March 15, 2021
सदभाव रहेगा
March 10, 2021
खटकता है वो कोठी की नज़र में
March 8, 2021
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर
March 4, 2021
दर्द मज़लूम का
ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
💥
बदला रातों - रात उन्होंने पाला है ,
शायद जल्द इलक्शन आने वाला हैI
💥
झूठे मंसब पाते हैं दरबारों में,
और सच्चों को होता देश-निकाला है।
💥
भूखे पेट जो सोते हैं फुटपाथों पर,
हमने उनका दर्द ग़ज़ल में ढाला है।
💥
सोचो घर में बेटी के जज़्बात भला,
माँ से बेहतर कौन समझने वाला है।
💥
यार उसूल परस्ती और सियासत में,
तुमने ख़ुद को किस मुश्किल में डाला है।
💥
नीचे तक पूरी इमदाद नहीं पहुँची,
ऊपर आख़िर कुछ तो गड़बड़झाला है।
💥
-----ओंकार सिंह विवेक
March 2, 2021
ग़ज़ल प्रतियोगिता परिणाम
February 28, 2021
गूगल-ज्ञानी
February 27, 2021
"अभिनंदन ऋतुराज" - संगीत के बहाने
February 23, 2021
मेल-मिलाप कराने का माहौल बनाते हैं
February 22, 2021
अपनी हिंदी और ऋतुराज वसंत के बहाने
February 20, 2021
दर्द का अहसास
February 18, 2021
February 11, 2021
February 7, 2021
February 1, 2021
January 30, 2021
January 23, 2021
January 20, 2021
January 15, 2021
January 12, 2021
"हस्ताक्षर" की काव्य गोष्ठी
January 7, 2021
January 6, 2021
नया साल होगा
January 2, 2021
December 24, 2020
स्व0श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी,स्व0श्री मदन मोहन मालवीय जी एवं स्व0 श्री धर्मवीर भारती जी को श्रद्धा सुमन
December 22, 2020
December 18, 2020
हैरानी से
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
दूर है वो रिश्वत के दाना - पानी से,
देख रहे हैं सब उसको हैरानी से।
यार बड़ों के दिल का दुखना लाज़िम है,
नस्ले - नौ की पैहम नाफ़रमानी से।
कुछ करना इतना आसान नहीं होता,
कह देते हैं सब जितनी आसानी से।
मुझको घर में मात-पिता तो लगते हैं,
राजभवन में बैठे राजा - रानी से।
रखनी पड़ती है लहजे में नरमी भी,
काम नहीं होते सब सख़्त ज़ुबानी से।
ज़ेहन को हरदम कसरत करनी पड़ती है,
शेर नहीं होते इतनी आसानी से।
होना है सफ़ में शामिल तैराकों की,
और उन्हें डर भी लगता है पानी से।
---–-ओंकार सिंह विवेक
https://vivekoks.blogspot.com/?m=1
December 14, 2020
सब्र का सरमाया
ग़ज़ल**ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710
सब्र करना जाने क्यों इंसान को आया नहीं,
जबकि इससे बढ़के जग में कोई सरमाया नहीं।
आदमी ने नभ के बेशक चाँद-तारे छू लिए,
पर ज़मीं पर आज भी रहना उसे आया नहीं।
धीरे - धीरे गाँव भी सब शहर जैसे हो गए,
अब वहाँ भी आँगनों में नीम की छाया नहीं।
लोग कहते हों भले ही चापलूसी को हुनर,
पर कभी उसको हुनर हमने तो बतलाया नहीं।
ज़हर नफ़रत का बहुत उगला गया तक़रीर में,
शुक्र समझो शहर का माहौल गरमाया नहीं।
देखलीं करके उन्होंने अपनी सारी कोशिशें,
झूठ का पर उनके हम पर रंग चढ़ पाया नहीं।
----ओंकार सिंह विवेक
www.vivekoks.blogspot.com
December 8, 2020
November 29, 2020
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