July 18, 2021

सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से

दोस्तो नमस्कार🙏🏻🙏🏻
यों तो सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है वह सब कुछ
हर आदमी की नज़र से गुज़रता है परंतु एक कवि या 
साहित्यकार दुनिया की हर छोटी-बड़ी चीज़ को एक अलग 
ही नज़रिए से देखता है।इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आप
मेरे द्वारा ग़ज़ल में पिरोए गए  गुलसिताँ, ख़िज़ाँ, आसमाँ,
ज़ुबाँ और माँ आदि शब्दों का आनंद लें--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
यूँ   ही   थोड़ी  गई   वो  गुलसिताँ   से,
लड़ी   है   जंग  फूलों  ने   ख़िज़ाँ    से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
न  ऐसा  लफ़्ज़  इक  निकले  ज़ुबाँ से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

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