ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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हाँ , जीवन नश्वर होता है,
मौत का फिर भी डर होता है।
शेर नहीं होते हफ़्तों तक,
ऐसा भी अक्सर होता है।
बारिश लगती है दुश्मन-सी ,
टूटा जब छप्पर होता है।
उनका लहजा ऐसा समझो ,
जैसे इक नश्तर होता है।
जो घर के आदाब चलेंगे,
दफ़्तर कोई घर होता है।
देख लियाअब हमने,क्या-क्या,
संसद के अंदर होता है।
-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-08-2021 ) को भारत की बेटी पी.वी.सिंधु ने बैडमिंटन (महिला वर्ग ) में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रचा। (चर्चा अंक 4144) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
यादव जी हार्दिक आभार
Deleteवाह ! बेहतरीन ग़ज़ल, घर से लेकर संसद और जीवन की नश्वरता सभी का ज़िक्र, बहुत खूब!
ReplyDeleteअतिशय आभार आदरणीया
Deleteहृदय स्पर्शी भाव
ReplyDeleteहार्दिक आभार
Deleteहृदय स्पर्शी भाव
ReplyDeleteशुक्रिया आदरणीया
Deleteअति सुन्दर भाव सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
Deleteबहुत ही शानदार, उम्दा सृजन।
ReplyDeleteआभारी हूँ आपका
Deleteहार्दिक आभार
DeleteSundar
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
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