पर गहराई से पिछले तमाम चुनावों का अगर विश्लेषण करें तो हम पाएँगे की लगभग देश की आधी आबादी तो अपने वोट का प्रयोग करने में रुचि ले ही नहीं रही है।पिछले कई चुनावों के ट्रेंड तो यही बताते हैं कि मतदान का औसत प्रतिशत 60 से 65 ही रहता है।इस 60 से 65 प्रतिशत में से जिस दल या पार्टी को 30 प्रतिशत भी वोट मिल जाते हैं वह सरकार बनाने में सक्षम हो जाती है।इसे यह तो कदापि नहीं कहा जा सकता कि ऐसी सरकार अधिकांश आबादी की सहमति का प्रतिनिधित्व करती है।
व्यवस्था में कुछ इस प्रकार सुधार की आवश्यकता महसूस होती है कि अधिकतम आबादी जो वोट देने की अर्हता रखती है आवश्यक रूप से मतदान करे ताकि जनप्रतिनिधियों की सही लोकप्रियता का अनुमान हो सके ।इसके लिए मतदाताओं की वोट डालने की कोई वैधानिक बाध्यता भी निर्धारित की जानी चाहिए ताकि लोकतंत्र में इस चुनाव पद्धति का न्यायसंगत मूल्यांकन हो सके और इसकी प्रासंगिकता बनी रहे।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (06 मार्च 2022 ) को 'ये दरिया-ए गंग-औ-जमुन बेच देंगे' (चर्चा अंक 4361) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी शुक्रिया
Deleteआदरणीय ओंकार सिंह जी, आपने लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में व्याप्त एक त्रुटि की ओर इंगित किया है। प्रजातंत्र में प्रतिनिधियों का चुनाव सभी के प्रतिभागिता द्वारा हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए चुनाव में काफी सुधार के लिए जरूरत है। सबसे पहके तो यह भी आवश्यक है कि मतदाताओं को सही मायने में शिक्षित होना चाहिए। दागी नेताओं की भी एक समस्या है। बेकार कानूनों को हटाना जरूरी है। बहुत सी बातें हैं।
ReplyDeleteजी आदरणीय सहमत हूँ आपसे🙏🙏
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