी डेंटल सर्जन डॉ. हर्षिता पूठिया द्वारा बहुत ही उत्साह और समर्पण-भाव से सँभाला गया।श्रोताओं ने काव्य पाठ का भरपूर आनंद लिया। 
अंत में श्री रवि प्रकाश जी एवं  विनम्र स्वभाव की धनी उनकी धर्मपत्नी  द्वारा सभी का आभार प्रकट करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।
इस अवसर के कुछ छाया चित्र संलग्न हैं।।                                 प्रस्तुतकर्ता-  ओंकार सिंह विवेक

November 22, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा



दोस्तो हाज़िर है एक नई ग़ज़ल फिर से आपकी अदालत में

2   1 2   2  1  2  1  2      2  2/1 1 2
फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

©️
माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।   
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

November 17, 2021

आँसुओं की ख़ुद्दारी

मनुष्य के हर हाव-भाव और भावभंगिमा तथा अभिव्यक्ति का अपना महत्व है। अब आँसुओं को ही ले लीजिए, इनका भी अपना
स्वाभिमान होता है ।आँसू पलकों पर कभी बिना बुलाए नहीं आते।
ये तभी पलकों पर आकर बैठते हैं जब इन्हें ख़ुशी या ग़म की तरफ़
से कोई निमंत्रण मिलता है।कहने का तात्पर्य यह है कि आदमी की आँखों में आँसू या तो किसी ग़म के कारण आते हैं या फिर बहुत अधिक ख़ुश होने पर। इसी ख़याल को लेकर एक मतला हुआ और फिर कुछ शेर भी हो गए जो आप सबकी अदालत में हाज़िर
कर रहा हूँ--

ग़ज़ल-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
रंज - ख़ुशी    के    दावतनामे   जाते  हैं,
यूँ  ही  कब  पलकों  तक  आँसू आते हैं।

कैसे   कह   दें  उनको   रागों  का  ज्ञाता,    
रात  ढले  तक  राग  यमन  जो  गाते  हैं।

वक़्त की गर्दिश करती है जो ज़ख़्म अता,          
वक़्त  की  रहमत से  वो भर भी जाते हैं।
©️
शुक्र  अदा  करना  तो   बनता  है  इनका,
हम  जंगल - नदियों  से  जितना  पाते हैं।

उनका    क्या   लेना - देना   सच्चाई  से,
वो    तो    केवल   अफ़वाहें   फैलाते  हैं।
              
फैट-शुगर  बढ़ने  का  ख़तरा  क्या  होगा,
हम   निर्धन   तो   रूखी-सूखी  खाते  हैं।
                --- ©️ ओंकार सिंह विवेक

November 11, 2021

"दर्द का अहसास"--एक समीक्षा

इंदौर,मध्य प्रदेश की सुप्रसिद्ध साहित्यकार और समाज सेविका आदरणीया तृप्ति मिश्रा साहिबा ने मेरे ग़ज़ल संग्रह दर्द का अहसास की समीक्षा लिखकर प्रेषित की है जिसे आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ। मैं आदरणीया तृप्ति मिश्रा जी की सदाशयता हेतु उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

*सीधे दिल को छूता हुआ "दर्द का एहसास"*

सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसितां  में ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

हाथ   पर    कैसे   चढ़े  रंगे-हिना ,
जब ख़ुशी पर रंज का पहरा हुआ।

आज हाथों में जनाब ओंकार सिंह "विवेक" जी की "दर्द का एहसास" आ गई और पहले-पहल के इन शेरों को पढ़कर इस किताब में छुपे दर्द के एहसास का अंदाज़ा हुआ। इसके बाद हर्फ़-दर-हर्फ़ डूबती गई और पूरी अठ्ठावन ग़ज़लों में ज़ाहिर टीस के ऊपर अपने को कुछ कहने से रोक न पाई। माज़रत के साथ इन गजलों के बारे में कुछ कहने की हिमाक़त कर रही हूँ।

यूँ तो कोरोना भले ही काल बनकर आया है पर साहित्य की बिसरती-सी इस दुनिया में, डिजिटल दुनिया ने समझो एक नई जान फूँक दी। जो वाक़ई क़लमकार थे, उन्होंने वक्त का सही उपयोग कर अपने फ़न को ख़ूब निखारा। ओंकार सिंह "विवेक" जी से भी मेरा 
तआरुफ़ डिजिटल दुनिया के साथ ही हुआ है। इनकी उम्दा ग़ज़लों  से रूबरू होकर ही मुझे इनकी उम्दा शख़्सियत का अंदाज़ा हुआ। यूँ तो ग़ज़ल कहना मेरे बस की बात नहीं है और बह्र, तरन्नुम, तहत यह सब सीख ही रही हूँ, कुछ-कुछ समझने भी लगी हूँ। 

आज के माहौल में कई लोग चंद शेर लिखकर अपने को ग़ज़लकार कहते हैं। पर जितना मैंने जाना है, ग़ज़ल में बह्र के साथ कहन या भाव भी होना चाहिए और शुरू से आख़िर तक शेर-दर-शेर यह ग़ज़ल बढ़े और आख़िरी शेर में मुक्कमल दिखे। विवेक जी की ग़ज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं, जो आजकल अन्य ग़ज़लों में कम ही नज़र आता है। अठ्ठावन गजलों के इस गुलदस्ते में दर्द का हर रंग है। हर ग़ज़ल ख़ुद को किसी-ना-किसी से जोड़ती है।कई शेर पढ़कर ऐसा लगता है कि शायद आप की अपनी शख़्सियत पर ही लिखे गए हों। चुनाँचे इन  ग़ज़लों में अक्स और सरोकार दोनों देखे जा सकते हैं। चंद अशआर देखिए 

नस्ले-नौ पर है असर जब से नई तहज़ीब का,
तबसे ख़तरे  में  यहाँ  हर बाप  की दस्तार है।

नई तहज़ीब के सहने- चमन में,
हया  के  फूल  मुरझाने  लगे हैं ।

इन शेरों में नई नस्ल के तौर-तरीक़ों पर करारा तंज़ है।

आज के ज़माने में हर कोई अपने को सामने वाले से ज़ियादा समझता है। रिश्तों की कशमकश पर  इनकी कहन देखिए-

नहीं है बात समझौते की कोई ,
जिसे देखो वही ज़िद पर अड़ा है 

लोग, हमसाये पे गुज़रा हादसा,
जानते हैं सुब्ह  के अख़बार से।

अमीरे-शहर  वो  कैसे  बना है,
नगर के सब ग़रीबों को पता है।

 विवेक जी की इन ग़ज़लों में दर्द के साथ उस दर्द से उबरने की ताकीद भी है। चंद अशआर ज़रूर यहाँ आप सब की नज़्र करना चाहूँगी--

हौसला अपना ग़मे-ज़ीस्त पे भारी रखिए,
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।

इंसानियत-मुहब्बत- तहज़ीब की हिमायत,
शिद्दत से  मेरी ग़ज़लों  में  बार-बार होगी ।

हमें अश्कों को पीना आ गया है, 
ग़रज़ यह है कि जीना आ गया है। 

दाद मिली महफ़िल में थोड़ी तो ऐसा महसूस हुआ, 
ग़ज़लों  में हमने  भी  शायद अच्छे  शेर निकाले थे। 

जी हाँ, विवेक जी आपने अपने क़लम से बेहद उम्दा अशआर निकाले हैं। जिनको पढ़-पढ़ कर दाद अपने आप ही निकल जाती है। हर ग़ज़ल ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात कहती है। मेरा दावा है "दर्द का एहसास" पढ़ने वाले इन ग़ज़लों में ज़रूर अपने आसपास को पा सकेंगे।  ग़ज़ल ख़ूबसूरत बहरों में मुकम्मल बात, जो सीधे दिल को छुए वह कहती है यह किताब "दर्द का एहसास" ।मैं अपेक्षा करूँगी कि संवेदनशील साहित्य में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें।

लेखनी चलती रहे
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ

 सादर 
तृप्ति मिश्रा

प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक

November 10, 2021

उम्र भर उपकार कर

शुभ संध्या🙏🙏
सभी ग़ज़ल प्रेमी साहित्य मनीषियों का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन ।

प्रस्तुत है मेरी बहुत आसान बह्र में कही गई एक ग़ज़ल
जिसमें अधिक से अधिक हिंदी शब्दों के प्रयोग का प्रयास
किया है।

अरकान--   फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
वज़्न    --    2 1 2 2     2 1 2 2    2 1 2 2     2 1 2
            
              🌷
                हो  सके  जितना  भी  तुझसे  उम्र  भर उपकार कर,
                बाँट  कर   दुख-दर्द  बंदे   हर  किसी  से  प्यार  कर।
              🌷
                छल-कपट  के  भाव  करते  हैं  सदा मन का अहित,
                हो  तनिक  यदि  इनकी आहट बंद मन के द्वार कर।
              🌷
               जिसको सुनते ही ख़ुशी से सबके तन-मन खिल उठें,
               ऐसी   वाणी   से   सदा  व्यक्तित्व   का   शृंगार   कर।
              🌷
                विश्व  के  कल्याण   की  जिनसे  प्रबल  हो   भावना,
                उन  विचारों  का   सदा  मस्तिष्क   में   संचार   कर।
              🌷
                पर्वतों   को   चीरकर   जो    बह   रही  है   शान   से,
                प्रेरणा  ले   उस   नदी   से   संकटों   को   पार   कर।
              🌷
                नफ़रतों   की   चोट    से    इंसानियत   घायल   हुई,
                ज़िंदगी   इसकी   बचे   ऐसा   कोई   उपचार   कर।
               🌷
                                                         ---ओंकार सिंह विवेक
                                                          (सर्वधिकार सुरक्षित)

     चित्र-गूगल से साभार

November 8, 2021

शेरों में ढाल के

ग़ज़ल -- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
बेशक  कई   जवाब   दिए  इक  सवाल  के,
पर उसके सब जवाब थे सचमुच कमाल के।

हज़रत  किया  था  हमने  तो आगाह बारहा,  
फिर भी शिकार हो गए तुम उसकी चाल के।

बतलाऊँ अपने  बारे में कुछ फिर मैं आपको,
बैठो  कभी  जो साथ  में, फ़ुर्सत निकाल के।
©️
सबकी नज़र में क्यों न हो आला मुक़ाम फिर,     
किरदार  को  वो रक्खे   हुए  हैं   सँभाल  के।

जो रात-दिन  मिलाएँ फ़क़त उनकी  हाँ में हाँ,
क्या  लग  रहे  हैं  हम  तुम्हें  ऐसे  ख़याल के।

बेदार  क्यों   न    हों  भला   सोयी  समाअतें,
मफ़हूम  लाए  हैं   नए , शेरों   में   ढाल  के।

दो  फूल क्या 'विवेक' मुक़द्दर  से  खिल गए,
बदले  हुए  हैं  देखिए  तेवर   ही   डाल   के।
        ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

November 6, 2021

दर्द का अहसास

   कृति-   "दर्द का अहसास" ग़ज़ल संग्रह
कृतिकार- ओंकार सिंह विवेक
समीक्षक-- अशोक कुमार वर्मा
  अवकाशप्राप्त आई0पी0एस0
दर्द का अहसास' ओंकार सिंह 'विवेक' जी की ग़ज़लों का पहला संग्रह है। वे आकाशवाणी के रामपुर केन्द्र से जुड़े हैं। वहाँ मेरे मित्र श्री विनयकुमार वर्मा जी भी नियुक्त हैं। विवेक जी और मैं फेसबुक-मित्र हैं। अपने विभागीय कार्यों में व्यस्तता की वजह से मैं पढ़ने-लिखने के लिए बहुत कम समय निकाल पाता हूँ। तो भी कभी-कभी थोड़ा-बहुत लिखता रहता हूँ। अपने मित्रों के आग्रह से अपनी कविताओं का पहला संग्रह पिछले वर्ष मैंने भी प्रकाशित कराया है। अब आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति अपने अट्ठावनवें वर्ष में पहली रचना प्रकाशित कराये, उस पर भी अगर वह एक पुलिसवाला हो, तो वह कितना बड़ा लिक्खड़ होगा और कैसा साहित्यकार होगा? फिर भी, विवेकजी को मेरी 'जदीद सोच' पसंद है। उन्होंने अपने संग्रह 'दर्द का अहसास' के लिए मुझसे एक 'समीक्षात्मक संदेश' लिखने का आग्रह किया है। इस सबके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। 
        इस संग्रह की कई ग़ज़लें मैंने पढ़ी हैं। जीवन की उनकी समझ प्रौढ़, गम्भीर और परिपक्व है। इसका प्रमाण हैं उनकी ग़ज़लों के बहुत सारे अश'आर, जैसे,- 
                  
                  तेज़ क़दमों की इतनी न रफ्तार हो,
                  पाँव की धूल का सर पे  अंबार  हो।
                            *           *           *  
                  फ़ना हो जाएगी सागर से मिलकर, 
                  नदी  को  हम यही समझा रहे  हैं। 
                            *           *          * 
                  हमें अश्क़ों को पीना आ गया है, 
                  ग़रज यह है कि जीना आ गया है। 
                            *         *         * 
                  बुलंदी का सफ़र करने से पहले, 
                  ज़मीं पर पग जमाना चाहता हूँ। 

        उनकी ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ के साथ उपस्थित है। मूल्यहीनता, सिद्धान्तहीनता, स्वार्थ, नैतिक-पतन, सभ्यता और संस्कृति का क्षरण, आदि, आज का वह सब, जो एक प्रबुद्ध व्यक्ति को उद्वेलित करता है, उनकी शायरी में मौज़ूद है- 
                   उसूलों की तिजारत हो रही है, 
                   मुसलसल यह हिमाकत हो रही है। 
                            *         *          * 
                   धरम, ईमान, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन, 
                   कहाँ इनकी हिफ़ाज़त हो रही है। 
                          *         *         *        
                    बात भी कीजिए, आपकी बात का, 
                    छल, कपट से न कोई सरोकार हो। 
                           *          *          *        
                    बड़ों का मान भूले जा रहे हैं, 
                    ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं। 
                           *           *            * 
                    चापलूसी को फ़क़त तरजीह दी जाए जहाँ, 
                    साफ़गोई की वहाँ पर गुफ्तगू बेकार है।
                            *          *          * 
                    हो रही है सत्य की तौहीन जग में, 
                    झूठ को सर पर चढ़ाया जा रहा है।

         वर्तमान राजनीति का विद्रूप चेहरा उनकी ग़ज़लों में आपको जगह-जगह दिखायी देता है। राजनीतिक जीवन में आयी गिरावट के प्रति समाज में व्याप्त असन्तोष भी वहाँ अभिव्यक्त हुआ है- 
                    जवानों की शहादत पर भी देखो, 
                    यहाँ हर पल सियासत हो रही है। 
                         *         *         *         * 
                     फायदे से अलग हट के सोचा नहीं, 
                     कैसे ऊँचा सियासत का मेयार हो। 
                             *           *          *
                     हमें जिनसे थी कुछ उम्मीद हल की, 
                     मसाइल और वो उलझा रहे हैं। 
                               *          *          *     
                     पहले तो ख़िदमात के मफ़हूम से मंसूब थी, 
                     आजकल लेकिन सियासत मिस्ले कारोबार है।

         वर्तमान सामाजिक जीवन का यथार्थ भी उनकी ग़ज़लों में उपस्थित है- 
                     नस्ले नौ पे है असर जब से नई तहज़ीब का, 
                     तब से ख़तरे में यहाँ हर बाप की दस्तार है। 

         संविधान की प्रस्तावना के मन्तव्य के विपरीत आर्थिक असमानता भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं होती- 
                     इधर हैं झुग्गियों में लोग भूखे, 
                     उधर महलों में दावत हो रही है।

         यदि ओंकार सिंह विवेक जी ने अपनी शायरी में रोग का चित्रण किया है तो उसका निदान भी  प्रस्तुत किया  है- 
                      जब घिरा छल फ़रेबों के तूफ़ान में, 
                       मैंने रक्खा यक़ीं अपने ईमान में। 
                             *         *         * 
                       ज़रा कीजे अँधेरों से लड़ाई, 
                       तभी होगा तआरुफ़ रौशनी से। 
                              *         *         * 

         मानव-प्रकृति की अच्छाई में उनका अडिग विश्वास उनके अश'आर में झलकता है- 
                        है बुराई का पुतला ये माना मगर, 
                        कुछ तो अच्छाइयाँ भी हैं इंसान में। 

          विवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा! इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंहविवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा।
इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंह 'विवेक' जी के रचनाकर्म के प्रकाशन का क्रम प्रारम्भ हो रहा है। मेरी हार्दिक कामना है कि यह क्रम अनवरत चलता रहे, और अपनी साहित्यिक-यात्रा में वे नित नयी-नयी उपलब्धियाँ प्राप्त करते रहें! मेरी यह भी कामना है कि उनका प्रथम  ग़ज़ल-संग्रह 'दर्द का अहसास' साहित्य-जगत में पर्याप्त ध्यान, सम्मान और प्रसिद्धि अर्जित करे!

अशोक कुमार वर्मा, 
आईपीएस, 
पूर्व सेनानायक, 30वीं वाहिनी, पीएसी, 
गोण्डा, उप्र

November 3, 2021

पुस्तक समीक्षा-- "दर्द का अहसास "


             दर्द का अहसास : संवेदनाओं का संकलन
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'औरतों से बातचीत'रही होगी कभी ग़ज़ल की परिभाषा।शायद उस वक़्त जब ग़ज़ल के पैरों में घुँघरू बँधे थे,जब उस पर ढोलक और मजीरों का क़ब्ज़ा था,जब ग़ज़ल नगरवधू की अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह कर रही थी,जब ग़ज़ल के ख़ूबसूरत जिस्म पर बादशाहों-नवाबों का क़ब्ज़ा था।लेकिन,आज स्थितियाँ बिल्कुल उलट गई हैं।आज की ग़ज़ल पहले वाली नगरवधू नहीं बल्कि कुलवधू है,जो साज-श्रृंगार भी करती है और अपने परिवार और समाज का ख़याल भी रखती है।आज की ग़ज़ल कहीं हाथों में खड़तालें लेकर मंदिरों में भजन -कीर्तन कर रही है तो कहीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का रूप धारणकर समाज के बदनीयत ठेकेदारों पर अपनी तलवार से प्रहार भी कर रही है।यानी समाज को रास्ता दिखाने वाली आज की ग़ज़ल 'अबला'नहीं'सबला'है और हर दृष्टि से सक्षम है।

प्रिय भाई ओंकार सिंह विवेक जी की पांडुलिपि मेरे सामने है और मैं उनके ख़ूबसूरत अशआर का आनंद ले रहा हूँ।विवेक जी ने जहाँ जदीदियत का दामन थाम रखा है वहीं उन्होंने रिवायत का भी साथ नहीं छोड़ा है।उनके अशआर में क़दम-क़दम पर जदीदियत की पहरेदारी मिल जाती है।यह आवश्यक भी है।आख़िर कब तक ग़ज़ल को निजता की भेंट चढ़ाते रहेंगे।समय बदलता है तो समस्याएँ बदलती हैं।नये-नये अवरोध व्यक्ति के सामने आकर खड़े जो जाते हैं।शायर की ज़िम्मेदारी है कि उन अवरोधों को रास्ते से हटाए और समाज को नये रास्ते और नयी दिशा दे।यह काम विवेक जी ने बड़ी ख़ूबी के साथ किया है।उनके यहाँ वैयक्तिकता भी है,देश भी है,समाज भी है और आम आदमी की उलझनें भी हैं।

वर्तमान में व्यक्ति जिस हवा में साँस ले रहा है उसमें प्राणदायिनी ऑक्सीज़न के साथ-साथ बड़ी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड भी है जो उसे बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि-
         सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ
         गुलसिताँ में ज़र्द हर पत्ता हुआ
         तंगहाली देखकर माँ-बाप की
         बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ
ये शेर यूँ ही नहीं हो गए हैं।कवि की संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।मनुष्य यूँ तो एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह समाज से कभी विमुख नहीं हो सकता लेकिन कई बार ऐसी स्थितियाँ आ जाती हैं कि उसे 'अपनों जैसे दीखने वाले'लोगों पर भरोसा करना पड़ता है और आख़िरकार वह धोखा खा जाता है।विवेक जी ने इस बात को बड़ी बेबाकी के साथ इन शेरों में प्रस्तुत किया है-
                   भरोसा जिन पे करता जा रहा हूँ
                   मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ
                   उलझकर याद में माज़ी की हर पल
                   दुखी क्यों मन को करता जा रहा हूँ
मैं विवेक जी का क़ायल हूँ कि वह बहुत सोच-समझकर शेर कहते हैं।वह अपनी बात थोपते नहीं बल्कि सामने वाले को सोचने के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं ।'दर्द का अहसास' के प्रकाशन के शुभ अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाइयाँ।माँ शारदे से कामना है कि वह इनकी ऊँचाइयों को और निरंतरता प्रदान करे।मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
                       --डॉ0 कृष्णकुमार नाज़
                                      मुरादाबाद(उ0प्र0)
प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक


November 2, 2021

शुभ दीपावली

दोहे--शुभ दीपावली : धनवर्षा : अमृत वर्षा
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      -- ©️ ओंकार सिंह विवेक
©️
हो जाए  हर  गेह  में , लक्ष्मी  जी  का  वास।
कहलाए इस बार की, धनतेरस कुछ ख़ास।।

खील-बताशे-फुलझड़ी  , दीपों  सजी  क़तार।
मिलती इनको देखकर,मन को ख़ुशी अपार।।

दीवाली   के   दीप  हों ,  या   होली  के  रंग।
इनका आकर्षण तभी ,जब हों प्रियतम संग।।
©️
हो  जाये   संसार  में ,   निर्धन  भी  धनवान।
लक्ष्मी  माता दीजिए  , कुछ  ऐसा   वरदान।।

हो  जाये    संसार  में ,  अँधियारे   की   हार।
कर  दे  यह  दीपावली,  उजियारा  हर द्वार।।

निर्धन को  देें वस्त्र-धन , खील  और  मिष्ठान।
उसके मुख पर भी सजे , दीपों  सी मुस्कान।।                  -
 ©️ ----ओंकार सिंह विवेक
                                            
चित्र--गूगल से साभार

October 31, 2021

देशप्रेम

आज़ादी का अमृत महोत्सव : दो मुक्तक
                          
    ---©️ ओंकार सिंह विवेक

शान  तिरंगा  है ,  हम  सबकी   जान   तिरंगा  है,
वीर   शहीदों   की   गाथा  का  गान    तिरंगा   है।
गर्व न हो क्यों  हमको इस पर आख़िर बतलाओ,
सारे  जग    में   भारत   की   पहचान  तिरंगा  है।
           ---©️ ओंकार सिंह विवेक

दुश्मन  की  सेना  के  आगे सीना अपना  तान रखा,
हर पल अधरों पर आज़ादी वाला पावन गान रखा।
शत-शत  वंदन  करते  हैं हम श्रद्धा से उन वीरों का,
देकर जान जिन्होनें भारत माँ का गौरव-मान रखा।
               ---©️ ओंकार सिंह विवेक
चित्र-गूगल से साभार

October 29, 2021

पुस्तक समीक्षा

              पुस्तक समीक्षा
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कृति      :  काव्य-ज्योति
कृतिकार :रामरतन यादव रतन
समीक्षक  :ओंकार सिंह विवेक

भाई रामरतन यादव रतन जी की भावनाओं और संवेदनाओं के ज्वार को समेटे हुए उनकी प्रथम काव्य-कृति "काव्य ज्योति' के रूप में हमारे सामने है।
कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि अपने काव्य के प्रकाश से समाज को आलोकित करना ही कवि का एकमात्र ध्येय है। कवि ने पुस्तक में माँ सरस्वती की वंदना के उपरांत एक सैनिक से देश की रक्षा का आह्वान करते हुए अपने सृजन का शुभारंभ किया है।इससे कवि के देशभक्ति के जज़्बे का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।कवि की काव्य चेतना समाज में व्याप्त सदमूल्यों के ह्रास, पारिवारिक विघटन,भ्रष्टाचार तथा राजनैतिक पतन आदि से आहत होकर अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्शों व सदमूल्यों की स्थापना एवं चारित्रिक उत्थान का आह्वान करती है।श्री रामरतन यादव जी की सर्जना का फ़लक अत्यंत विस्तृत है अतः उन्होंने अपनी निर्बाध लेखनी से राष्ट्र प्रेम,पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते,प्रकृति चित्रण,सामाजिक विसंगतियों तथा शृंगार की कोमल अनुभूतियों सहित जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं को छुआ है।
कवि ने कहीं हिमालय की वेदना को मानवीकरण के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति दी है तो कहीं पारिवारिक रिश्तों का कविता में यथार्थ चित्रण किया है।पापा शीर्षक से अपनी एक रचना में कवि कहता है--
      मेरी उम्मीद और विश्वास की पहचान हैं पापा,
      हैं  सागर से बहुत गहरे, मेरे अरमान हैं पापा।
इन पंक्तियों में निहित पिता के प्रति सम्मान और आस्था का भाव कवि के उच्च संस्कारों को दर्शाता है।कवि की अधिकांश रचनाओं में सहज प्रवाह है जो आकर्षित करता है।एक स्थान पर नशा शीर्षक से नशे के दुष्परिणामों से आगाह करती ये पंक्तियाँ प्रभावशाली बन पड़ी हैं--
       जल गए कितने बसेरे इस नशे की आग से,
       हो गईं विधवा,सुहागिन इस नशे के राग से।
बेटियों को लेकर कवि के ह्रदय में असीम स्नेह और श्रद्धा का भाव है।बेटियों को समर्पित कई रचनाएँ संकलन में मौजूद हैं।बेटियों के प्रति उनकी श्रद्धा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस संकलन का नामकरण  उनकी बेटी ज्योति के नाम पर है।बेटियों को लेकर उनकी ये पंक्तियाँ देखिए--

          माँ-बाप का हर दर्द समझती हैं बेटियाँ,
          माँ-बाप के अनुसार ही चलती हैं बेटियाँ।
कवि ने अपनी रचनाओं में देशप्रेम, कृष्णजन्म,वसंत ऋतु,वर्षा तथा विभिन्न त्योहारों आदि का बड़ा मनोहारी और जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है।अपने एक देशभक्ति गीत में कवि कहता है-

         हम भारत माँ के रक्षक हैं हमें फ़र्ज़ निभाना आता है,
         धरती माँ के अहसानों का हमें क़र्ज़ चुकाना आता है।
ये पंक्तियाँ हमें बताती हैं कि कवि देश और धरती के प्रति अपने दायित्वों को कितनी गहराई से समझता है।वर्तमान युग के संचार साधनों जैसे मोबाइल और इंटरनेट आदि  पर भी कवि ने अपनी लेखनी चलाई है।एक रचना में नई पीढ़ी पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की अभिव्यक्ति देखिए--
           अजब हाल है इस पीढ़ी का तनिक नहीं शरमाते हैं,
           माता को मॉम बुलाकरके,पापा को डैड बुलाते हैं।
पुस्तक के प्रारंभ में कवि की अधिकांश रचनाएँ भावना प्रधान हैं जिनको किसी विधा विशेष के अंतर्गत वर्गीकृत नहीं किया गया है।इन सभी रचनाओं का भाव पक्ष निःसंदेह प्रभावित करता है।अंत में कुछ रचनाओं को साधिकार गीत,दोहा,मुक्तक ,सायली तथा घनाक्षरी आदि विधाओं के अंतर्गत सृजित किया गया है जहाँ कवि ने यथासंभव शिल्प को साधने का सफल प्रयास किया है।
एक कवि को अपनी प्रथम कृति के प्रकाशन पर ऐसे ही गर्व का अनुभव होता है जैसे घर में पहली संतान के उत्पन्न होने पर होता है।अतः मैं आज रामरतन यादव जी और उनके परिवार की ख़ुशी को समझ सकता हूँ।
"काव्य-ज्योति" को जितना भी मैंने पढ़ा है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि रामरतन यादव जी में कवि के रूप में असीम संभावनाएँ विद्यमान हैं।इनके पास शब्द और भावों के साथ एक अच्छा तरन्नुम भी है जिसके कारण यह मंचों पर बहुत सफल हैं और रहेंगे।
जहाँ तक सीखने और सिखाने का प्रश्न है यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।किसी भी प्रकार के सृजन में निखार और सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है अतः रामरतन यादव जी की इस प्रथम कृति को भी इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।निरंतर अभ्यास और सीखने की ललक किसी भी व्यक्ति को कहीं से कहीं पहुँचा सकती है।मुझे आशा है कि निकट भविष्य में श्री रामरतन यादव रतन जी की कथ्य और शिल्प की कसावट लिए अनेक और कृतियाँ मूल्यांकन हेतु साहित्यकारों के संमुख आएँगी।
मैं श्री यादव जी को उनकी इस प्रथम काव्य कृति के विमोचन के शुभ अवसर पर ह्रदय से बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि यह अपने पारिवारिक दायित्वों और साहित्य सृजन कार्य में सामंजस्य रखते हुए जीवन में सफलता के नित नए आयाम स्थापित करें।

शुभ कामनाओं सहित।

ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार तथा समीक्षक
रामपुर-उ0प्र0
दिनाँक 24 अक्टूबर,2021

      

October 25, 2021

पुस्तक विमोचन समारोह

रविवार दिनाँक 24 अक्टूबर,2021 को खटीमा,उत्तराखंड में विनम्र स्वभाव के धनी कवि एवं अध्यापक  भाई श्री रामरतन यादव रतन जी के स्नेहिल आमंत्रण पर उनकी प्रथम काव्यकृति "काव्य-ज्योति" के विमोचन कार्यक्रम का सहभागी बनने का अवसर प्राप्त हुआ।कार्यक्रम बहुत ही अनुशासित व गरिमापूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ।कार्यक्रम में मुझे भी काव्य पाठ तथा उनकी पुस्तक की समीक्षा करने का अवसर मिला।इस अवसर पर श्री रामरतन यादव जी तथा साहित्यिक संस्था काव्यधारा द्वारा मुझ अकिंचन को सम्मान प्रदान करने हेतु मैं  ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ।
कार्यक्रम में मेरे द्वारा पढ़ी गई एक ग़ज़ल--
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक    
कार्यक्रम में श्री रामरतन यादव जी और उनके परिजनों की आत्मीयता और आतिथ्य ने बहुत प्रभावित किया।भाई श्री रामरतन जी को शुभकामनाएँ सम्प्रेषित करते हुए अवसर के कुछ छाया चित्र साझा कर रहा हूँ।
                                           



          

October 22, 2021

नगर में अब वो नज़्ज़ारे नहीं हैं

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक

October 15, 2021

फ़िक्र के पंछियों को उड़ाया बहुत

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
फ़िक्र  के  पंछियों   को   उड़ाया  बहुत,
उसने  अपने सुख़न को सजाया बहुत।

हौसले   में   न   आई   ज़रा   भी  कमी,
मुश्किलों   ने   हमें   आज़माया   बहुत।

उसने रिश्तों का रक्खा नहीं कुछ भरम,
हमने अपनी  तरफ़  से  निभाया बहुत।
©️
लौ  दिये   ने  मुसलसल   सँभाले  रखी,
आँधियों   ने   अगरचे    डराया   बहुत।

हुस्न   कैसे   निखरता   नहीं   रात  का,
चाँद- तारों   ने  उसको  सजाया  बहुत।

मिट   गई   तीरगी  सारी  तनहाई   की,
उनकी यादों  से दिल जगमगाया बहुत।
                --- ©️ओंकार सिंह विवेक



October 10, 2021

आग से माली के रिश्ते हो गए

फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन   फ़ाइलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
आग   से   माली   के   रिश्ते   हो  गए,
बाग़  को  ख़तरे  ही   ख़तरे   हो  गए।

साथ   में   क्या   और  होने   को  रहा,
दुश्मनों  की   सफ़  में  अपने  हो गए।

कब  किसी  का लेते  थे अहसान हम,
क्या    करें    हालात   ऐसे    हो   गए।
©️
चाहिए  क्या और  मुफ़लिस बाप को,
लाडली    के   हाथ   पीले   हो    गए।

जिनको होना था अलग कुछ भीड़ से,
आज   वो   भी   भीड़  जैसे  हो   गए।
       
भाव   अपने  -  ग़ैर   सब   देने   लगे,
जेब   में   जब    चार   पैसे   हो  गए।          
       ----©️ ओंकार सिंह विवेक
              

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