December 14, 2020

सब्र का सरमाया

ग़ज़ल**ओंकार सिंह विवेक
  मोबाइल 9897214710

सब्र  करना  जाने  क्यों  इंसान  को  आया  नहीं,
जबकि इससे बढ़के जग में कोई सरमाया नहीं।

आदमी  ने  नभ  के  बेशक  चाँद-तारे  छू  लिए,
पर  ज़मीं  पर  आज  भी रहना उसे आया नहीं।

धीरे - धीरे  गाँव   भी  सब  शहर  जैसे  हो  गए,
अब  वहाँ  भी  आँगनों  में नीम  की छाया नहीं।

लोग  कहते   हों  भले  ही  चापलूसी  को  हुनर,
पर  कभी उसको हुनर हमने तो बतलाया नहीं।

ज़हर  नफ़रत  का  बहुत उगला गया तक़रीर में,
शुक्र  समझो  शहर  का  माहौल  गरमाया नहीं।

देखलीं  करके   उन्होंने  अपनी  सारी  कोशिशें,
झूठ  का  पर  उनके हम पर रंग चढ़ पाया नहीं।
                                  ----ओंकार सिंह विवेक

www.vivekoks.blogspot.com

No comments:

Post a Comment

Featured Post

आज एक सामयिक नवगीत !

सुप्रभात आदरणीय मित्रो 🌹 🌹 🙏🙏 धीरे-धीरे सर्दी ने अपने तेवर दिखाने प्रारंभ कर दिए हैं। मौसम के अनुसार चिंतन ने उड़ान भरी तो एक नवगीत का स...