ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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हमें सच से क्या रग़बत हो गई है,
सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है।
कभी होती थी जन सेवा का साधन ,
सियासत अब तिजारत हो गई है।
हमें लगता है कुछ लोगों की जैसे,
उसूलों से अदावत हो गई है।
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सहे हैं ज़ुल्म इतने आदमी के,
नदी की पीर पर्वत हो गई है।
निकाला करते हो बस नुक़्स सब में,
तुम्हारी कैसी आदत हो गई है।
हसद रखते हैं जो हमसे हमेशा,
हमें उनसे भी उल्फ़त हो गई है।
हुए क्या हम रिटायर नौकरी से,
मियाँ फ़ुरसत ही फ़ुरसत हो गई है।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (25-08-2021) को चर्चा मंच "विज्ञापन में नारी?" (चर्चा अंक 4167) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवाह
ReplyDeleteफुरसत ही फुरसत हो गयी
सुन्दर रचना
हार्दिक आभार आपका
Deleteसामायिक,सटीक भाव रचना।
ReplyDeleteबेहतरीन।
अतिशय आभार आपका
Deleteवाह! उम्दा ग़ज़ल
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteवाह!बहुत सुंदर।
ReplyDeleteसादर
आदरणीया बेहद शुक्रगुज़ार हूँ आपका
Deleteवाह! बहुत सुंदर।
ReplyDeleteसादर
आदरणीया बेहद शुक्रगुज़ार हूँ आपका
Deleteसामायिक,सटीक रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार
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