ग़ज़ल -- ©️ओंकार सिंह विवेक
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बेशक कई जवाब दिए इक सवाल के,
पर उसके सब जवाब थे सचमुच कमाल के।
हज़रत किया था हमने तो आगाह बारहा,
फिर भी शिकार हो गए तुम उसकी चाल के।
बतलाऊँ अपने बारे में कुछ फिर मैं आपको,
बैठो कभी जो साथ में, फ़ुर्सत निकाल के।
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सबकी नज़र में क्यों न हो आला मुक़ाम फिर,
किरदार को वो रक्खे हुए हैं सँभाल के।
जो रात-दिन मिलाएँ फ़क़त उनकी हाँ में हाँ,
क्या लग रहे हैं हम तुम्हें ऐसे ख़याल के।
बेदार क्यों न हों भला सोयी समाअतें,
मफ़हूम लाए हैं नए , शेरों में ढाल के।
दो फूल क्या 'विवेक' मुक़द्दर से खिल गए,
बदले हुए हैं देखिए तेवर ही डाल के।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
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