वक़्त हो चला है कि आपसे कुछ गुफ़्तगू की जाए।मन तो व्यथित और उद्वेलित है ही रूस और यूक्रेन युद्ध को लेकर पर क्या किया जाए इन्हीं हालात के बीच जब तक भी सांसें इजाज़त देती हैं जीना तो है ही।
मैं सोच रहा था कि हमारे दैनिक जीवन में क्या -क्या अप्रत्याशित घटता रहता है इस पर कुछ बात करूँ।सुब्ह उठते ही हम सोचते हैं कि हमारा आज का दिन अच्छा जाए,धन हासिल हो ,तरक़्क़ी होने की ख़बर मिले या कोई पुराना दोस्त मिलने आ जाए---आदि आदि।
कभी -कभी हमारी सोची और चाही हुई बातें हो भी जाती हैं और कई बार बातें उलट भी हो जाती हैं।हम नदी की तरफ़ जाते हैं इस उम्मीद के साथ कि वह जल से लबालब मिलेगी,देखकर मन को अच्छा लगेगा लेकिन नदी हमारी कल्पना के विपरीत सूखी हुई मिलती है।कभी किसी मुद्दे पर कोई बैठक होती है तो मन में यह आस लेकर बैठते हैं कि काश! इस मुद्दे पर सब एक राय हो जाएँ पर ऐसा नहीं होता।जंगल जाने का मन होता है और मन में यह भाव होता है कि क्या हरा-भरा जंगल देखने को मिलेगा पर जाकर देखते हैं तो जंगल को कराहता हुआ पाते हैं।पेड़ कटे हुए,सूखे हुए तथा अधमरी हालत में मिलते हैं जिन्हें देखकर मन दुखी हो उठता है।
कभी-कभी इसके विपरीत भी होता है ।अचानक कोई पुराना दोस्त घर आ जाता है जिसके यों अचानक आने के बारे में कभी सोचा भी न था--मन बहुत ख़ुश हो जाता है। आदमी अभ्यर्थियों की लंबी सूची और और इंटरव्यू में अपनी परफॉर्मेन्स को देखते हुए प्रमोशन की आस छोड़ चुका होता है पर अचानक ख़बर मिलती है कि उसे तरक़्क़ी मिल गई है।इस अप्रत्याशित ख़ुशी से आदमी फूले नहीं समाता।ग़रज़ यह कि हर आदमी का जीवन तमाम विरोधाभासों और संशयों के बीच ही झूलता-झूलता अंजाम को पहुँच जाता है।
इन बातों का उल्लेख करने का सिर्फ़ यही मक़सद है कि हम इस बात को स्वीकार करके चलें कि सुख-दुख,प्रत्याशित-अप्रत्याशित और अच्छा-बुरा जीवन तथा दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं और इनसे ताल-मेल बैठाकर जीने में ही जीवन का असली सुख छिपा हुआ है।जीवन या दिनचर्या में कभी अपने हिसाब से सब कुछ घटित नहीं हो सकता।
ज़ियादा गंभीर न होकर आइए जीवन की तल्ख़ सच्चाइयां बयान करती एक ग़ज़ल से रूबरू होते हैं--
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह 'विवेक'
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मिला दरिया भी प्यासा देखने को,
मिलेगा और क्या-क्या देखने को।
किसी मुद्दे पे सब ही एकमत हों,
कहाँ मिलता है ऐसा देखने को।
तो गुजरेंगे अजूबे भी नज़र से,
अगर निकलोगे दुनिया देखने को।
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किसी के पास है अंबार धन का,
कोई तरसा है पैसा देखने को।
सुना आँधी को पेड़ों से ये कहते,
तरस जाओगे पत्ता देखने को।
बना था ज़ेहन में कुछ अक्स वन का,
मिला कुछ और नक़्शा देखने को।
नज़र दहलीज़ से कैसे हटा लूँ,
कहा है उसने रस्ता देखने को।
--- ©️ ओंकार सिंह 'विवेक'
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार
अति सुन्दर!वाह वाह!
ReplyDeleteमाहिर साहब हार्दिक आभार
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