कुछ भी कहिए ग़ज़ल विधा के साथ एक आसानी तो है कि
इसका हर शेर पहले से जुदा होता है और अलग-अलग शेरों
में अलग-अलग कथ्य पिरोए जा सकते हैं।गीत में ऐसा नहीं होता
उसके भावों में विषय की तारतम्यता का महत्व होता है।
अभी मेरे साथ ऐसा ही हुआ ।आजकल अख़बार और टी वी पर
राजनीति और चुनाव को लेकर ख़ूब ख़बरें पढ़ और देख रहें हैं
तो उसी संदर्भ में ग़ज़ल का एक मतला हो गया और फिर उसमें
कई और अलग मिज़ाज के शेर भी हो गए जो आपकी अदालत
में हाज़िर हैं---
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
सूचना क्या इलक्शन की जारी हुई,
धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई।
दीन दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे,
घर से निकले तो कुछ जानकारी हुई।
आज निर्धन हुआ और निर्धन यहाँ,
जेब धनवान की और भारी हुई।
मुझपे होगा भी कैसे बला का असर,
माँ ने मेरी नज़र है उतारी हुई।
खेद इसका है गतिरोध टूटा नहीं,
बात उनसे निरंतर हमारी हुई।
--- ओंकार सिंह विवेक
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सही कहा आपने गजल में इसका हर शेर पहले से जुदा होता है।
ReplyDeleteपर आपकी गजल का हर शेर तारतम्य बिठाये है...यहाँ तक ये भी..
मुझपे होगा भी कैसे बला का असर,
माँ ने मेरी नज़र है उतारी हुई।...
लाजवाब गजल...समसामयिक
प्रोत्साहन प्रतिसाद हेतु आभार आदरणीया
DeleteKya baat hai
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