मित्रो शुभ प्रभात🙏🙏 सभी को रंगोत्सव होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएँ
आधुनिक दौर में प्रगति या ग्लोबलाइजेशन के नाम पर कुछ बातें ठीक हो रहीं हैं तो कुछ ग़लत भी।आज विज्ञान ने नगरों ,प्रदेशों और देशों की दूरियाँ मिटा दी हैं।आदमी चाय भारत में पीता है, लंच इंग्लैंड में करता है उसी दिन डिनर अमरीका में।यह सब विज्ञान की प्रगति के कारण ही संभव हो सका है।हवाई यात्रा जैसे साधनों के चलते दूरियों का कोई अर्थ नहीं रह गया है।लोग एक-दूसरे की सभ्यता और संस्कृति से परिचित हो रहे हैं।युवा दूर देशों में जाकर अच्छी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।यहाँ तक तो ठीक है परंतु दिक़्क़त यह है कि लोग अपनी जड़ों से भी कटते जा रहे हैं।नई पीढ़ी अपनी सभ्यता और संस्कार भूलती जा रही है।धन-दौलत के बढ़ने से एक आदमी दूसरे को मान सम्मान देना भूल रहा है,अहंकार की भावना बढ़ रही है।आदमी चेहरे पर मुखौटा लगाने और औपचारिक होने में स्वयं को स्मार्ट समझने लगा है।विकास की अंधी दौड़ और अनावश्यक भौतिक संसाधन जुटाने के चक्कर में मानव प्रकृति के मूल स्वरूप से भी निरंतर छेड़-छाड़ कर रहा है।ऐसी स्थितियाँ मानव अस्तित्व के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं।
आइए चिंतन करें और प्रण लें कि विकास की दौड़ में हम कभी अपनी सभ्यता और संस्कार नहीं भूलेंगे,प्रकृति से अनावश्यक छेड़- छाड़ करने से बाज़ आएँगे और कभी इंसानियत और मानवीय मूल्यों का पतन नहीं होने देंगे।
लीजिए हाज़िर है मेरी नई ग़ज़ल जिसमें ऐसी ही कुछ बातों को शेरो में पिरोने का प्रयास किया है।ब्लॉग पर आकर कृपया प्रतिक्रिया अवश्य दीजिए।
२१२२ १२१२ २२/११२
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
©️
दोस्तों को जो आज़मा बैठे,
अपनी ही मुश्किलें बढ़ा बैठे।
कब सज़ा होगी उन अमीरों को,
हक़ ग़रीबों का जो दबा बैठे।
आपको कैसे हुक्मरानी दें,
आप तो साख ही गँवा बैठे।
©️
यार हमने तो दिल-लगी की थी,
आप दिल से उसे लगा बैठे।
क्या हुआ दौर-ए- नौ के बच्चों को,
अपनी तहज़ीब ही भुला बैठे।
वज़्न ही कुछ न दें जो औरों को,
ऐसे लोगों में कोई क्या बैठे।
कितने ही पंछियों का डेरा था,
आप जिस पेड़ को गिरा बैठे।
--- ©️ ओंकार सिंह विवेक
No comments:
Post a Comment