ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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दूर है वो रिश्वत के दाना - पानी से,
देख रहे हैं सब उसको हैरानी से।
यार बड़ों के दिल का दुखना लाज़िम है,
नस्ले - नौ की पैहम नाफ़रमानी से।
कुछ करना इतना आसान नहीं होता,
कह देते हैं सब जितनी आसानी से।
मुझको घर में मात-पिता तो लगते हैं,
राजभवन में बैठे राजा - रानी से।
रखनी पड़ती है लहजे में नरमी भी,
काम नहीं होते सब सख़्त ज़ुबानी से।
ज़ेहन को हरदम कसरत करनी पड़ती है,
शेर नहीं होते इतनी आसानी से।
होना है सफ़ में शामिल तैराकों की,
और उन्हें डर भी लगता है पानी से।
---–-ओंकार सिंह विवेक
https://vivekoks.blogspot.com/?m=1
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (20-12-2020) को "जीवन का अनमोल उपहार" (चर्चा अंक- 3921) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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उम्दा प्रस्तुति ।
ReplyDeleteमुझको घर में मात-पिता तो लगते हैं,
ReplyDeleteराजभवन में बैठे राजा - रानी से।
बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना...
भावपूर्ण अभिव्यक्ति..।
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