कृति- "दर्द का अहसास" ग़ज़ल संग्रह
कृतिकार- ओंकार सिंह विवेक
समीक्षक-- अशोक कुमार वर्मा
अवकाशप्राप्त आई0पी0एस0
दर्द का अहसास' ओंकार सिंह 'विवेक' जी की ग़ज़लों का पहला संग्रह है। वे आकाशवाणी के रामपुर केन्द्र से जुड़े हैं। वहाँ मेरे मित्र श्री विनयकुमार वर्मा जी भी नियुक्त हैं। विवेक जी और मैं फेसबुक-मित्र हैं। अपने विभागीय कार्यों में व्यस्तता की वजह से मैं पढ़ने-लिखने के लिए बहुत कम समय निकाल पाता हूँ। तो भी कभी-कभी थोड़ा-बहुत लिखता रहता हूँ। अपने मित्रों के आग्रह से अपनी कविताओं का पहला संग्रह पिछले वर्ष मैंने भी प्रकाशित कराया है। अब आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति अपने अट्ठावनवें वर्ष में पहली रचना प्रकाशित कराये, उस पर भी अगर वह एक पुलिसवाला हो, तो वह कितना बड़ा लिक्खड़ होगा और कैसा साहित्यकार होगा? फिर भी, विवेकजी को मेरी 'जदीद सोच' पसंद है। उन्होंने अपने संग्रह 'दर्द का अहसास' के लिए मुझसे एक 'समीक्षात्मक संदेश' लिखने का आग्रह किया है। इस सबके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ।
इस संग्रह की कई ग़ज़लें मैंने पढ़ी हैं। जीवन की उनकी समझ प्रौढ़, गम्भीर और परिपक्व है। इसका प्रमाण हैं उनकी ग़ज़लों के बहुत सारे अश'आर, जैसे,-
तेज़ क़दमों की इतनी न रफ्तार हो,
पाँव की धूल का सर पे अंबार हो।
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फ़ना हो जाएगी सागर से मिलकर,
नदी को हम यही समझा रहे हैं।
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हमें अश्क़ों को पीना आ गया है,
ग़रज यह है कि जीना आ गया है।
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बुलंदी का सफ़र करने से पहले,
ज़मीं पर पग जमाना चाहता हूँ।
उनकी ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ के साथ उपस्थित है। मूल्यहीनता, सिद्धान्तहीनता, स्वार्थ, नैतिक-पतन, सभ्यता और संस्कृति का क्षरण, आदि, आज का वह सब, जो एक प्रबुद्ध व्यक्ति को उद्वेलित करता है, उनकी शायरी में मौज़ूद है-
उसूलों की तिजारत हो रही है,
मुसलसल यह हिमाकत हो रही है।
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धरम, ईमान, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन,
कहाँ इनकी हिफ़ाज़त हो रही है।
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बात भी कीजिए, आपकी बात का,
छल, कपट से न कोई सरोकार हो।
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बड़ों का मान भूले जा रहे हैं,
ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं।
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चापलूसी को फ़क़त तरजीह दी जाए जहाँ,
साफ़गोई की वहाँ पर गुफ्तगू बेकार है।
* * *
हो रही है सत्य की तौहीन जग में,
झूठ को सर पर चढ़ाया जा रहा है।
वर्तमान राजनीति का विद्रूप चेहरा उनकी ग़ज़लों में आपको जगह-जगह दिखायी देता है। राजनीतिक जीवन में आयी गिरावट के प्रति समाज में व्याप्त असन्तोष भी वहाँ अभिव्यक्त हुआ है-
जवानों की शहादत पर भी देखो,
यहाँ हर पल सियासत हो रही है।
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फायदे से अलग हट के सोचा नहीं,
कैसे ऊँचा सियासत का मेयार हो।
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हमें जिनसे थी कुछ उम्मीद हल की,
मसाइल और वो उलझा रहे हैं।
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पहले तो ख़िदमात के मफ़हूम से मंसूब थी,
आजकल लेकिन सियासत मिस्ले कारोबार है।
वर्तमान सामाजिक जीवन का यथार्थ भी उनकी ग़ज़लों में उपस्थित है-
नस्ले नौ पे है असर जब से नई तहज़ीब का,
तब से ख़तरे में यहाँ हर बाप की दस्तार है।
संविधान की प्रस्तावना के मन्तव्य के विपरीत आर्थिक असमानता भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं होती-
इधर हैं झुग्गियों में लोग भूखे,
उधर महलों में दावत हो रही है।
यदि ओंकार सिंह विवेक जी ने अपनी शायरी में रोग का चित्रण किया है तो उसका निदान भी प्रस्तुत किया है-
जब घिरा छल फ़रेबों के तूफ़ान में,
मैंने रक्खा यक़ीं अपने ईमान में।
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ज़रा कीजे अँधेरों से लड़ाई,
तभी होगा तआरुफ़ रौशनी से।
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मानव-प्रकृति की अच्छाई में उनका अडिग विश्वास उनके अश'आर में झलकता है-
है बुराई का पुतला ये माना मगर,
कुछ तो अच्छाइयाँ भी हैं इंसान में।
विवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा! इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंहविवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा।
इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंह 'विवेक' जी के रचनाकर्म के प्रकाशन का क्रम प्रारम्भ हो रहा है। मेरी हार्दिक कामना है कि यह क्रम अनवरत चलता रहे, और अपनी साहित्यिक-यात्रा में वे नित नयी-नयी उपलब्धियाँ प्राप्त करते रहें! मेरी यह भी कामना है कि उनका प्रथम ग़ज़ल-संग्रह 'दर्द का अहसास' साहित्य-जगत में पर्याप्त ध्यान, सम्मान और प्रसिद्धि अर्जित करे!
अशोक कुमार वर्मा,
आईपीएस,
पूर्व सेनानायक, 30वीं वाहिनी, पीएसी,
गोण्डा, उप्र
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