ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
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गर हमारी क़िस्मत में कच्चा घर नहीं होता,
तो हमें भी बारिश का कोई डर नहीं होता।
चार दिन में हो जाए ज़िंदगी से जो रुख़सत,
ग़म का दौर इतना भी मुख़्तसर नहीं होता।
जाने टूटकर कबके हम बिखर गए होते,
ज़िंदगी में अपनों का साथ गर नहीं होता।
वो ही रंज देते हैं , वो ही दिल दुखाते हैं,
जिनसे चोट खाने का कोई डर नहीं होता।
क्या हमें उजाले की नेमतें मिली होतीं,
आफ़ताब जो अपने काम पर नहीं होता।
दूर है अभी काफ़ी इंतेख़ाब का मौसम,
रहनुमा का बस्ती से यूँ गुज़र नहीं होता।
---- ©️ ओंकार सिंह विवेक
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०३-0७-२०२१) को
'सघन तिमिर में' (चर्चा अंक- ४११४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
क्या हमें उजाले की नेमतें मिली होतीं,
ReplyDeleteआफ़ताब जो अपने काम पर नहीं होता।
बहुत सुंदर
वो ही रंज देते हैं , वो ही दिल दुखाते हैं,
ReplyDeleteजिनसे चोट खाने का कोई डर नहीं होता।
लाजवाब अस्आर एक से बढ़कर एक।
वो ही रंज देते हैं , वो ही दिल दुखाते हैं,
ReplyDeleteजिनसे चोट खाने का कोई डर नहीं होता।
लाजवाब अस्आर।
एक से बढ़कर एक।
वो ही रंज देते हैं , वो ही दिल दुखाते हैं,
ReplyDeleteजिनसे चोट खाने का कोई डर नहीं होता।
एक से बढ़कर एक शेर।