December 4, 2021
माँ का आशीष फल गया होगा
December 1, 2021
आज कुछ दोहे यों भी
November 27, 2021
धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
सूचना क्या इलक्शन की जारी हुई,
धुर विरोधी दलों में भी यारी हुई।
दीन दुनिया से बिल्कुल ही अनजान थे,
घर से निकले तो कुछ जानकारी हुई।
आज निर्धन हुआ और निर्धन यहाँ,
जेब धनवान की और भारी हुई।
मुझपे होगा भी कैसे बला का असर,
माँ ने मेरी नज़र है उतारी हुई।
खेद इसका है गतिरोध टूटा नहीं,
बात उनसे निरंतर हमारी हुई।
--- ओंकार सिंह विवेक
(Copy right)
November 25, 2021
एक अनूठा प्रयोग : टैगोर काव्य गोष्ठी
November 22, 2021
माँ का आशीष फल गया होगा
दोस्तो हाज़िर है एक नई ग़ज़ल फिर से आपकी अदालत में
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फ़ाइलातुन मुफाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
©️
माँ का आशीष फल गया होगा,
गिर के बेटा सँभल गया होगा।
ख़्वाब में भी न था गुमां मुझको,
दोस्त इतना बदल गया होगा।
छत से दीदार कर लिया जाए,
चाँद कब का निकल गया होगा।
©️
सच बताऊँ तो जीत से मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।
आईना जो दिखा दिया मैंने,
बस यही उसको खल गया होगा।
जीतकर सबका एतबार 'विवेक',
चाल कोई वो चल गया होगा।
-- ©️ओंकार सिंह विवेक
November 17, 2021
आँसुओं की ख़ुद्दारी
ग़ज़ल-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
रंज - ख़ुशी के दावतनामे जाते हैं,
यूँ ही कब पलकों तक आँसू आते हैं।
कैसे कह दें उनको रागों का ज्ञाता,
रात ढले तक राग यमन जो गाते हैं।
वक़्त की गर्दिश करती है जो ज़ख़्म अता,
वक़्त की रहमत से वो भर भी जाते हैं।
©️
शुक्र अदा करना तो बनता है इनका,
हम जंगल - नदियों से जितना पाते हैं।
उनका क्या लेना - देना सच्चाई से,
वो तो केवल अफ़वाहें फैलाते हैं।
फैट-शुगर बढ़ने का ख़तरा क्या होगा,
हम निर्धन तो रूखी-सूखी खाते हैं।
--- ©️ ओंकार सिंह विवेक
November 11, 2021
"दर्द का अहसास"--एक समीक्षा
November 10, 2021
उम्र भर उपकार कर
शुभ संध्या🙏🙏
सभी ग़ज़ल प्रेमी साहित्य मनीषियों का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन ।
प्रस्तुत है मेरी बहुत आसान बह्र में कही गई एक ग़ज़ल
जिसमें अधिक से अधिक हिंदी शब्दों के प्रयोग का प्रयास
किया है।
अरकान-- फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
वज़्न -- 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2
🌷
हो सके जितना भी तुझसे उम्र भर उपकार कर,
बाँट कर दुख-दर्द बंदे हर किसी से प्यार कर।
🌷
छल-कपट के भाव करते हैं सदा मन का अहित,
हो तनिक यदि इनकी आहट बंद मन के द्वार कर।
🌷
जिसको सुनते ही ख़ुशी से सबके तन-मन खिल उठें,
ऐसी वाणी से सदा व्यक्तित्व का शृंगार कर।
🌷
विश्व के कल्याण की जिनसे प्रबल हो भावना,
उन विचारों का सदा मस्तिष्क में संचार कर।
🌷
पर्वतों को चीरकर जो बह रही है शान से,
प्रेरणा ले उस नदी से संकटों को पार कर।
🌷
नफ़रतों की चोट से इंसानियत घायल हुई,
ज़िंदगी इसकी बचे ऐसा कोई उपचार कर।
🌷
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वधिकार सुरक्षित)
November 8, 2021
शेरों में ढाल के
November 6, 2021
दर्द का अहसास
November 3, 2021
पुस्तक समीक्षा-- "दर्द का अहसास "
November 2, 2021
शुभ दीपावली
October 31, 2021
देशप्रेम
October 29, 2021
पुस्तक समीक्षा
October 25, 2021
पुस्तक विमोचन समारोह
October 22, 2021
नगर में अब वो नज़्ज़ारे नहीं हैं
October 15, 2021
फ़िक्र के पंछियों को उड़ाया बहुत
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
फ़िक्र के पंछियों को उड़ाया बहुत,
उसने अपने सुख़न को सजाया बहुत।
हौसले में न आई ज़रा भी कमी,
मुश्किलों ने हमें आज़माया बहुत।
उसने रिश्तों का रक्खा नहीं कुछ भरम,
हमने अपनी तरफ़ से निभाया बहुत।
©️
लौ दिये ने मुसलसल सँभाले रखी,
आँधियों ने अगरचे डराया बहुत।
हुस्न कैसे निखरता नहीं रात का,
चाँद- तारों ने उसको सजाया बहुत।
मिट गई तीरगी सारी तनहाई की,
उनकी यादों से दिल जगमगाया बहुत।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
October 10, 2021
आग से माली के रिश्ते हो गए
October 7, 2021
September 29, 2021
रात का एक ही बजा है अभी
September 20, 2021
कविसम्मेलन व साहित्यकार सम्मान समारोह
September 11, 2021
याद फिर उनकी दिलाने पे तुली है दुनिया
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
याद फिर उनकी दिलाने पे तुली है दुनिया,
चैन इस दिल का मिटाने पे तुली है दुनिया।
चोर को शाह बताने पे तुली है दुनिया,
अपना मेयार घटाने पे तुली है दुनिया।
चंद सिक्कों के लिए बेचके ईमान - धरम,
"रात - दिन पाप कमाने पे तुली है दुनिया।"
अपने आमाल पे तो ग़ौर नहीं करती कुछ,
बस मेरे ऐब गिनाने पे तुली है दुनिया।
ख़ास मतभेद नहीं उसके मेरे बीच, मगर-
सांप रस्सी का बनाने पे तुली है दुनिया।
क्यों यूँ नफ़रत की हवाओं की हिमायत करके,
प्यार के दीप बुझाने पे तुली है दुनिया।
---©️ ओंकार सिंह विवेक
August 29, 2021
August 23, 2021
सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
हमें सच से क्या रग़बत हो गई है,
सभी को हमसे दिक़्क़त हो गई है।
कभी होती थी जन सेवा का साधन ,
सियासत अब तिजारत हो गई है।
हमें लगता है कुछ लोगों की जैसे,
उसूलों से अदावत हो गई है।
©️
सहे हैं ज़ुल्म इतने आदमी के,
नदी की पीर पर्वत हो गई है।
निकाला करते हो बस नुक़्स सब में,
तुम्हारी कैसी आदत हो गई है।
हसद रखते हैं जो हमसे हमेशा,
हमें उनसे भी उल्फ़त हो गई है।
हुए क्या हम रिटायर नौकरी से,
मियाँ फ़ुरसत ही फ़ुरसत हो गई है।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
August 22, 2021
क्या बतलाएँ दिल को कैसा लगता है
August 1, 2021
हाँ, जीवन नश्वर होता है
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
हाँ , जीवन नश्वर होता है,
मौत का फिर भी डर होता है।
शेर नहीं होते हफ़्तों तक,
ऐसा भी अक्सर होता है।
बारिश लगती है दुश्मन-सी ,
टूटा जब छप्पर होता है।
उनका लहजा ऐसा समझो ,
जैसे इक नश्तर होता है।
जो घर के आदाब चलेंगे,
दफ़्तर कोई घर होता है।
देख लियाअब हमने,क्या-क्या,
संसद के अंदर होता है।
-- ©️ ओंकार सिंह विवेक
July 25, 2021
गुलों में ताज़गी आए कहाँ से
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
दिनाँक- 24.07.2021
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चमन है रूबरू पैहम ख़िज़ाँ से,
गुलों में ताज़गी आए कहाँ से।
धनी समझे थे जिसको बात का हम,
लो वो भी फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।
मज़ा आएगा थोड़ा अब सफ़र का,
हुआ है रास्ता मुश्किल यहॉं से।
कहीं बरसा नहीं दो बूँद पानी,
कहीं बरसी है आफ़त आसमाँ से।
हो जिससे और को तकलीफ़ कोई,
कहा जाए न ऐसा कुछ ज़ुबाँ से।
कभी खिड़की पे आती थी चिरैया,
सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से।
---©️ ओंकार सिंह विवेक
July 18, 2021
सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
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यूँ ही थोड़ी गई वो गुलसिताँ से,
लड़ी है जंग फूलों ने ख़िज़ाँ से।
धनी समझे थे जिसको बात का हम,
लो वो भी फिर गया अपनी ज़ुबाँ से।
मज़ा आएगा थोड़ा अब सफ़र का,
हुआ है रास्ता मुश्किल यहॉं से।
कहीं बरसा नहीं दो बूँद पानी,
कहीं बरसी है आफ़त आसमाँ से।
हो जिससे और को तकलीफ़ कोई,
न ऐसा लफ़्ज़ इक निकले ज़ुबाँ से।
कभी खिड़की पे आती थी चिरैया,
सुना करता हूँ मैं यह बात माँ से।
---©️ ओंकार सिंह विवेक
July 16, 2021
तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
©️
सभी फ़ख़्र करने लगें तीरगी पर,
तो गुज़रेगी क्या सोचिए रौशनी पर।
सर-ए-आम ईमान जब बिक रहे हों,
तो कैसे भरोसा करें हम किसी पर।
सुनाते रहे मंच से बस लतीफ़े,
न आए वो आख़िर तलक शायरी पर।
अलग दौर था वो,अलग था ज़माना,
सभी नाज़ करते थे जब दोस्ती पर।
न रिश्वत को पैसे, न कोई सिफ़ारिश,
रखेगा तुम्हें कौन फिर नौकरी पर।
किसी ने कभी उसकी पीड़ा न समझी,
सभी ज़ुल्म ढाते रहे बस नदी पर।
बहुत लोग थे यूँ तो पूजा-भवन में,
मगर ध्यान कितनों का था आरती पर?
---- ©️ ओंकार सिंह विवेक
July 15, 2021
माननीय अटल जी को समर्पित कुछ दोहे
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बहुुुत कम लोग ऐसे होते हैैं जिनको अपनी रुचि के अनुुुसार जॉब मिलता है।अक्सर देेखने में आता है कि लोगो को अपनी रुचि से मेल न खाते...
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शुभ प्रभात मित्रो 🌹🌹🙏🙏 संगठन में ही शक्ति निहित होती है यह बात हम बाल्यकाल से ही एक नीति कथा के माध्यम से जानते-पढ़ते और सीखते आ रहे हैं...