ग़ज़ल-ओंकार सिंह विवेक
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बदला रातों - रात उन्होंने पाला है ,
शायद जल्द इलक्शन आने वाला हैI
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झूठे मंसब पाते हैं दरबारों में,
और सच्चों को होता देश-निकाला है।
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भूखे पेट जो सोते हैं फुटपाथों पर,
हमने उनका दर्द ग़ज़ल में ढाला है।
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सोचो घर में बेटी के जज़्बात भला,
माँ से बेहतर कौन समझने वाला है।
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यार उसूल परस्ती और सियासत में,
तुमने ख़ुद को किस मुश्किल में डाला है।
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नीचे तक पूरी इमदाद नहीं पहुँची,
ऊपर आख़िर कुछ तो गड़बड़झाला है।
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-----ओंकार सिंह विवेक
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