December 4, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा

दोस्तो हाज़िर है एक ताज़ा ग़ज़ल--

फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

©️
माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।    
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

December 1, 2021

आज कुछ दोहे यों भी

साथियो नमस्कार🙏🙏
आज काफ़ी दिन बाद किसी आवश्यक कार्य से  रामपुर-उ0प्र0 से गुरुग्राम-हरियाणा जाते समय कुछ दोहे सृजित हुए जो आपके साथ साझा करने का मन हुआ--
🌷कुछ दोहे🌷
                    ----©️  ओंकार सिंह विवेक
     🌹
      मँहगाई   को   देख  कर , जेबें  हुईं  उदास,
      पर्वों का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।
     🌹
     कोई सुनता  ही  नहीं , उसकी  यहाँ  पुकार,
     चीख-चीख कर रात-दिन, मौन गया है हार।
    🌹
     हाँ यह सच है इन दिनों ,बिगड़ी  है हर बात,
     लेकिन बहुरेंगे  कभी , अपने भी  दिन-रात।
    🌹
     मिली  कँगूरों को  सखे,तभी बड़ी पहिचान,
     दिया नीव  की ईंट ने,जब अपना बलिदान।
    🌹
               ---- ©️ ओंकार सिंह विवेक

November 27, 2021

धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई

नमस्कार साथियो🙏🙏
कुछ भी कहिए ग़ज़ल विधा के साथ एक आसानी तो है कि
इसका हर शेर पहले से जुदा होता है और अलग-अलग शेरों
में अलग-अलग कथ्य पिरोए जा सकते हैं।गीत में ऐसा नहीं होता
उसके भावों में विषय की तारतम्यता का महत्व होता है।
अभी मेरे साथ ऐसा ही हुआ ।आजकल अख़बार और टी वी पर
राजनीति और चुनाव को लेकर ख़ूब ख़बरें पढ़ और देख रहें हैं
तो उसी संदर्भ में ग़ज़ल का एक मतला हो गया और फिर उसमें
कई और अलग मिज़ाज के शेर भी हो गए जो आपकी अदालत
में हाज़िर हैं---

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
सूचना  क्या  इलक्शन  की  जारी हुई,
धुर  विरोधी  दलों   में  भी  यारी  हुई।

दीन दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे,
घर  से  निकले तो कुछ जानकारी हुई।

आज  निर्धन  हुआ  और  निर्धन  यहाँ,
जेब   धनवान   की   और   भारी  हुई।
 
मुझपे  होगा  भी  कैसे बला  का असर,
माँ   ने   मेरी   नज़र   है   उतारी   हुई।

खेद  इसका   है   गतिरोध   टूटा  नहीं,
बात    उनसे    निरंतर    हमारी    हुई।
             ---   ओंकार सिंह विवेक

                (Copy right)




November 25, 2021

एक अनूठा प्रयोग : टैगोर काव्य गोष्ठी

आज राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला ,रामपुर में  प्रसिद्ध सर्राफ,समाजसेवी तथा साहित्यकार  टैगोर  स्कूल के  प्रबंधक श्री रवि प्रकाश जी द्वारा "टैगोर काव्य गोष्ठी" का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम में रामपुर की कवयित्री श्रीमती अनमोल रागिनी गर्ग को उनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचानते हुए विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया।कार्यक्रम में श्रीमती अनमोल रागिनी जी के अतिरिक्त कविवर सर्व श्री जितेंद्र कमल आनंद ,रामकिशोर वर्मा ,ओंकार सिंह विवेक ,प्रदीप राजपूत ,राजीव कुमार शर्मा ,शिव कुमार चंदन ,सुरेंद्र अश्क रामपुरी ,सुरेश अधीर ,डॉ अब्दुल रऊफ आदि की उल्लेखनीय काव्य प्रस्तुतियाँ एवं संबोधन रहा।
कार्यक्रम के आयोजन का दायित्व श्री रवि प्रकाश जी के संस्कारवान सुपुत्र डेंटल सर्जन डॉ. रजत प्रकाश तथा उनकी पत्नी डेंटल सर्जन डॉ. हर्षिता पूठिया द्वारा बहुत ही उत्साह और समर्पण-भाव से सँभाला गया।श्रोताओं ने काव्य पाठ का भरपूर आनंद लिया। 
अंत में श्री रवि प्रकाश जी एवं  विनम्र स्वभाव की धनी उनकी धर्मपत्नी  द्वारा सभी का आभार प्रकट करते हुए कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।
इस अवसर के कुछ छाया चित्र संलग्न हैं।।                                 प्रस्तुतकर्ता-  ओंकार सिंह विवेक

November 22, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा



दोस्तो हाज़िर है एक नई ग़ज़ल फिर से आपकी अदालत में

2   1 2   2  1  2  1  2      2  2/1 1 2
फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

©️
माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
©️
सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।   
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

November 17, 2021

आँसुओं की ख़ुद्दारी

मनुष्य के हर हाव-भाव और भावभंगिमा तथा अभिव्यक्ति का अपना महत्व है। अब आँसुओं को ही ले लीजिए, इनका भी अपना
स्वाभिमान होता है ।आँसू पलकों पर कभी बिना बुलाए नहीं आते।
ये तभी पलकों पर आकर बैठते हैं जब इन्हें ख़ुशी या ग़म की तरफ़
से कोई निमंत्रण मिलता है।कहने का तात्पर्य यह है कि आदमी की आँखों में आँसू या तो किसी ग़म के कारण आते हैं या फिर बहुत अधिक ख़ुश होने पर। इसी ख़याल को लेकर एक मतला हुआ और फिर कुछ शेर भी हो गए जो आप सबकी अदालत में हाज़िर
कर रहा हूँ--

ग़ज़ल-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
रंज - ख़ुशी    के    दावतनामे   जाते  हैं,
यूँ  ही  कब  पलकों  तक  आँसू आते हैं।

कैसे   कह   दें  उनको   रागों  का  ज्ञाता,    
रात  ढले  तक  राग  यमन  जो  गाते  हैं।

वक़्त की गर्दिश करती है जो ज़ख़्म अता,          
वक़्त  की  रहमत से  वो भर भी जाते हैं।
©️
शुक्र  अदा  करना  तो   बनता  है  इनका,
हम  जंगल - नदियों  से  जितना  पाते हैं।

उनका    क्या   लेना - देना   सच्चाई  से,
वो    तो    केवल   अफ़वाहें   फैलाते  हैं।
              
फैट-शुगर  बढ़ने  का  ख़तरा  क्या  होगा,
हम   निर्धन   तो   रूखी-सूखी  खाते  हैं।
                --- ©️ ओंकार सिंह विवेक

November 11, 2021

"दर्द का अहसास"--एक समीक्षा

इंदौर,मध्य प्रदेश की सुप्रसिद्ध साहित्यकार और समाज सेविका आदरणीया तृप्ति मिश्रा साहिबा ने मेरे ग़ज़ल संग्रह दर्द का अहसास की समीक्षा लिखकर प्रेषित की है जिसे आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ। मैं आदरणीया तृप्ति मिश्रा जी की सदाशयता हेतु उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ।

*सीधे दिल को छूता हुआ "दर्द का एहसास"*

सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसितां  में ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

हाथ   पर    कैसे   चढ़े  रंगे-हिना ,
जब ख़ुशी पर रंज का पहरा हुआ।

आज हाथों में जनाब ओंकार सिंह "विवेक" जी की "दर्द का एहसास" आ गई और पहले-पहल के इन शेरों को पढ़कर इस किताब में छुपे दर्द के एहसास का अंदाज़ा हुआ। इसके बाद हर्फ़-दर-हर्फ़ डूबती गई और पूरी अठ्ठावन ग़ज़लों में ज़ाहिर टीस के ऊपर अपने को कुछ कहने से रोक न पाई। माज़रत के साथ इन गजलों के बारे में कुछ कहने की हिमाक़त कर रही हूँ।

यूँ तो कोरोना भले ही काल बनकर आया है पर साहित्य की बिसरती-सी इस दुनिया में, डिजिटल दुनिया ने समझो एक नई जान फूँक दी। जो वाक़ई क़लमकार थे, उन्होंने वक्त का सही उपयोग कर अपने फ़न को ख़ूब निखारा। ओंकार सिंह "विवेक" जी से भी मेरा 
तआरुफ़ डिजिटल दुनिया के साथ ही हुआ है। इनकी उम्दा ग़ज़लों  से रूबरू होकर ही मुझे इनकी उम्दा शख़्सियत का अंदाज़ा हुआ। यूँ तो ग़ज़ल कहना मेरे बस की बात नहीं है और बह्र, तरन्नुम, तहत यह सब सीख ही रही हूँ, कुछ-कुछ समझने भी लगी हूँ। 

आज के माहौल में कई लोग चंद शेर लिखकर अपने को ग़ज़लकार कहते हैं। पर जितना मैंने जाना है, ग़ज़ल में बह्र के साथ कहन या भाव भी होना चाहिए और शुरू से आख़िर तक शेर-दर-शेर यह ग़ज़ल बढ़े और आख़िरी शेर में मुक्कमल दिखे। विवेक जी की ग़ज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं, जो आजकल अन्य ग़ज़लों में कम ही नज़र आता है। अठ्ठावन गजलों के इस गुलदस्ते में दर्द का हर रंग है। हर ग़ज़ल ख़ुद को किसी-ना-किसी से जोड़ती है।कई शेर पढ़कर ऐसा लगता है कि शायद आप की अपनी शख़्सियत पर ही लिखे गए हों। चुनाँचे इन  ग़ज़लों में अक्स और सरोकार दोनों देखे जा सकते हैं। चंद अशआर देखिए 

नस्ले-नौ पर है असर जब से नई तहज़ीब का,
तबसे ख़तरे  में  यहाँ  हर बाप  की दस्तार है।

नई तहज़ीब के सहने- चमन में,
हया  के  फूल  मुरझाने  लगे हैं ।

इन शेरों में नई नस्ल के तौर-तरीक़ों पर करारा तंज़ है।

आज के ज़माने में हर कोई अपने को सामने वाले से ज़ियादा समझता है। रिश्तों की कशमकश पर  इनकी कहन देखिए-

नहीं है बात समझौते की कोई ,
जिसे देखो वही ज़िद पर अड़ा है 

लोग, हमसाये पे गुज़रा हादसा,
जानते हैं सुब्ह  के अख़बार से।

अमीरे-शहर  वो  कैसे  बना है,
नगर के सब ग़रीबों को पता है।

 विवेक जी की इन ग़ज़लों में दर्द के साथ उस दर्द से उबरने की ताकीद भी है। चंद अशआर ज़रूर यहाँ आप सब की नज़्र करना चाहूँगी--

हौसला अपना ग़मे-ज़ीस्त पे भारी रखिए,
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिए।

इंसानियत-मुहब्बत- तहज़ीब की हिमायत,
शिद्दत से  मेरी ग़ज़लों  में  बार-बार होगी ।

हमें अश्कों को पीना आ गया है, 
ग़रज़ यह है कि जीना आ गया है। 

दाद मिली महफ़िल में थोड़ी तो ऐसा महसूस हुआ, 
ग़ज़लों  में हमने  भी  शायद अच्छे  शेर निकाले थे। 

जी हाँ, विवेक जी आपने अपने क़लम से बेहद उम्दा अशआर निकाले हैं। जिनको पढ़-पढ़ कर दाद अपने आप ही निकल जाती है। हर ग़ज़ल ख़ूबसूरती के साथ अपनी बात कहती है। मेरा दावा है "दर्द का एहसास" पढ़ने वाले इन ग़ज़लों में ज़रूर अपने आसपास को पा सकेंगे।  ग़ज़ल ख़ूबसूरत बहरों में मुकम्मल बात, जो सीधे दिल को छुए वह कहती है यह किताब "दर्द का एहसास" ।मैं अपेक्षा करूँगी कि संवेदनशील साहित्य में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें।

लेखनी चलती रहे
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ

 सादर 
तृप्ति मिश्रा

प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक

November 10, 2021

उम्र भर उपकार कर

शुभ संध्या🙏🙏
सभी ग़ज़ल प्रेमी साहित्य मनीषियों का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन ।

प्रस्तुत है मेरी बहुत आसान बह्र में कही गई एक ग़ज़ल
जिसमें अधिक से अधिक हिंदी शब्दों के प्रयोग का प्रयास
किया है।

अरकान--   फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
वज़्न    --    2 1 2 2     2 1 2 2    2 1 2 2     2 1 2
            
              🌷
                हो  सके  जितना  भी  तुझसे  उम्र  भर उपकार कर,
                बाँट  कर   दुख-दर्द  बंदे   हर  किसी  से  प्यार  कर।
              🌷
                छल-कपट  के  भाव  करते  हैं  सदा मन का अहित,
                हो  तनिक  यदि  इनकी आहट बंद मन के द्वार कर।
              🌷
               जिसको सुनते ही ख़ुशी से सबके तन-मन खिल उठें,
               ऐसी   वाणी   से   सदा  व्यक्तित्व   का   शृंगार   कर।
              🌷
                विश्व  के  कल्याण   की  जिनसे  प्रबल  हो   भावना,
                उन  विचारों  का   सदा  मस्तिष्क   में   संचार   कर।
              🌷
                पर्वतों   को   चीरकर   जो    बह   रही  है   शान   से,
                प्रेरणा  ले   उस   नदी   से   संकटों   को   पार   कर।
              🌷
                नफ़रतों   की   चोट    से    इंसानियत   घायल   हुई,
                ज़िंदगी   इसकी   बचे   ऐसा   कोई   उपचार   कर।
               🌷
                                                         ---ओंकार सिंह विवेक
                                                          (सर्वधिकार सुरक्षित)

     चित्र-गूगल से साभार

November 8, 2021

शेरों में ढाल के

ग़ज़ल -- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
बेशक  कई   जवाब   दिए  इक  सवाल  के,
पर उसके सब जवाब थे सचमुच कमाल के।

हज़रत  किया  था  हमने  तो आगाह बारहा,  
फिर भी शिकार हो गए तुम उसकी चाल के।

बतलाऊँ अपने  बारे में कुछ फिर मैं आपको,
बैठो  कभी  जो साथ  में, फ़ुर्सत निकाल के।
©️
सबकी नज़र में क्यों न हो आला मुक़ाम फिर,     
किरदार  को  वो रक्खे   हुए  हैं   सँभाल  के।

जो रात-दिन  मिलाएँ फ़क़त उनकी  हाँ में हाँ,
क्या  लग  रहे  हैं  हम  तुम्हें  ऐसे  ख़याल के।

बेदार  क्यों   न    हों  भला   सोयी  समाअतें,
मफ़हूम  लाए  हैं   नए , शेरों   में   ढाल  के।

दो  फूल क्या 'विवेक' मुक़द्दर  से  खिल गए,
बदले  हुए  हैं  देखिए  तेवर   ही   डाल   के।
        ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

November 6, 2021

दर्द का अहसास

   कृति-   "दर्द का अहसास" ग़ज़ल संग्रह
कृतिकार- ओंकार सिंह विवेक
समीक्षक-- अशोक कुमार वर्मा
  अवकाशप्राप्त आई0पी0एस0
दर्द का अहसास' ओंकार सिंह 'विवेक' जी की ग़ज़लों का पहला संग्रह है। वे आकाशवाणी के रामपुर केन्द्र से जुड़े हैं। वहाँ मेरे मित्र श्री विनयकुमार वर्मा जी भी नियुक्त हैं। विवेक जी और मैं फेसबुक-मित्र हैं। अपने विभागीय कार्यों में व्यस्तता की वजह से मैं पढ़ने-लिखने के लिए बहुत कम समय निकाल पाता हूँ। तो भी कभी-कभी थोड़ा-बहुत लिखता रहता हूँ। अपने मित्रों के आग्रह से अपनी कविताओं का पहला संग्रह पिछले वर्ष मैंने भी प्रकाशित कराया है। अब आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति अपने अट्ठावनवें वर्ष में पहली रचना प्रकाशित कराये, उस पर भी अगर वह एक पुलिसवाला हो, तो वह कितना बड़ा लिक्खड़ होगा और कैसा साहित्यकार होगा? फिर भी, विवेकजी को मेरी 'जदीद सोच' पसंद है। उन्होंने अपने संग्रह 'दर्द का अहसास' के लिए मुझसे एक 'समीक्षात्मक संदेश' लिखने का आग्रह किया है। इस सबके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूँ। 
        इस संग्रह की कई ग़ज़लें मैंने पढ़ी हैं। जीवन की उनकी समझ प्रौढ़, गम्भीर और परिपक्व है। इसका प्रमाण हैं उनकी ग़ज़लों के बहुत सारे अश'आर, जैसे,- 
                  
                  तेज़ क़दमों की इतनी न रफ्तार हो,
                  पाँव की धूल का सर पे  अंबार  हो।
                            *           *           *  
                  फ़ना हो जाएगी सागर से मिलकर, 
                  नदी  को  हम यही समझा रहे  हैं। 
                            *           *          * 
                  हमें अश्क़ों को पीना आ गया है, 
                  ग़रज यह है कि जीना आ गया है। 
                            *         *         * 
                  बुलंदी का सफ़र करने से पहले, 
                  ज़मीं पर पग जमाना चाहता हूँ। 

        उनकी ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ के साथ उपस्थित है। मूल्यहीनता, सिद्धान्तहीनता, स्वार्थ, नैतिक-पतन, सभ्यता और संस्कृति का क्षरण, आदि, आज का वह सब, जो एक प्रबुद्ध व्यक्ति को उद्वेलित करता है, उनकी शायरी में मौज़ूद है- 
                   उसूलों की तिजारत हो रही है, 
                   मुसलसल यह हिमाकत हो रही है। 
                            *         *          * 
                   धरम, ईमान, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन, 
                   कहाँ इनकी हिफ़ाज़त हो रही है। 
                          *         *         *        
                    बात भी कीजिए, आपकी बात का, 
                    छल, कपट से न कोई सरोकार हो। 
                           *          *          *        
                    बड़ों का मान भूले जा रहे हैं, 
                    ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं। 
                           *           *            * 
                    चापलूसी को फ़क़त तरजीह दी जाए जहाँ, 
                    साफ़गोई की वहाँ पर गुफ्तगू बेकार है।
                            *          *          * 
                    हो रही है सत्य की तौहीन जग में, 
                    झूठ को सर पर चढ़ाया जा रहा है।

         वर्तमान राजनीति का विद्रूप चेहरा उनकी ग़ज़लों में आपको जगह-जगह दिखायी देता है। राजनीतिक जीवन में आयी गिरावट के प्रति समाज में व्याप्त असन्तोष भी वहाँ अभिव्यक्त हुआ है- 
                    जवानों की शहादत पर भी देखो, 
                    यहाँ हर पल सियासत हो रही है। 
                         *         *         *         * 
                     फायदे से अलग हट के सोचा नहीं, 
                     कैसे ऊँचा सियासत का मेयार हो। 
                             *           *          *
                     हमें जिनसे थी कुछ उम्मीद हल की, 
                     मसाइल और वो उलझा रहे हैं। 
                               *          *          *     
                     पहले तो ख़िदमात के मफ़हूम से मंसूब थी, 
                     आजकल लेकिन सियासत मिस्ले कारोबार है।

         वर्तमान सामाजिक जीवन का यथार्थ भी उनकी ग़ज़लों में उपस्थित है- 
                     नस्ले नौ पे है असर जब से नई तहज़ीब का, 
                     तब से ख़तरे में यहाँ हर बाप की दस्तार है। 

         संविधान की प्रस्तावना के मन्तव्य के विपरीत आर्थिक असमानता भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं होती- 
                     इधर हैं झुग्गियों में लोग भूखे, 
                     उधर महलों में दावत हो रही है।

         यदि ओंकार सिंह विवेक जी ने अपनी शायरी में रोग का चित्रण किया है तो उसका निदान भी  प्रस्तुत किया  है- 
                      जब घिरा छल फ़रेबों के तूफ़ान में, 
                       मैंने रक्खा यक़ीं अपने ईमान में। 
                             *         *         * 
                       ज़रा कीजे अँधेरों से लड़ाई, 
                       तभी होगा तआरुफ़ रौशनी से। 
                              *         *         * 

         मानव-प्रकृति की अच्छाई में उनका अडिग विश्वास उनके अश'आर में झलकता है- 
                        है बुराई का पुतला ये माना मगर, 
                        कुछ तो अच्छाइयाँ भी हैं इंसान में। 

          विवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा! इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंहविवेकजी की परिपक्व समझ के कारण 'दर्द का अहसास' में आज का सम्पूर्ण जीवन उपस्थित है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, आदि जीवन के सभी पहलू उनकी शायरी में अभिव्यक्त हुए हैं। प्यार-मोहब्बत के अतिरेक के लिए बदनाम शायरी में उनके यहाँ, लगता है, वर्तमान जीवन की आपाधापी में प्यार-मोहब्बत के लिए अवकाश ही नहीं रहा।
इस संग्रह के प्रकाशन के साथ ओंकार सिंह 'विवेक' जी के रचनाकर्म के प्रकाशन का क्रम प्रारम्भ हो रहा है। मेरी हार्दिक कामना है कि यह क्रम अनवरत चलता रहे, और अपनी साहित्यिक-यात्रा में वे नित नयी-नयी उपलब्धियाँ प्राप्त करते रहें! मेरी यह भी कामना है कि उनका प्रथम  ग़ज़ल-संग्रह 'दर्द का अहसास' साहित्य-जगत में पर्याप्त ध्यान, सम्मान और प्रसिद्धि अर्जित करे!

अशोक कुमार वर्मा, 
आईपीएस, 
पूर्व सेनानायक, 30वीं वाहिनी, पीएसी, 
गोण्डा, उप्र

November 3, 2021

पुस्तक समीक्षा-- "दर्द का अहसास "


             दर्द का अहसास : संवेदनाओं का संकलन
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'औरतों से बातचीत'रही होगी कभी ग़ज़ल की परिभाषा।शायद उस वक़्त जब ग़ज़ल के पैरों में घुँघरू बँधे थे,जब उस पर ढोलक और मजीरों का क़ब्ज़ा था,जब ग़ज़ल नगरवधू की अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह कर रही थी,जब ग़ज़ल के ख़ूबसूरत जिस्म पर बादशाहों-नवाबों का क़ब्ज़ा था।लेकिन,आज स्थितियाँ बिल्कुल उलट गई हैं।आज की ग़ज़ल पहले वाली नगरवधू नहीं बल्कि कुलवधू है,जो साज-श्रृंगार भी करती है और अपने परिवार और समाज का ख़याल भी रखती है।आज की ग़ज़ल कहीं हाथों में खड़तालें लेकर मंदिरों में भजन -कीर्तन कर रही है तो कहीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का रूप धारणकर समाज के बदनीयत ठेकेदारों पर अपनी तलवार से प्रहार भी कर रही है।यानी समाज को रास्ता दिखाने वाली आज की ग़ज़ल 'अबला'नहीं'सबला'है और हर दृष्टि से सक्षम है।

प्रिय भाई ओंकार सिंह विवेक जी की पांडुलिपि मेरे सामने है और मैं उनके ख़ूबसूरत अशआर का आनंद ले रहा हूँ।विवेक जी ने जहाँ जदीदियत का दामन थाम रखा है वहीं उन्होंने रिवायत का भी साथ नहीं छोड़ा है।उनके अशआर में क़दम-क़दम पर जदीदियत की पहरेदारी मिल जाती है।यह आवश्यक भी है।आख़िर कब तक ग़ज़ल को निजता की भेंट चढ़ाते रहेंगे।समय बदलता है तो समस्याएँ बदलती हैं।नये-नये अवरोध व्यक्ति के सामने आकर खड़े जो जाते हैं।शायर की ज़िम्मेदारी है कि उन अवरोधों को रास्ते से हटाए और समाज को नये रास्ते और नयी दिशा दे।यह काम विवेक जी ने बड़ी ख़ूबी के साथ किया है।उनके यहाँ वैयक्तिकता भी है,देश भी है,समाज भी है और आम आदमी की उलझनें भी हैं।

वर्तमान में व्यक्ति जिस हवा में साँस ले रहा है उसमें प्राणदायिनी ऑक्सीज़न के साथ-साथ बड़ी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड भी है जो उसे बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि-
         सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ
         गुलसिताँ में ज़र्द हर पत्ता हुआ
         तंगहाली देखकर माँ-बाप की
         बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ
ये शेर यूँ ही नहीं हो गए हैं।कवि की संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।मनुष्य यूँ तो एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह समाज से कभी विमुख नहीं हो सकता लेकिन कई बार ऐसी स्थितियाँ आ जाती हैं कि उसे 'अपनों जैसे दीखने वाले'लोगों पर भरोसा करना पड़ता है और आख़िरकार वह धोखा खा जाता है।विवेक जी ने इस बात को बड़ी बेबाकी के साथ इन शेरों में प्रस्तुत किया है-
                   भरोसा जिन पे करता जा रहा हूँ
                   मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ
                   उलझकर याद में माज़ी की हर पल
                   दुखी क्यों मन को करता जा रहा हूँ
मैं विवेक जी का क़ायल हूँ कि वह बहुत सोच-समझकर शेर कहते हैं।वह अपनी बात थोपते नहीं बल्कि सामने वाले को सोचने के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं ।'दर्द का अहसास' के प्रकाशन के शुभ अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाइयाँ।माँ शारदे से कामना है कि वह इनकी ऊँचाइयों को और निरंतरता प्रदान करे।मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।
                       --डॉ0 कृष्णकुमार नाज़
                                      मुरादाबाद(उ0प्र0)
प्रस्तुतकर्ता--ओंकार सिंह विवेक


November 2, 2021

शुभ दीपावली

दोहे--शुभ दीपावली : धनवर्षा : अमृत वर्षा
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      -- ©️ ओंकार सिंह विवेक
©️
हो जाए  हर  गेह  में , लक्ष्मी  जी  का  वास।
कहलाए इस बार की, धनतेरस कुछ ख़ास।।

खील-बताशे-फुलझड़ी  , दीपों  सजी  क़तार।
मिलती इनको देखकर,मन को ख़ुशी अपार।।

दीवाली   के   दीप  हों ,  या   होली  के  रंग।
इनका आकर्षण तभी ,जब हों प्रियतम संग।।
©️
हो  जाये   संसार  में ,   निर्धन  भी  धनवान।
लक्ष्मी  माता दीजिए  , कुछ  ऐसा   वरदान।।

हो  जाये    संसार  में ,  अँधियारे   की   हार।
कर  दे  यह  दीपावली,  उजियारा  हर द्वार।।

निर्धन को  देें वस्त्र-धन , खील  और  मिष्ठान।
उसके मुख पर भी सजे , दीपों  सी मुस्कान।।                  -
 ©️ ----ओंकार सिंह विवेक
                                            
चित्र--गूगल से साभार

October 31, 2021

देशप्रेम

आज़ादी का अमृत महोत्सव : दो मुक्तक
                          
    ---©️ ओंकार सिंह विवेक

शान  तिरंगा  है ,  हम  सबकी   जान   तिरंगा  है,
वीर   शहीदों   की   गाथा  का  गान    तिरंगा   है।
गर्व न हो क्यों  हमको इस पर आख़िर बतलाओ,
सारे  जग    में   भारत   की   पहचान  तिरंगा  है।
           ---©️ ओंकार सिंह विवेक

दुश्मन  की  सेना  के  आगे सीना अपना  तान रखा,
हर पल अधरों पर आज़ादी वाला पावन गान रखा।
शत-शत  वंदन  करते  हैं हम श्रद्धा से उन वीरों का,
देकर जान जिन्होनें भारत माँ का गौरव-मान रखा।
               ---©️ ओंकार सिंह विवेक
चित्र-गूगल से साभार

October 29, 2021

पुस्तक समीक्षा

              पुस्तक समीक्षा
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कृति      :  काव्य-ज्योति
कृतिकार :रामरतन यादव रतन
समीक्षक  :ओंकार सिंह विवेक

भाई रामरतन यादव रतन जी की भावनाओं और संवेदनाओं के ज्वार को समेटे हुए उनकी प्रथम काव्य-कृति "काव्य ज्योति' के रूप में हमारे सामने है।
कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि अपने काव्य के प्रकाश से समाज को आलोकित करना ही कवि का एकमात्र ध्येय है। कवि ने पुस्तक में माँ सरस्वती की वंदना के उपरांत एक सैनिक से देश की रक्षा का आह्वान करते हुए अपने सृजन का शुभारंभ किया है।इससे कवि के देशभक्ति के जज़्बे का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।कवि की काव्य चेतना समाज में व्याप्त सदमूल्यों के ह्रास, पारिवारिक विघटन,भ्रष्टाचार तथा राजनैतिक पतन आदि से आहत होकर अपनी रचनाओं के माध्यम से आदर्शों व सदमूल्यों की स्थापना एवं चारित्रिक उत्थान का आह्वान करती है।श्री रामरतन यादव जी की सर्जना का फ़लक अत्यंत विस्तृत है अतः उन्होंने अपनी निर्बाध लेखनी से राष्ट्र प्रेम,पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते,प्रकृति चित्रण,सामाजिक विसंगतियों तथा शृंगार की कोमल अनुभूतियों सहित जीवन से जुड़े तमाम पहलुओं को छुआ है।
कवि ने कहीं हिमालय की वेदना को मानवीकरण के माध्यम से मार्मिक अभिव्यक्ति दी है तो कहीं पारिवारिक रिश्तों का कविता में यथार्थ चित्रण किया है।पापा शीर्षक से अपनी एक रचना में कवि कहता है--
      मेरी उम्मीद और विश्वास की पहचान हैं पापा,
      हैं  सागर से बहुत गहरे, मेरे अरमान हैं पापा।
इन पंक्तियों में निहित पिता के प्रति सम्मान और आस्था का भाव कवि के उच्च संस्कारों को दर्शाता है।कवि की अधिकांश रचनाओं में सहज प्रवाह है जो आकर्षित करता है।एक स्थान पर नशा शीर्षक से नशे के दुष्परिणामों से आगाह करती ये पंक्तियाँ प्रभावशाली बन पड़ी हैं--
       जल गए कितने बसेरे इस नशे की आग से,
       हो गईं विधवा,सुहागिन इस नशे के राग से।
बेटियों को लेकर कवि के ह्रदय में असीम स्नेह और श्रद्धा का भाव है।बेटियों को समर्पित कई रचनाएँ संकलन में मौजूद हैं।बेटियों के प्रति उनकी श्रद्धा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस संकलन का नामकरण  उनकी बेटी ज्योति के नाम पर है।बेटियों को लेकर उनकी ये पंक्तियाँ देखिए--

          माँ-बाप का हर दर्द समझती हैं बेटियाँ,
          माँ-बाप के अनुसार ही चलती हैं बेटियाँ।
कवि ने अपनी रचनाओं में देशप्रेम, कृष्णजन्म,वसंत ऋतु,वर्षा तथा विभिन्न त्योहारों आदि का बड़ा मनोहारी और जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है।अपने एक देशभक्ति गीत में कवि कहता है-

         हम भारत माँ के रक्षक हैं हमें फ़र्ज़ निभाना आता है,
         धरती माँ के अहसानों का हमें क़र्ज़ चुकाना आता है।
ये पंक्तियाँ हमें बताती हैं कि कवि देश और धरती के प्रति अपने दायित्वों को कितनी गहराई से समझता है।वर्तमान युग के संचार साधनों जैसे मोबाइल और इंटरनेट आदि  पर भी कवि ने अपनी लेखनी चलाई है।एक रचना में नई पीढ़ी पर पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की अभिव्यक्ति देखिए--
           अजब हाल है इस पीढ़ी का तनिक नहीं शरमाते हैं,
           माता को मॉम बुलाकरके,पापा को डैड बुलाते हैं।
पुस्तक के प्रारंभ में कवि की अधिकांश रचनाएँ भावना प्रधान हैं जिनको किसी विधा विशेष के अंतर्गत वर्गीकृत नहीं किया गया है।इन सभी रचनाओं का भाव पक्ष निःसंदेह प्रभावित करता है।अंत में कुछ रचनाओं को साधिकार गीत,दोहा,मुक्तक ,सायली तथा घनाक्षरी आदि विधाओं के अंतर्गत सृजित किया गया है जहाँ कवि ने यथासंभव शिल्प को साधने का सफल प्रयास किया है।
एक कवि को अपनी प्रथम कृति के प्रकाशन पर ऐसे ही गर्व का अनुभव होता है जैसे घर में पहली संतान के उत्पन्न होने पर होता है।अतः मैं आज रामरतन यादव जी और उनके परिवार की ख़ुशी को समझ सकता हूँ।
"काव्य-ज्योति" को जितना भी मैंने पढ़ा है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि रामरतन यादव जी में कवि के रूप में असीम संभावनाएँ विद्यमान हैं।इनके पास शब्द और भावों के साथ एक अच्छा तरन्नुम भी है जिसके कारण यह मंचों पर बहुत सफल हैं और रहेंगे।
जहाँ तक सीखने और सिखाने का प्रश्न है यह जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है।किसी भी प्रकार के सृजन में निखार और सुधार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है अतः रामरतन यादव जी की इस प्रथम कृति को भी इसी नज़रिए से देखा जाना चाहिए।निरंतर अभ्यास और सीखने की ललक किसी भी व्यक्ति को कहीं से कहीं पहुँचा सकती है।मुझे आशा है कि निकट भविष्य में श्री रामरतन यादव रतन जी की कथ्य और शिल्प की कसावट लिए अनेक और कृतियाँ मूल्यांकन हेतु साहित्यकारों के संमुख आएँगी।
मैं श्री यादव जी को उनकी इस प्रथम काव्य कृति के विमोचन के शुभ अवसर पर ह्रदय से बधाई देता हूँ और कामना करता हूँ कि यह अपने पारिवारिक दायित्वों और साहित्य सृजन कार्य में सामंजस्य रखते हुए जीवन में सफलता के नित नए आयाम स्थापित करें।

शुभ कामनाओं सहित।

ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार तथा समीक्षक
रामपुर-उ0प्र0
दिनाँक 24 अक्टूबर,2021

      

October 25, 2021

पुस्तक विमोचन समारोह

रविवार दिनाँक 24 अक्टूबर,2021 को खटीमा,उत्तराखंड में विनम्र स्वभाव के धनी कवि एवं अध्यापक  भाई श्री रामरतन यादव रतन जी के स्नेहिल आमंत्रण पर उनकी प्रथम काव्यकृति "काव्य-ज्योति" के विमोचन कार्यक्रम का सहभागी बनने का अवसर प्राप्त हुआ।कार्यक्रम बहुत ही अनुशासित व गरिमापूर्ण वातावरण में सम्पन्न हुआ।कार्यक्रम में मुझे भी काव्य पाठ तथा उनकी पुस्तक की समीक्षा करने का अवसर मिला।इस अवसर पर श्री रामरतन यादव जी तथा साहित्यिक संस्था काव्यधारा द्वारा मुझ अकिंचन को सम्मान प्रदान करने हेतु मैं  ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ।
कार्यक्रम में मेरे द्वारा पढ़ी गई एक ग़ज़ल--
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक    
कार्यक्रम में श्री रामरतन यादव जी और उनके परिजनों की आत्मीयता और आतिथ्य ने बहुत प्रभावित किया।भाई श्री रामरतन जी को शुभकामनाएँ सम्प्रेषित करते हुए अवसर के कुछ छाया चित्र साझा कर रहा हूँ।
                                           



          

October 22, 2021

नगर में अब वो नज़्ज़ारे नहीं हैं

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मुफ़ाईलुन   मुफ़ाईलुन    फ़ऊलुन
©️
खिले - से   चौक - चौबारे   नहीं   है,
नगर  में  अब   वो   नज़्ज़ारे  नहीं  हैं।

बचाते  हैं  जो   इन  अपराधियों  को,
वो  क्या  सत्ता  के  गलियारे  नहीं हैं।

गुमां   तोडेंगे   जल्दी    आसमां   का,
परिंदे     हौसला     हारे     नहीं    हैं ।

तलब  है   कामयाबी  की   सभी  को ,
हमीं   इस   दौड़   में   न्यारे   नहीं   हैं।
©️
बना  बैठा   है  जो  अब  शाह , उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।

हैं  जितनी  ख़्वाहिशें मन  में बशर के,
गगन   में   इतने   तो   तारे   नहीं   हैं।

नज़र  से  एक   ही,  देखो  न  सबको,
बुरे   कुछ   लोग   हैं   सारे   नहीं   है।

उन्हें   भाती   है   आवारा   मिज़ाजी,
कहें    कैसे    वो    बंजारे    नहीं   हैं।
-----©️ओंकार सिंह विवेक

October 15, 2021

फ़िक्र के पंछियों को उड़ाया बहुत

ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
फ़िक्र  के  पंछियों   को   उड़ाया  बहुत,
उसने  अपने सुख़न को सजाया बहुत।

हौसले   में   न   आई   ज़रा   भी  कमी,
मुश्किलों   ने   हमें   आज़माया   बहुत।

उसने रिश्तों का रक्खा नहीं कुछ भरम,
हमने अपनी  तरफ़  से  निभाया बहुत।
©️
लौ  दिये   ने  मुसलसल   सँभाले  रखी,
आँधियों   ने   अगरचे    डराया   बहुत।

हुस्न   कैसे   निखरता   नहीं   रात  का,
चाँद- तारों   ने  उसको  सजाया  बहुत।

मिट   गई   तीरगी  सारी  तनहाई   की,
उनकी यादों  से दिल जगमगाया बहुत।
                --- ©️ओंकार सिंह विवेक



October 10, 2021

आग से माली के रिश्ते हो गए

फ़ाइलातुन    फ़ाइलातुन   फ़ाइलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
आग   से   माली   के   रिश्ते   हो  गए,
बाग़  को  ख़तरे  ही   ख़तरे   हो  गए।

साथ   में   क्या   और  होने   को  रहा,
दुश्मनों  की   सफ़  में  अपने  हो गए।

कब  किसी  का लेते  थे अहसान हम,
क्या    करें    हालात   ऐसे    हो   गए।
©️
चाहिए  क्या और  मुफ़लिस बाप को,
लाडली    के   हाथ   पीले   हो    गए।

जिनको होना था अलग कुछ भीड़ से,
आज   वो   भी   भीड़  जैसे  हो   गए।
       
भाव   अपने  -  ग़ैर   सब   देने   लगे,
जेब   में   जब    चार   पैसे   हो  गए।          
       ----©️ ओंकार सिंह विवेक
              

September 29, 2021

रात का एक ही बजा है अभी





फ़ाइलातुन   फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️
रात   का   एक  ही  बजा है  अभी,
यार  घंटों  का    रतजगा  है  अभी।

हाथ    यूँ    रोज़    ही    मिलाते   हैं,
उनसे  पर  दिल नहीं मिला है अभी।

मुश्किलों को किसी  की जो समझो,
वक़्त  तुम  पर  कहाँ  पड़ा है अभी।
©️
सब  हैं  अनजान  उसकी चालों  से,
सबकी नज़रों  में  वो भला है अभी।

ज़िक्र  उनका   न   कीजिए  साहिब,
ज़ख़्म  दिल  का  मेरे  हरा  है अभी।

गुफ़्तगू    से    ये    साफ़   ज़ाहिर है,
आपको  हमसे  कुछ गिला है अभी।

और   उलझा   दिया   सियासत   ने,
हल  कहाँ  मसअला  हुआ है अभी।
     --  ©️ओंकार सिंह विवेक


          

September 20, 2021

कविसम्मेलन व साहित्यकार सम्मान समारोह

पल्लव काव्य मंच रामपुर,उ0प्र0 द्वारा कवि सम्मेलन
एवं साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन
**********************************

हिंदी पखवाड़े के अंतर्गत पल्लव काव्य मंच रामपुर द्वारा दिनाँक 19 सितंबर,2021 रविवार को मायादेवी धर्मशाला ज्वालानगर,रामपुर में एक भव्य कवि सम्मेलन एवं साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम के प्रथम सत्र में ऋषिकेश ,उत्तराखंड से पधारे संत बाबा कल्पनेश जी की अध्यक्षता में कवि सम्मेलन हुआ जिसके संचालन का अवसर मुझे प्राप्त हुआ।कवि सम्मेलन में उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड से पधारे पच्चीस साहित्यकारों ने मातृभाषा हिंदी और सामाजिक सरोकारों को लेकर  रचित अपनी सुंदर रचनाओं से उपस्थित गणमान्य लोगों का दिल जीत लिया।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में पहले "हिंदी- वर्तमान में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर दशा "  विषय पर एक परिचर्चा सम्पन्न हुई।परिचर्चा में हिंदी के तीन मूर्धन्य विद्वानों डॉ0 किश्वर सुल्ताना साहिबा, डॉ0 अरुण कुमार तथा डॉ0 कैलाश चंद्र दिवाकर द्वारा  बहुत ही  सार्थक  विचार व्यक्त किए गए।परिचर्चा के उपरांत चुने हुए स्थानीय एवं बाहर से पधारे साहित्यकारों को उनकी साहित्यिक सेवाओं हेतु अंगवस्त्र ,स्मृति चिन्ह व सम्मान पत्र प्रदान करके सम्मानित किया गया।इस सत्र में मुझे भी पल्लव काव्य मंच के व्हाट्सएप्प पटल पर आयोजित होने वाली ग़ज़ल कार्यशाला में समीक्षक के रूप में योगदान करने के लिए "पल्लव काव्य भारती सम्मान" देकर सम्मानित किया गया।इस सत्र का संचालन खटीमा ,उत्तराखंड के साहित्यकार भाई रामरतन यादव द्वारा किया गया।कार्यक्रम के अंत में पल्लव काव्य मंच के संस्थापक आदरणीय श्री शिवकुमार शर्मा चंदन द्वारा सभी आगंतुकों का मंच की और से आभार प्रकट किया गया।
इस अवसर के कुछ छाया चित्र संलग्न हैं-

September 11, 2021

याद फिर उनकी दिलाने पे तुली है दुनिया

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710

©️
याद  फिर  उनकी  दिलाने  पे  तुली है दुनिया,
चैन  इस  दिल  का  मिटाने पे तुली है दुनिया।

चोर  को   शाह  बताने   पे   तुली   है  दुनिया,
अपना  मेयार   घटाने   पे   तुली   है   दुनिया।

चंद  सिक्कों   के  लिए  बेचके ईमान - धरम,
"रात - दिन पाप  कमाने  पे  तुली  है दुनिया।"

अपने  आमाल  पे  तो  ग़ौर  नहीं करती कुछ,
बस   मेरे   ऐब   गिनाने  पे  तुली   है  दुनिया।

ख़ास  मतभेद   नहीं   उसके  मेरे  बीच, मगर-
सांप  रस्सी   का   बनाने   पे  तुली  है  दुनिया।

क्यों यूँ नफ़रत की हवाओं की हिमायत करके,
प्यार   के   दीप   बुझाने   पे   तुली  है  दुनिया।
             ---©️ ओंकार सिंह विवेक


August 23, 2021

सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
  ©️
हमें   सच  से  क्या  रग़बत  हो गई  है,
सभी  को  हमसे  दिक़्क़त  हो  गई है।

कभी होती  थी  जन सेवा का साधन ,
सियासत  अब   तिजारत  हो  गई  है।

हमें  लगता  है  कुछ  लोगों  की  जैसे,
उसूलों    से    अदावत    हो   गई   है।
©️
सहे   हैं    ज़ुल्म    इतने   आदमी   के,
नदी    की   पीर   पर्वत   हो   गई   है।

निकाला करते  हो  बस नुक़्स सब में,
तुम्हारी   कैसी   आदत   हो   गई   है।

हसद   रखते   हैं   जो   हमसे  हमेशा,
हमें   उनसे  भी  उल्फ़त   हो  गई  है।

हुए   क्या   हम   रिटायर   नौकरी  से,
मियाँ  फ़ुरसत  ही  फ़ुरसत  हो गई है।
           ---   ©️ओंकार सिंह विवेक

August 22, 2021

क्या बतलाएँ दिल को कैसा लगता है

ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
©️
क्या  बतलाएँ दिल को कैसा  लगता  है,
बदला-सा जब उनका लहजा लगता है।

रोज़  पुलाव  पकाओ आप ख़यालों के,
इसमे   कोई    पाई - पैसा   लगता   है।

मजबूरी  है  बेघर  की, वरना  किसको-
फुटपाथों  पर  सोना  अच्छा  लगता है।
©️
तरही   मिसरे   पर  इतनी  आसानी  से,
तुम ही बतलाओ क्या मिसरा लगता है।

आज  किसी ने की है  शान में गुस्ताख़ी,
मूड  हुज़ूर  का उखड़ा-उखड़ा लगता है।

चहरे   पर   मायूसी , आँखों   मे  दरिया,
तू भी मुझ-सा वक़्त का मारा लगता है।

बाल  भले  ही  पक जाएँ उसके,लेकिन-
माँ - बापू   को   बेटा  बच्चा  लगता  है।
             ----©️ओंकार सिंह विवेक

August 1, 2021

हाँ, जीवन नश्वर होता है

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️ 
हाँ , जीवन   नश्वर   होता   है,
मौत का फिर भी डर होता है।

शेर   नहीं   होते  हफ़्तों   तक,
ऐसा  भी    अक्सर   होता  है।

बारिश  लगती  है  दुश्मन-सी ,
टूटा    जब    छप्पर   होता  है।

उनका  लहजा  ऐसा   समझो ,
जैसे    इक   नश्तर   होता   है।

जो    घर   के   आदाब   चलेंगे,
दफ़्तर    कोई    घर   होता   है।

देख लियाअब हमने,क्या-क्या,
संसद    के   अंदर     होता   है।
--   ©️  ओंकार सिंह विवेक





July 25, 2021

गुलों में ताज़गी आए कहाँ से

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
दिनाँक- 24.07.2021

चित्र--गूगल से साभार
©️
चमन   है   रूबरू  पैहम    ख़िज़ाँ  से,
गुलों    में   ताज़गी   आए   कहाँ   से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
कहा  जाए   न   ऐसा  कुछ   ज़ुबाँ  से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 18, 2021

सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से

दोस्तो नमस्कार🙏🏻🙏🏻
यों तो सृष्टि में जो कुछ भी विद्यमान है वह सब कुछ
हर आदमी की नज़र से गुज़रता है परंतु एक कवि या 
साहित्यकार दुनिया की हर छोटी-बड़ी चीज़ को एक अलग 
ही नज़रिए से देखता है।इसी तथ्य को ध्यान में रखकर आप
मेरे द्वारा ग़ज़ल में पिरोए गए  गुलसिताँ, ख़िज़ाँ, आसमाँ,
ज़ुबाँ और माँ आदि शब्दों का आनंद लें--

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
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यूँ   ही   थोड़ी  गई   वो  गुलसिताँ   से,
लड़ी   है   जंग  फूलों  ने   ख़िज़ाँ    से।

धनी  समझे  थे  जिसको बात का हम,
लो  वो  भी  फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।

मज़ा  आएगा   थोड़ा  अब  सफ़र  का,
हुआ   है    रास्ता   मुश्किल   यहॉं   से।

कहीं   बरसा    नहीं    दो    बूँद   पानी,
कहीं   बरसी   है  आफ़त  आसमाँ  से।

हो  जिससे  और  को  तकलीफ़  कोई,
न  ऐसा  लफ़्ज़  इक  निकले  ज़ुबाँ से।

कभी   खिड़की   पे  आती  थी चिरैया,
सुना  करता  हूँ   मैं   यह  बात  माँ  से।
        ---©️ ओंकार सिंह विवेक

July 16, 2021

तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर


ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
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सभी   फ़ख़्र   करने   लगें  तीरगी  पर,
तो  गुज़रेगी क्या सोचिए  रौशनी पर।

सर-ए-आम ईमान  जब  बिक रहे हों,
तो कैसे भरोसा  करें  हम  किसी पर।

सुनाते   रहे    मंच    से    बस  लतीफ़े,
न आए वो आख़िर तलक शायरी पर।

अलग  दौर  था  वो,अलग था ज़माना,
सभी  नाज़  करते   थे जब दोस्ती पर।

न  रिश्वत  को  पैसे, न कोई सिफ़ारिश,
रखेगा  तुम्हें   कौन  फिर  नौकरी  पर।

किसी ने कभी उसकी पीड़ा न समझी,
सभी  ज़ुल्म  ढाते   रहे  बस  नदी  पर।

बहुत   लोग  थे  यूँ  तो  पूजा-भवन  में,
मगर ध्यान कितनों का था आरती पर?
          ---- ©️  ओंकार सिंह विवेक

July 15, 2021

माननीय अटल जी को समर्पित कुछ दोहे

अटल जी की स्मृति में कहे गए कुछ दोहे
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             ---©️  ओंकार सिंह विवेक
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 नैतिक  मूल्यों  का किया ,सदा मान-सम्मान।
 दिया अटल जी ने नहीं ,ओछा कभी बयान।।
🌷
 विश्व मंच  पर  शान  से , अपना  सीना  तान।
 अटल बिहारी ने  किया, हिंदी  का यशगान।।
🌷
 राजनीति  के  मंच  पर , छोड़ अनोखी  छाप।
 सब के दिल में बस गए,अटल बिहारी आप।।
🌷
 चलकर पथ पर सत्य के,किया जगत में नाम।
 अटल बिहारी आपको,शत-शत बार प्रणाम।।                           ।।
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              ------©️  ओंकार सिंह विवेक

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