March 25, 2022

हाँ, यह सच है

                 हाँ, यह सच है
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                       --- ओंकार सिंह विवेक

यह कहावत बिल्कुल सत्य है कि सच कड़वा होता है।पर सच की कड़वाहट अपने अंदर मिठास की अनंत संभावनाएँ सँजोए हुए होती है।अतः किसी भी क़ीमत पर सच से मुँह मोड़ना या उसे झुठलाने का प्रयास ख़ुद हमारी ही प्रगति का रास्ता रोकता है।सच कितना भी विद्रूप क्यों न हो उसे स्वीकार कर उसकी तह तक जाकर एक नवीन चिंतन के बाद ही हम अपनी भलाई के बारे में सोच सकते हैं।

ख़ैर छोड़िए --इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा फिर कभी सही।
आज अपने आसपास और जीवन में घटित हो रहे विरोधाभासों पर कुछ बात करते हैं और इन्हीं सरोकारों से जुड़ी शायरी का भी आनंद लेते हैं।
आम आदमी हमेशा ही ज़िंदगी की जद्दोजहद में बिखरा-बिखरा और थका-सा नज़र आता है।एक तरफ़ तो आर्थिक गतिविधियों की शिथिलता के चलते उसके धंधे पर मंदी की भयानक मार पड़ती रहती है ,ऊपर से उस पर चढ़ा साहूकार का क़र्ज़ा उसकी नींदें उड़ाए रहता है।आम आदमी की इसी कैफ़ियत को मैंने अपने शेर में कुछ उस तरह ढाला है--       
        एक    तो     मंदा    ये    कारोबार   का,
       और   उस    पर    क़र्ज़   साहूकार  का।

ऐसी स्थिति से पार पाने के लिए व्यक्ति और निज़ाम दोनों को ही गंभीरता से सोचना चाहिए।सरकार और शासन को चाहिए कि नीतियाँ कुछ उस तरह बनें या परिवर्तित हों कि आम आदमी को अपने धंधे तथा जीविका को चलाने के लिए मंदी की मार कम से कम झेलनी पड़े।आख़िर आम और मध्यम तबक़ा ही समाज की रीढ़ होता है।दूसरी तरफ आम आदमी को भी चाहिए कि वह अपनी कारोबारी और घरेलू ज़रूरतों को इस प्रकार नियोजित करे कि उसकी सभी आवश्यक  गतिविधियां/व्यवसाय सुचारु रह सकें।
आज निरंतर बढ़ती महँगाई के कारण आम आदमी की आमदनी के साधन तो निरंतर सीमित होते जा रहे हैं परंतु घर-परिवार का खर्च सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा है।इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे परिवार के सद्स्यों की संख्या में वृद्धि, शिक्षा और शादी समारोह आदि पर होने वाला व्यय आदि आदि---।

           आय   के   साधन   तो  सीमित  ही  रहे,
           ख़र्च   पर   बढ़ता   गया   परिवार   का।

ऐसी परिस्थितियाँ  भी आदमी को तोड़कर रख देती हैं जब आमदनी बहुत सीमित हो और पारिवारिक दायित्व दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जाएँ।आदमी दिन-रात ऐसी परिस्थिति से निकलने के लिए सोचता रहता पर कोई उपाय दिखाई नहीं पड़ता।यहाँ भी शासन और व्यक्ति की स्वयं की सूझबूझ व युक्ति दोनों ही सामूहिक रूप से निदान प्रस्तुत कर सकती हैं।राज्य की नीतियाँ ऐसी हों कि आम आदमी का काम धंधा चलता रहे और उसकी न्यूनतम आय की राह अवरुद्ध न हो।विपरीत परिस्थितियों में उसे वैकल्पिक संसाधन राज्य द्वारा उपलब्ध कराए जाएँ ताकि वह घर-परिवार को चलाने में समर्थ हो सके। विपरीत परिस्थितियों से गुज़र रहे व्यक्ति का स्वयं का भी यह दायित्व बनता है कि वह इन चुनौतियों से निपटने के लिए अपने परिवार को नियोजित करे,ग़ैर ज़रूरी खर्चों में कटौती करे और संकट से उबरने के लिए अपने हुनर,कौशल और चातुर्य से वैकल्पिक मार्ग तलाश करे।ख़ाली सरकार या शासन प्रशासन को ही सब बातों के लिए ज़िम्मेदार तथा दोषी ठहराना भी अपनी जिम्मेदारियों से भागना ही कहलाएगा।
थोड़ा विषयांतर हो रहा है परंतु एक और बात पर चर्चा करना ज़रूरी समझता हूँ।आज विकास की अंधी दौड़ और ग्लोबलाइजेशन के इस युग में भौतिक सुख-सुविधाएँ तो बढ़ी हैं पर हम अपनी मूल सभ्यता और संस्कारों से बहुत दूर हो गए है।सिद्धांतों से पलायन और नैतिक मूल्यों का समाज में निरंतर ह्रास देखने को मिल रहा है।नई पीढ़ी  माता- पिता और बड़ों के सम्मान के प्रति इतनी जागरूक और प्रतिबद्ध नज़र नहीं आती जो चिंताजनक है। वे माता-पिता जो अपने बच्चों की ज़िंदगी सँवारने में अपनी ज़िंदगी को होम  कर  देते हैं ,जीवन के आख़िरी चरण में अपने बच्चों की उपेक्षा सहने को अभिशप्त हुए जा रहे हैं।यह दशा ह्रदय को बहुत विचलित करती है।जिन माँ बाप ने हमारी ज़िंदगी सँवारने में अपनी सारी जिंदगी खपा दी हो क्या उनके उपकारों का कभी मोल चुकाया जा सकता है? उत्तर है नहीं-नहीं-कभी नहीं।इसी कथ्य को लेकर यह शेर हुआ--
                ऋण  चुका  सकता  नहीं  कोई 'विवेक',
                उम्र भर   माँ - बाप   के   उपकार  का।
दोस्तो आइए अपनी जड़ों की और लौटें।अपने मूल्यों और संस्कारों का संरक्षण करें और माता-पिता को वह  सम्मान देकर जिसके वे हक़दार हैं अपने जीवन को सार्थक करें  🙏,🙏🌷🌷

लेख के सभी चित्र गूगल से साभार प्राप्त किए गए हैं।
लीजिए अब मेरी वह ग़ज़ल पूरी पढ़िए जिसके बहाने यह लेख पूरा हो सका।

धन्यवाद🙏🙏
ओंकार सिंह विवेक

ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
©️ 
🌹
 एक    तो     मंदा    ये    कारोबार   का,
 और   उस    पर    क़र्ज़   साहूकार  का।
🌹
 आय   के   साधन   तो  सीमित  ही  रहे,
 ख़र्च   पर   बढ़ता   गया   परिवार   का।
🌹
 हम जिसे  समझे   मुख़ालिफ़  का किया,
 काम  वो   निकला     हमारे   यार   का।
🌹
 आजकल  देता  हो   जो   सच्ची  ख़बर,
 नाम  बतलाओ   तो  उस  अख़बार का।
🌹
 जंग   क्या   जीतेंगे   वो   सोचो , जिन्हें-
 जंग    से   पहले   ही  डर  हो  हार  का।
🌹
 फिर   किनारे   तोड़ने   पर   तुल    गई,
 नाश  हो  ज़ालिम  नदी   की  धार  का।
🌹
 ऋण  चुका  सकता  नहीं  कोई 'विवेक',
 उम्र भर   माँ - बाप   के   उपकार  का।
🌹  
    --- ©️ ओंकार सिंह विवेक
       सर्वाधिकार पूर्णतयः सुरक्षित
    
    
      

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर आलेख और गजल , सुन्दर सन्देश। जय श्री राधे बन्धु।

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