फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
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आग से माली के रिश्ते हो गए,
बाग़ को ख़तरे ही ख़तरे हो गए।
साथ में क्या और होने को रहा,
दुश्मनों की सफ़ में अपने हो गए।
कब किसी का लेते थे अहसान हम,
क्या करें हालात ऐसे हो गए।
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चाहिए क्या और मुफ़लिस बाप को,
लाडली के हाथ पीले हो गए।
जिनको होना था अलग कुछ भीड़ से,
आज वो भी भीड़ जैसे हो गए।
भाव अपने - ग़ैर सब देने लगे,
जेब में जब चार पैसे हो गए।
----©️ ओंकार सिंह विवेक
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (11 -10-2021 ) को 'धान्य से भरपूर, खेतों में झुकी हैं डालियाँ' (चर्चा अंक 4211) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार यादव जी
Deleteबहुत सुंदर पंक्तियों से सजी रचना..।
ReplyDeleteहार्दिक आभार शर्मा जी
Deleteबहुत अच्छे शेर हैं। मनुष्य स्वभाव और वास्तविकताओं को बहुत सुन्दरता से उकेरा है। पढवाने के लिए धन्यवाद।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवाह! बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
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