June 3, 2021

समीक्षा : एक दुष्कर कार्य

बात साहित्य सृजन की आती है तो कथ्य-तथ्य-शिल्प-भाव-कला और शब्द-संयोजन जैसे शब्दों के साथ ही एक शब्द और है जो
मस्तिष्क में आता है।वह शब्द है समीक्षा ।आज नेट के इस युग में
सोशल मीडिया के अनेक मंचों जैसे ट्विटर,व्हाट्सएप्प और फेसबुक पर अनेक साहित्यिक ग्रुप्स चल रहे हैं जहाँ साहित्यकार
अपनी रचनाएँ पोस्ट करके अपने सृजन में निरंतर सुधार करने के साथ ही वाही-वाही भी लूट रहे हैं।
कुछ साहित्यिक पटल तो बहुत ही अच्छा स्तर बनाए हुए हैं।वहाँ बड़े -बड़े साहित्यिक बारीकियों के जानकार निरंतर अपनी रचनाएँ पोस्ट करते हैं और नए रचनाकारों की रचनाओं पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी देते हैं जिससे काफ़ी कुछ सीखने का अवसर प्राप्त होता है।मैं भी वरिष्ठ साहित्यकारों की ऐसी टिप्पणियों से अपने लेखन में निरंतर सुधार करता रहा हूँ।कई मंचों पर मुझे भी ग़ज़ल और दोहा विधा की रचनाओं की समीक्षा करने का अवसर प्राप्त होता रहा है।समीक्षा -कार्य निष्पादन के दौरान कई चीज़ें देखने में आती हैं।कुछ साहित्यकार तो समीक्षात्मक टिप्पणियों को सह्रदयता से लेते हुए तदनुसार अपनी रचना में परिवर्तन करके अपने लेखन में सुधार लाने का प्रयत्न करते हैं।दूसरी ओर कई साहित्यकार भी ऐसे होते हैं जिन्हें समीक्षक से केवल वाह वाह ! की टिप्पणी की ही आशा रहती है।वे सुझावात्मक अथवा आलोचनात्मक टिप्पणी को अन्यथा लेते हैं।इससे समीक्षक का तो कोई नुक़सान नहीं होता बल्कि उस रचनाकार की ही हानि होती है जो अनुभवी समीक्षक की बहुमूल्य टिप्पणी को नज़रअन्दाज़ करके अपने सृजन को निखारने से स्वयं को वंचित कर लेता है।
रचनाकार को चाहिए कि समीक्षक की टिप्पणी के प्रत्येक शब्द को ध्यान से पढ़कर उसके मर्म को समझे और उस पर सार्थक चर्चा करके अपने सृजन में धार और निखार लाए।
अपनी ही ग़ज़ल के एक मतले से बात समाप्त करता हूँ--

तीर  से  मतलब न  कुछ तलवार से,
हमको मतलब है क़लम की धार से।
            ----ओंकार सिंह विवेक🙏🙏

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