ग़ज़ल**ओंकार सिंह विवेक
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सब्र करना जाने क्यों इंसान को आया नहीं,
जबकि इससे बढ़के जग में कोई सरमाया नहीं।
आदमी ने नभ के बेशक चाँद-तारे छू लिए,
पर ज़मीं पर आज भी रहना उसे आया नहीं।
धीरे - धीरे गाँव भी सब शहर जैसे हो गए,
अब वहाँ भी आँगनों में नीम की छाया नहीं।
लोग कहते हों भले ही चापलूसी को हुनर,
पर कभी उसको हुनर हमने तो बतलाया नहीं।
ज़हर नफ़रत का बहुत उगला गया तक़रीर में,
शुक्र समझो शहर का माहौल गरमाया नहीं।
देखलीं करके उन्होंने अपनी सारी कोशिशें,
झूठ का पर उनके हम पर रंग चढ़ पाया नहीं।
----ओंकार सिंह विवेक
www.vivekoks.blogspot.com
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