October 31, 2021

देशप्रेम

आज़ादी का अमृत महोत्सव : दो मुक्तक
                          
    ---©️ ओंकार सिंह विवेक

शान  तिरंगा  है ,  हम  सबकी   जान   तिरंगा  है,
वीर   शहीदों   की   गाथा  का  गान    तिरंगा   है।
गर्व न हो क्यों  हमको इस पर आख़िर बतलाओ,
सारे  जग    में   भारत   की   पहचान  तिरंगा  है।
           ---©️ ओंकार सिंह विवेक

दुश्मन  की  सेना  के  आगे सीना अपना  तान रखा,
हर पल अधरों पर आज़ादी वाला पावन गान रखा।
शत-शत  वंदन  करते  हैं हम श्रद्धा से उन वीरों का,
देकर जान जिन्होनें भारत माँ का गौरव-मान रखा।
               ---©️ ओंकार सिंह विवेक
चित्र-गूगल से साभार

October 29, 2021

पुस्तक समीक्षा

              पुस्तक समीक्षा
              ************
कृति      :  काव्य-ज्योति
कृतिकार :रामरतन यादव रतन
समीक्षक  :ओंकार सिंह विवेक

भाई रामरतन यादव रतन जी की भावनाओं और संवेदनाओं के ज्वार को समेटे हुए उनकी प्रथम काव्य-कृति "काव्य ज्योति' के रूप में हमारे सामने है।
कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि अपने काव्य के प्रकाश से समाज को आलोकित करना ही कवि का एकमात्र ध्येय है। कवि ने पुस्तक में माँ सरस्वती की वंदना के उपरांत एक सैनिक से देश की रक्षा का आह्वान करते हुए अपने सृजन का शुभारंभ किया है।इससे कवि के देशभक्ति के जज़्बे का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।कवि की काव्य चेतना समाज में व्याप्त सदमूल्यों के ह्रास, पारिवारिक विघटन,भ्रष्टाचार तथा राजनैतिक पतन आदि से आहत होकर अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्शों व सदमूल्यों की स्थापना एवं चारित्रिक उत्थान का आह्वान करती है।श्री रामरतन यादव जी की सर्जना का फ़लक अत्यंत विस्तृत है अतः उन्होंने अपनी निर्बाध लेखनी से राष्ट्र प्रेम,पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते,प्रकृति चित्रण,सामाजिक विसंगतियों तथा शृंगार की कोमल अनुभूतियों सहित जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं को छुआ है।
कवि ने कहीं हिमालय की वेदना को मानवीकरण के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति दी है तो कहीं पारिवारिक रिश्तों का कविता में यथार्थ चित्रण किया है।पापा शीर्षक से अपनी एक रचना में कवि कहता है--
      मेरी उम्मीद और विश्वास की पहचान हैं पापा,
      हैं  सागर से बहुत गहरे, मेरे अरमान हैं पापा।
इन पंक्तियों में निहित पिता के प्रति सम्मान और आस्था का भाव कवि के उच्च संस्कारों को दर्शाता है।कवि की अधिकांश रचनाओं में सहज प्रवाह है जो आकर्षित करता है।एक स्थान पर नशा शीर्षक से नशे के दुष्परिणामों से आगाह करती ये पंक्तियाँ प्रभावशाली बन पड़ी हैं--
       जल गए कितने बसेरे इस नशे की आग से,
       हो गईं विधवा,सुहागिन इस नशे के राग से।
बेटियों को लेकर कवि के ह्रदय में असीम स्नेह और श्रद्धा का भाव है।बेटियों को समर्पित कई रचनाएँ संकलन में मौजूद हैं।बेटियों के प्रति उनकी श्रद्धा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस संकलन का नामकरण  उनकी बेटी ज्योति के नाम पर है।बेटियों को लेकर उनकी ये पंक्तियाँ देखिए--

          माँ-बाप का हर दर्द समझती हैं बेटियाँ,
          माँ-बाप के अनुसार ही चलती हैं बेटियाँ।
कवि ने अपनी रचनाओं में देशप्रेम, कृष्णजन्म,वसंत ऋतु,वर्षा तथा विभिन्न त्योहारों आदि का बड़ा मनोहारी और जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है।अपने एक देशभक्ति गीत में कवि कहता है-

         हम भारत माँ के रक्षक हैं हमें फ़र्ज़ निभाना आता है,
         धरती माँ के अहसानों का हमें क़र्ज़ चुकाना आता है।
ये पंक्तियाँ हमें बताती हैं कि कवि देश और धरती के प्रति अपने दायित्वों को कितनी गहराई से समझता है।वर्तमान युग के संचार साधनों जैसे मोबाइल और इंटरनेट आदि  पर भी कवि ने अपनी लेखनी चलाई है।एक रचना में नई पीढ़ी पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की अभिव्यक्ति देखिए--
           अजब हाल है इस पीढ़ी का तनिक नहीं शरमाते हैं,
           माता को मॉम बुलाकरके,पापा को डैड बुलाते हैं।
पुस्तक के प्रारंभ में कवि की अधिकांश रचनाएँ भावना प्रधान हैं जिनको किसी विधा विशेष के अंतर्गत वर्गीकृत नहीं किया गया है।इन सभी रचनाओं का भाव पक्ष निःसंदेह प्रभावित करता है।अंत में कुछ रचनाओं को साधिकार गीत,दोहा,मुक्तक ,सायली तथा घनाक्षरी आदि विधाओं के अंतर्गत सृजित किया गया है जहाँ कवि ने यथासंभव शिल्प को साधने का सफल प्रयास किया है।
एक कवि को अपनी प्रथम कृति के प्रकाशन पर ऐसे ही गर्व का अनुभव होता है जैसे घर में पहली संतान के उत्पन्न होने पर होता है।अतः मैं आज रामरतन यादव जी और उनके परिवार की ख़ुशी को समझ सकता हूँ।
"काव्य-ज्योति" को जितना भी मैंने पढ़ा है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि रामरतन यादव जी में कवि के रूप में असीम संभावनाएँ विद्यमान हैं।इनके पास शब्द और भावों के साथ एक अच्छा तरन्नुम भी है जिसके कारण यह मंचों पर बहुत सफल हैं और रहेंगे।
जहाँ तक सीखने और सिखाने का प्रश्न है यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।किसी भी प्रकार के सृजन में निखार और सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है अतः रामरतन यादव जी की इस प्रथम कृति को भी इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।निरंतर अभ्यास और सीखने की ललक किसी भी व्यक्ति को कहीं से कहीं पहुँचा सकती है।मुझे आशा है कि निकट भविष्य में श्री रामरतन यादव रतन जी की कथ्य और शिल्प की कसावट लिए अनेक और कृतियाँ मूल्यांकन हेतु साहित्यकारों के संमुख आएँगी।
मैं श्री यादव जी को उनकी इस प्रथम काव्य कृति के विमोचन के शुभ अवसर पर ह्रदय से बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि यह अपने पारिवारिक दायित्वों और साहित्य सृजन कार्य में सामंजस्य रखते हुए जीवन में सफलता के नित नए आयाम स्थापित करें।

शुभ कामनाओं सहित।

ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार तथा समीक्षक
रामपुर-उ0प्र0
दिनाँक 24 अक्टूबर,2021

      

October 25, 2021

पुस्तक विमोचन समारोह

रविवार दिनाँक 24 अक्टूबर,2021 को खटीमा,उत्तराखंड में विनम्र स्वभाव के धनी कवि एवं अध्यापक  भाई श्री रामरतन यादव रतन जी के स्नेहिल आमंत्रण पर उनकी प्रथम काव्यकृति "काव्य-ज्योति" के विमोचन कार्यक्रम का सहभागी बनने का अवसर प्राप्त हुआ।कार्यक्रम बहुत ही अनुशासित व गरिमापूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ।कार्यक्रम में मुझे भी काव्य पाठ तथा उनकी पुस्तक की समीक्षा करने का अवसर मिला।इस अवसर पर श्री रामरतन यादव जी तथा साहित्यिक संस्था काव्यधारा द्वारा मुझ अकिंचन को सम्मान प्रदान करने हेतु मैं  ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ।
कार्यक्रम में मेरे द्वारा पढ़ी गई एक ग़ज़ल--
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक    
कार्यक्रम में श्री रामरतन यादव जी और उनके परिजनों की आत्मीयता और आतिथ्य ने बहुत प्रभावित किया।भाई श्री रामरतन जी को शुभकामनाएँ सम्प्रेषित करते हुए अवसर के कुछ छाया चित्र साझा कर रहा हूँ।
                                           



          

October 22, 2021

नगर में अब वो नज़्ज़ारे नहीं हैं

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक

October 15, 2021

फ़िक्र के पंछियों को उड़ाया बहुत

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
फ़िक्र  के  पंछियों   को   उड़ाया  बहुत,
उसने  अपने सुख़न को सजाया बहुत।

हौसले   में   न   आई   ज़रा   भी  कमी,
मुश्किलों   ने   हमें   आज़माया   बहुत।

उसने रिश्तों का रक्खा नहीं कुछ भरम,
हमने अपनी  तरफ़  से  निभाया बहुत।
©️
लौ  दिये   ने  मुसलसल   सँभाले  रखी,
आँधियों   ने   अगरचे    डराया   बहुत।

हुस्न   कैसे   निखरता   नहीं   रात  का,
चाँद- तारों   ने  उसको  सजाया  बहुत।

मिट   गई   तीरगी  सारी  तनहाई   की,
उनकी यादों  से दिल जगमगाया बहुत।
                --- ©️ओंकार सिंह विवेक



October 10, 2021

आग से माली के रिश्ते हो गए

फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन   फ़ाइलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
आग   से   माली   के   रिश्ते   हो  गए,
बाग़  को  ख़तरे  ही   ख़तरे   हो  गए।

साथ   में   क्या   और  होने   को  रहा,
दुश्मनों  की   सफ़  में  अपने  हो गए।

कब  किसी  का लेते  थे अहसान हम,
क्या    करें    हालात   ऐसे    हो   गए।
©️
चाहिए  क्या और  मुफ़लिस बाप को,
लाडली    के   हाथ   पीले   हो    गए।

जिनको होना था अलग कुछ भीड़ से,
आज   वो   भी   भीड़  जैसे  हो   गए।
       
भाव   अपने  -  ग़ैर   सब   देने   लगे,
जेब   में   जब    चार   पैसे   हो  गए।          
       ----©️ ओंकार सिंह विवेक
              

September 29, 2021

रात का एक ही बजा है अभी





फ़ाइलातुन   फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️
रात   का   एक  ही  बजा है  अभी,
यार  घंटों  का    रतजगा  है  अभी।

हाथ    यूँ    रोज़    ही    मिलाते   हैं,
उनसे  पर  दिल नहीं मिला है अभी।

मुश्किलों को किसी  की जो समझो,
वक़्त  तुम  पर  कहाँ  पड़ा है अभी।
©️
सब  हैं  अनजान  उसकी चालों  से,
सबकी नज़रों  में  वो भला है अभी।

ज़िक्र  उनका   न   कीजिए  साहिब,
ज़ख़्म  दिल  का  मेरे  हरा  है अभी।

गुफ़्तगू    से    ये    साफ़   ज़ाहिर है,
आपको  हमसे  कुछ गिला है अभी।

और   उलझा   दिया   सियासत   ने,
हल  कहाँ  मसअला  हुआ है अभी।
     --  ©️ओंकार सिंह विवेक


          

September 20, 2021

कविसम्मेलन व साहित्यकार सम्मान समारोह

पल्लव काव्य मंच रामपुर,उ0प्र0 द्वारा कवि सम्मेलन
एवं साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन
**********************************

हिंदी पखवाड़े के अंतर्गत पल्लव काव्य मंच रामपुर द्वारा दिनाँक 19 सितंबर,2021 रविवार को मायादेवी धर्मशाला ज्वालानगर,रामपुर में एक भव्य कवि सम्मेलन एवं साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम के प्रथम सत्र में ऋषिकेश ,उत्तराखंड से पधारे संत बाबा कल्पनेश जी की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन हुआ जिसके संचालन का अवसर मुझे प्राप्त हुआ।कवि सम्मेलन में उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड से पधारे पच्चीस साहित्यकारों ने मातृभाषा हिंदी और सामाजिक सरोकारों को लेकर  रचित अपनी सुंदर रचनाओं से उपस्थित गणमान्य लोगों का दिल जीत लिया।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में पहले "हिंदी- वर्तमान में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर दशा "  विषय पर एक परिचर्चा सम्पन्न हुई।परिचर्चा में हिंदी के तीन मूर्धन्य विद्वानों डॉ0 किश्वर सुल्ताना साहिबा, डॉ0 अरुण कुमार तथा डॉ0 कैलाश चंद्र दिवाकर द्वारा  बहुत ही  सार्थक  विचार व्यक्त किए गए।परिचर्चा के उपरांत चुने हुए स्थानीय एवं बाहर से पधारे साहित्यकारों को उनकी साहित्यिक सेवाओं हेतु अंगवस्त्र ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र प्रदान करके सम्मानित किया गया।इस सत्र में मुझे भी पल्लव काव्य मंच के व्हाट्सएप्प पटल पर आयोजित होने वाली ग़ज़ल कार्यशाला में समीक्षक के रूप में योगदान करने के लिए "पल्लव काव्य भारती सम्मान" देकर सम्मानित किया गया।इस सत्र का संचालन खटीमा ,उत्तराखंड के साहित्यकार भाई रामरतन यादव द्वारा किया गया।कार्यक्रम के अंत में पल्लव काव्य मंच के संस्थापक आदरणीय श्री शिवकुमार शर्मा चंदन द्वारा सभी आगंतुकों का मंच की और से आभार प्रकट किया गया।
इस अवसर के कुछ छाया चित्र संलग्न हैं-

September 11, 2021

याद फिर उनकी दिलाने पे तुली है दुनिया

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710

©️
याद  फिर  उनकी  दिलाने  पे  तुली है दुनिया,
चैन  इस  दिल  का  मिटाने पे तुली है दुनिया।

चोर  को   शाह  बताने   पे   तुली   है  दुनिया,
अपना  मेयार   घटाने   पे   तुली   है   दुनिया।

चंद  सिक्कों   के  लिए  बेचके ईमान - धरम,
"रात - दिन पाप  कमाने  पे  तुली  है दुनिया।"

अपने  आमाल  पे  तो  ग़ौर  नहीं करती कुछ,
बस   मेरे   ऐब   गिनाने  पे  तुली   है  दुनिया।

ख़ास  मतभेद   नहीं   उसके  मेरे  बीच, मगर-
सांप  रस्सी   का   बनाने   पे  तुली  है  दुनिया।

क्यों यूँ नफ़रत की हवाओं की हिमायत करके,
प्यार   के   दीप   बुझाने   पे   तुली  है  दुनिया।
             ---©️ ओंकार सिंह विवेक


August 23, 2021

सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
  ©️
हमें   सच  से  क्या  रग़बत  हो गई  है,
सभी  को  हमसे  दिक़्क़त  हो  गई है।

कभी होती  थी  जन सेवा का साधन ,
सियासत  अब   तिजारत  हो  गई  है।

हमें  लगता  है  कुछ  लोगों  की  जैसे,
उसूलों    से    अदावत    हो   गई   है।
©️
सहे   हैं    ज़ुल्म    इतने   आदमी   के,
नदी    की   पीर   पर्वत   हो   गई   है।

निकाला करते  हो  बस नुक़्स सब में,
तुम्हारी   कैसी   आदत   हो   गई   है।

हसद   रखते   हैं   जो   हमसे  हमेशा,
हमें   उनसे  भी  उल्फ़त   हो  गई  है।

हुए   क्या   हम   रिटायर   नौकरी  से,
मियाँ  फ़ुरसत  ही  फ़ुरसत  हो गई है।
           ---   ©️ओंकार सिंह विवेक

August 22, 2021

क्या बतलाएँ दिल को कैसा लगता है

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
©️
क्या  बतलाएँ दिल को कैसा  लगता  है,
बदला-सा जब उनका लहजा लगता है।

रोज़  पुलाव  पकाओ आप ख़यालों के,
इसमे   कोई    पाई - पैसा   लगता   है।

मजबूरी  है  बेघर  की, वरना  किसको-
फुटपाथों  पर  सोना  अच्छा  लगता है।
©️
तरही   मिसरे   पर  इतनी  आसानी  से,
तुम ही बतलाओ क्या मिसरा लगता है।

आज  किसी ने की है  शान में गुस्ताख़ी,
मूड  हुज़ूर  का उखड़ा-उखड़ा लगता है।

चहरे   पर   मायूसी , आँखों   मे  दरिया,
तू भी मुझ-सा वक़्त का मारा लगता है।

बाल  भले  ही  पक जाएँ उसके,लेकिन-
माँ - बापू   को   बेटा  बच्चा  लगता  है।
             ----©️ओंकार सिंह विवेक

August 1, 2021

हाँ, जीवन नश्वर होता है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️ 
हाँ , जीवन   नश्वर   होता   है,
मौत का फिर भी डर होता है।

शेर   नहीं   होते  हफ़्तों   तक,
ऐसा  भी    अक्सर   होता  है।

बारिश  लगती  है  दुश्मन-सी ,
टूटा    जब    छप्पर   होता  है।

उनका  लहजा  ऐसा   समझो ,
जैसे    इक   नश्तर   होता   है।

जो    घर   के   आदाब   चलेंगे,
दफ़्तर    कोई    घर   होता   है।

देख लियाअब हमने,क्या-क्या,
संसद    के   अंदर     होता   है।
--   ©️  ओंकार सिंह विवेक





July 25, 2021

गुलों में ताज़गी आए कहाँ से

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
दिनाँक- 24.07.2021

चित्र--गूगल से साभार
©️
चमन   है   रूबरू  पैहम    ख़िज़ाँ  से,
गुलों    में   ताज़गी   आए   कहाँ   से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
कहा  जाए   न   ऐसा  कुछ   ज़ुबाँ  से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 18, 2021

सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से

दोस्तो नमस्कार🙏🏻🙏🏻
यों तो सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है वह सब कुछ
हर आदमी की नज़र से गुज़रता है परंतु एक कवि या 
साहित्यकार दुनिया की हर छोटी-बड़ी चीज़ को एक अलग 
ही नज़रिए से देखता है।इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आप
मेरे द्वारा ग़ज़ल में पिरोए गए  गुलसिताँ, ख़िज़ाँ, आसमाँ,
ज़ुबाँ और माँ आदि शब्दों का आनंद लें--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
यूँ   ही   थोड़ी  गई   वो  गुलसिताँ   से,
लड़ी   है   जंग  फूलों  ने   ख़िज़ाँ    से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
न  ऐसा  लफ़्ज़  इक  निकले  ज़ुबाँ से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 16, 2021

तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर


ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
सभी   फ़ख़्र   करने   लगें  तीरगी  पर,
तो  गुज़रेगी क्या सोचिए  रौशनी पर।

सर-ए-आम ईमान  जब  बिक रहे हों,
तो कैसे भरोसा  करें  हम  किसी पर।

सुनाते   रहे    मंच    से    बस  लतीफ़े,
न आए वो आख़िर तलक शायरी पर।

अलग  दौर  था  वो,अलग था ज़माना,
सभी  नाज़  करते   थे जब दोस्ती पर।

न  रिश्वत  को  पैसे, न कोई सिफ़ारिश,
रखेगा  तुम्हें   कौन  फिर  नौकरी  पर।

किसी ने कभी उसकी पीड़ा न समझी,
सभी  ज़ुल्म  ढाते   रहे  बस  नदी  पर।

बहुत   लोग  थे  यूँ  तो  पूजा-भवन  में,
मगर ध्यान कितनों का था आरती पर?
          ---- ©️  ओंकार सिंह विवेक

July 15, 2021

माननीय अटल जी को समर्पित कुछ दोहे

अटल जी की स्मृति में कहे गए कुछ दोहे
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             ---©️  ओंकार सिंह विवेक
🌷
 नैतिक  मूल्यों  का किया ,सदा मान-सम्मान।
 दिया अटल जी ने नहीं ,ओछा कभी बयान।।
🌷
 विश्व मंच  पर  शान  से , अपना  सीना  तान।
 अटल बिहारी ने  किया, हिंदी  का यशगान।।
🌷
 राजनीति  के  मंच  पर , छोड़ अनोखी  छाप।
 सब के दिल में बस गए,अटल बिहारी आप।।
🌷
 चलकर पथ पर सत्य के,किया जगत में नाम।
 अटल बिहारी आपको,शत-शत बार प्रणाम।।                           ।।
🌷
              ------©️  ओंकार सिंह विवेक

July 12, 2021

राष्ट्रीय कवि गोष्ठी-संस्कार भारती वाराणसी

11/07/2021
हे राष्ट्र तुम्हारा अभिनंदन !
आज संस्कार भारती-वाराणसी (उ.प्र) द्वारा वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार डॉ प्रेरणा चतुर्वेदी के संयोजन में देशभक्तिपरक रचनाओं के साथ ऑनलाइन "राष्ट्रीय कवि गोष्ठी " आयोजित की गई ।
 इस राष्ट्रीय कवि गोष्ठी में उत्तर प्रदेश, बिहार ,नई दिल्ली, मेघालय, हिमाचल प्रदेश तथा मध्य प्रदेश राज्यों के 20 जिलों  से वरिष्ठ  एवं युवा रचनाकारों ने राष्ट्र को समर्पित रचनाओं का  पाठ किया ।
कार्यक्रम में मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) से श्रीमती सुधा गुप्ता,मा. विमलेश अवस्थी कानपुर (उ. प्र), डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव( पटना, बिहार ) ,ओंकार सिंह विवेक  (रामपुर, उ. प्र) ,प्रोफ़ेसर सुधा सिंहा (बिहार) ,डॉ. सपना चंदेल ,डॉ सुनीता जायसवाल (शिमला, हिमाचल प्रदेश ) ,डॉ सुषमा तिवारी (नोएडा, उ.प्र) ,अंजू भारती (नई दिल्ली) डॉ. आलोक सिंह (शिलांग, मेघालय) आदि ने देशभक्तिपरक काव्य पाठ किया।
इसके साथ ही 'राष्ट्रीय कवि गोष्ठी' में उत्तर प्रदेश -वाराणसी से ममता तिवारी, प्रीति जायसवाल, प्रयागराज से डॉ प्रतीक्षा दूबे, जौनपुर से खुशबू उपाध्याय, प्रवीणा दीक्षित झारखंड, मनीष मिश्रा -जहानाबाद ,ऋषि कुमार तिवारी- बिहार ,मीना परिहार- बिहार आदि ने वीर रस से ओत-प्रोत रचनाओं का  पाठ किया ।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि माननीय सनातन दुबे जी ,क्षेत्र प्रमुख (उत्तर प्रदेश) ने कार्यक्रम में अपने आशीर्वचन देते हुए कहा कि-- 'संस्कार भारती' स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने पर 15 अगस्त 2021 से 15 अगस्त 2022 तक पूरे साल  राष्ट्र को समर्पित रचनाओं का संकलन और प्रसारण करेगी ।
इस कार्यक्रम में 'संस्कार भारती'- मानस गंगा  इकाई ,वाराणसी के अध्यक्ष श्री वेद प्रकाश जी भी उपस्थित रहे।

July 11, 2021

शहनाइयाँ अच्छी लगीं


ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
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फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन    फ़ाइलुन

मौसमे - बरसात     की    तैयारियाँ   अच्छी   लगीं,
ख़ुश्क फ़सलों को घुमड़ती  बदलियाँ अच्छी लगीं।

ख़ुश   हुए  बस  दूसरों  की  ख़ामियों  को  देखकर,
कब  भला  उनको किसी की ख़ूबियाँ अच्छी लगीं।

पेट    कोई   दान    के   पकवान    से   भरता   रहा,
और  महनत  की  किसी  को  रोटियाँ अच्छी लगीं।

और  भी  जलने  का  उसमें  हौसला कुछ बढ़ गया,
दीप को इन  आँधियों  की  धमकियाँ  अच्छी लगीं।

हम   पड़ोसी    से   हमेशा    मेल    के    हामी   रहे,
कब  हमें  सरहद  पे  चलती  गोलियाँ अच्छी लगीं।

दुख  हुआ  तो  रुख़सती का हमको बेटी की,मगर-
फिर  भी  घर  में  गूँजती  शहनाइयाँ  अच्छी लगीं।
                                     ---–ओंकार सिंह विवेक
             सर्वाधिकार सुरक्षित

July 6, 2021

मानवीय सरोकार

दोस्तो काफ़ी दिन बाद आपसे फिर मुख़ातिब हूँ अपनी
मानवीय सरोकारों से जुड़ी एक ग़ज़ल लेकर--
 ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️ 
ये  आदमी  ने   यहाँ   कैसा  ज़ुल्म  ढाया  है,
तमाम  मछलियों  को  रेत  पर  ले  आया है।

कुचल  दिया   है   उन्हें  हौसले  के  बूते  पर,
जो  मुश्किलात  ने  जीवन  में  सर उठाया है,

सुना  रहा  है  वो  हमको  फ़क़त  लतीफ़े  ही,
अभी  तलक  भी  कोई  शेर  कब सुनाया है।

करें   न  शुक्र  अदा  क्यों   भला  दरख़्तों का,
इन्हीं   के   साए  ने   तो  धूप  से  बचाया   है।

है  कौन  हमसे अधिक और ख़ुशनसीब भला,
"तुम्हें   ख़ुदा    ने    हमारे    लिए   बनाया   है।

'विवेक' रब  की  इनायत-करम है ये मुझ पर,
जो सर पे आज तलक भी, पिता का साया है।
             ----    ©️   ओंकार सिंह विवेक



July 1, 2021

कच्चा घर नहीं होता

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
  
फ़ाइलुन  मुफ़ाईलुन   फ़ाइलुन   मुफ़ाईलुन
©️ 
गर  हमारी क़िस्मत में कच्चा घर नहीं होता,
तो  हमें भी बारिश  का कोई डर नहीं होता।

चार दिन में हो जाए ज़िंदगी से जो रुख़सत,
ग़म का दौर इतना भी मुख़्तसर नहीं होता।

जाने  टूटकर  कबके  हम  बिखर  गए होते,
ज़िंदगी में  अपनों का  साथ गर नहीं होता।

वो  ही  रंज देते हैं , वो  ही  दिल दुखाते  हैं,
जिनसे चोट खाने  का कोई डर नहीं होता।

क्या  हमें  उजाले  की   नेमतें  मिली  होतीं,
आफ़ताब  जो  अपने काम  पर नहीं होता।

दूर  है  अभी  काफ़ी  इंतेख़ाब  का  मौसम,
रहनुमा  का  बस्ती  से  यूँ गुज़र नहीं होता।
             ----  ©️ ओंकार सिंह विवेक

June 21, 2021

Yoga Day Special

 अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर कुछ दोहे
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                  ---ओंकार सिंह विवेक
©️ 
होता  है  इस  बात पर , हमें  गर्व  का  भान,
भारत  ने  संसार  को , दिया  योग का ज्ञान।

आदिकाल में देश  के, बालक- वृद्ध-जवान,
गुरुकुल जाकर योग का, लेते  थे नित ज्ञान।

जिसने शामिल कर लिया , दिनचर्या में योग,
उससे   घबराने  लगे ,  सभी  तरह  के  रोग।

घोर निराशा-क्रोध-भय,उलझन और तनाव,
योग  शक्ति  से  दूर  हों ,  ऐसे  सभी  दबाव।

तेग  बहादुर - सेमुअल , राम  और   रहमान,
सबके मुख पर योग से , खिलती है मुस्कान।

अगर करेंगे योग का ,प्रतिदिन हम अभ्यास,
भर  जाएगा एक दिन , जीवन  में  उल्लास।

कोरोना  के  काल  में ,करके  प्रतिदिन योग,
प्रतिरोधक क्षमता सतत, बढ़ा  रहे  हैं  लोग।
               ------ ©️  ओंकार सिंह विवेक 
                              

June 20, 2021

फादर्स-डे स्पेशल

आज पिता-दिवस पर पिता श्री
को समर्पित एक ग़ज़ल
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        ---- ओंकार सिंह विवेक
🌹
मफ़ऊ लु    मफ़ाईलु    मफ़ाईलु    फ़ऊलुन
©️ 
मेरी  सभी  ख़ुशियों  का  हैं आधार पिता जी,
और माँ के भी जीवन का हैं शृंगार पिता जी।
🌹
सप्ताह  में   हैं  सातों  दिवस  काम  पे  जाते,
जानें   नहीं  क्या  होता  है  इतवार पिता जी।
🌹
हालाँकि ज़ियादा  नहीं  कुछ आय के साधन,
फिर  भी  चला  ही लेते हैं परिवार पिता जी।
🌹
ख़ैरात   किसी   की  भी  गवारा  नहीं  करते,
है   फ़ख़्र   मुझे , हैं   बड़े  ख़ुद्दार   पिता  जी।
🌹
दुख  अपना  बताते  नहीं ,पर  सबका हमेशा,
ग़म   बाँटने   को  रहते  हैं  तैयार  पिता  जी।
🌹
दुनिया बड़ी ज़ालिम है , सजग हर घड़ी रहना,
समझाते  हैं  मुझको  यही  हर बार पिता जी।
🌹
ये  आपकी  ही सीख का है मुझ पे असर,जो-
विपदा  से   नहीं  मानता   मैं  हार  पिता  जी।
🌹
पीटो   मुझे   या   चाहे   कभी   कान  मरोड़ो,
हर  बात  का  है आपको अधिकार पिता जी।
🌹
सर  से  न   उठे  मेरे  कभी  आप  का  साया,
मिलता  रहे  बस  यूँ ही सदा  प्यार पिता जी।
🌹 
 ©️ ओंकार सिंह विवेक
  ----- 

June 14, 2021

दो बोल प्यार के

ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक

©️


दो  बोल  जिसने  बोल  दिए  हँसके  प्यार के,
हम उसके होके रह गए इस दिल को हार के।

ये    नौजवान   कैसे   दिखाएँगे   फिर   हुनर,
अवसर   ही  जब  न  दोगे  इन्हें  रोज़गार के।

है   और   चंद  रोज़  की  महमान  ये  ख़िज़ाँ,
आएँगे   जल्द   लौटके   मौसम   बहार   के।

'कोविड'  के ख़ौफ़ में ही रहे वो भी मुब्तिला,
जो  थे  मरीज़  मौसमी  खाँसी - बुख़ार  के।

रहना  ही   है  'विवेक'  अभी  ये  ख़ुमार  तो,
आए  हैं  उनकी बज़्म में कुछ पल गुज़ार के।
©️ ---ओंकार सिंह विवेक

June 11, 2021

पुख़्ता तैयारी है

 ग़ज़ल**ओंकार सिंह विवेक
 
©️ 
बंद  भले   ही  सरहद  पर  अब  गोलीबारी  है, 
पर  हमसाये  की  साज़िश  वैसे  ही  जारी  है।

जान गए  कुछ देर की बारिश से ही लोग यहाँ,
टाउन  परिषद  की  कितनी पुख़्ता  तैयारी  है।

दस्तावेज़ों   में   चाहे    कुछ   भी  तहरीर  करें,
पर   यह   सच्चाई   है , दुनिया   में  बेकारी  है।

घटना में शामिल लोगों की जानिब से हर पल,
जाँच को भटकाने  की  पूरी कोशिश जारी है।

जान  नही  पाए  हैं  दुनिया  वाले  ये अब तक,
'कोविड' कोई साज़िश  है या फिर  बीमारी है।

तंग नज़रिया  रखने  वाले  लोगो , तुम अपनी-
सोच  बदलकर  देखो, दुनिया  बेहद प्यारी है।
©️                        ----ओंकार सिंह विवेक

 

June 3, 2021

समीक्षा : एक दुष्कर कार्य

बात साहित्य सृजन की आती है तो कथ्य-तथ्य-शिल्प-भाव-कला और शब्द-संयोजन जैसे शब्दों के साथ ही एक शब्द और है जो
मस्तिष्क में आता है।वह शब्द है समीक्षा ।आज नेट के इस युग में
सोशल मीडिया के अनेक मंचों जैसे ट्विटर,व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर अनेक साहित्यिक ग्रुप्स चल रहे हैं जहाँ साहित्यकार
अपनी रचनाएँ पोस्ट करके अपने सृजन में निरंतर सुधार करने के साथ ही वाही-वाही भी लूट रहे हैं।
कुछ साहित्यिक पटल तो बहुत ही अच्छा स्तर बनाए हुए हैं।वहाँ बड़े -बड़े साहित्यिक बारीकियों के जानकार निरंतर अपनी रचनाएँ पोस्ट करते हैं और नए रचनाकारों की रचनाओं पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी देते हैं जिससे काफ़ी कुछ सीखने का अवसर प्राप्त होता है।मैं भी वरिष्ठ साहित्यकारों की ऐसी टिप्पणियों से अपने लेखन में निरंतर सुधार करता रहा हूँ।कई मंचों पर मुझे भी ग़ज़ल और दोहा विधा की रचनाओं की समीक्षा करने का अवसर प्राप्त होता रहा है।समीक्षा -कार्य निष्पादन के दौरान कई चीज़ें देखने में आती हैं।कुछ साहित्यकार तो समीक्षात्मक टिप्पणियों को सह्रदयता से लेते हुए तदनुसार अपनी रचना में परिवर्तन करके अपने लेखन में सुधार लाने का प्रयत्न करते हैं।दूसरी ओर कई साहित्यकार भी ऐसे होते हैं जिन्हें समीक्षक से केवल वाह वाह ! की टिप्पणी की ही आशा रहती है।वे सुझावात्मक अथवा आलोचनात्मक टिप्पणी को अन्यथा लेते हैं।इससे समीक्षक का तो कोई नुक़सान नहीं होता बल्कि उस रचनाकार की ही हानि होती है जो अनुभवी समीक्षक की बहुमूल्य टिप्पणी को नज़रअन्दाज़ करके अपने सृजन को निखारने से स्वयं को वंचित कर लेता है।
रचनाकार को चाहिए कि समीक्षक की टिप्पणी के प्रत्येक शब्द को ध्यान से पढ़कर उसके मर्म को समझे और उस पर सार्थक चर्चा करके अपने सृजन में धार और निखार लाए।
अपनी ही ग़ज़ल के एक मतले से बात समाप्त करता हूँ--

तीर  से  मतलब न  कुछ तलवार से,
हमको मतलब है क़लम की धार से।
            ----ओंकार सिंह विवेक🙏🙏

June 1, 2021

जब दिये ही नहीं जलाए हैं

नमस्कार मित्रो🙏🏻🙏🏻
सोचा काफ़ी दिन हो गए ,चलो साहित्यिक अभिव्यक्ति को  लेकर
कुछ बात की जाए।
यों तो आस-पास घटित हो रही तमाम घटनाओं और मन में चल रहे विचारों को लेकर एक साहित्यकार की प्रबल इच्छा रहती है कि वह उन भावों को अभिव्यक्ति दे।कुछ लोग /साहित्यकार अपनी रुचि और कौशल के अनुसार उन विचारों को कहानी ,लेख या निबंध के रूप में अभिव्यक्त करते हैं तो कुछ लोग काव्य रूप में।विचारों की अभिव्यक्ति साहित्य की किसी भी विधा में की जा सकती है परंतु उस विधा के शिल्प /व्याकरण विधान की पूरी जानकारी के साथ यदि हम कथ्य-तथ्य-भाव -शब्द चयन और संयोजन का पूरा ध्यान रखकर सृजन करेंगे तो निश्चित रूप से ऐसा सृजन लोगों के ऊपर गहरा और स्थायी प्रभाव छोड़ने में कामयाब होता है।
इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखकर सामाजिक विसंगतियों,विषमताओं और विरोधाभासों को लेकर मैंने एक ताज़ा ग़ज़ल कही है।पढ़कर
आप अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँगे, ऐसी आशा है।।  
          ,🙏🏻🙏🌷🌷ओंकार सिंह विवेक


May 21, 2021

अँधेरे से ही तो उजाला है

शुभ प्रभात मित्रों🙏🙏

शीर्षक पढ़कर आपको लगा होगा कि यह कैसी अटपटी-सी 
बात है।यदि हम गहराई से सोचें तो इस कथन के पीछे  छुपी 
सच्चाई समझ में आ जाएगी।जब व्यक्ति अँधेरों में घिरता है
तभी उसे प्रकाश का महत्व समझ आता है और वह दीप जलाने
की बात सोचकर उसके लिए प्रयास करता है।अगर अँधेरा न हो 
तो हम  दीप जलाने की बात क्योंकर सोचेंगे।अतः अँधेरा तो एक प्रकार से हमें दिये जलाने की प्रेरणा देता है,हमें इसका अहसानमंद
होना चाहिए।
यही बात जीवन में आने वाली तमाम विपदाओं और परेशानियों पर भी लागू होती है।हम परेशानियाँ उठाकर ही सुखों का महत्व
समझते हैं।दुःखों की कसौटी पर कसे जाने के उपरांत ही हमें सुखों में आनंद की अनुभूति होती है।
   ---ओंकार सिंह विवेक

May 17, 2021

दोहे : गंगा मैया

दोहे : गंगा माई
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     ----©️ ओंकार सिंह विवेक
💥
जटा   खोलकर  रुद्र   ने , छोड़ी  जिसकी  धार,
नमन   करें   उस   गंग   को ,  आओ   बारंबार।
💥
भूप   सगर   के   पुत्र   सब , दिए  अंततः   तार,
कैसे   भूलें   हम  भला ,  सुरसरि  का  उपकार।
💥
यों  तो  नदियों  का  यहाँ ,  बिछा  हुआ है जाल,
पर  गंगा  माँ - सी  हमें , मिलती  नहीं  मिसाल।
💥
मातु - सदृश   भी   पूजता , मैली   करता  धार,
गंगा - सॅंग   तेरा   मनुज , यह  कैसा  व्यवहार।
💥
दिन-प्रतिदिन  दूषित  करे , मानव उसकी धार,
पर  फिर   भी   आशा   रखे , गंगा   देगी  तार।
💥
आज   धरा   पर    देखकर , गंगा   का  संत्रास,
शिव जी  भी  कैलाश  पर , होंगे  बहुत  उदास।
💥
सच्चे  मन   से   प्रण  करें ,  हम   सब  बारंबार,
नहीं   करेंगे   अब  मलिन ,  देवनदी  की  धार।
💥
चला-चलाकर नित्यप्रति, अधुनातन अभियान,
स्वच्छ   करेंगे  गंग  को , मन  में  लें  हम  ठान।
💥
                        -----©️ ओंकार सिंह विवेक

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