मार्च,2022 का पहला दिन है।मौसम में परिवर्तन आने से अच्छा महसूस हो रहा है।मदमाता फागुन सबको मस्त कर रहा है।पीली सरसों,टेसू के फूल ,रंगों की बौछार और गुझियों की महक---न जाने किन-किन चीज़ों में खोकर यह मन मस्त हुआ जाता है।
इसी मस्त मूड में यथार्थ को स्पर्श करती ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले--
आज एक बहुत ही आसान बह्र
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ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
फ़ेलुन ×4
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खेतों की जो हरियाली है,
हरिया के मुख की लाली है।
लूट रहे हैं नित गुलशन को,
जिनके ज़िम्मे रखवाली है।
आस है इन सूखी फ़सलों की,
नभ मे जो बदली काली है।
दे जो सबको अन्न उगाकर,
उसकी ही रीती थाली है।
याद कभी बसती थी उनकी,
अब मन का आँगन ख़ाली है।
पूछो हर्ष धनी से इसका,
निर्धन की क्या दीवाली है।
फँस जाती है चाल में उनकी,
जनता भी भोली -भाली है।
---ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
चित्र--गूगल से साभार
चित्र--गूगल से साभार
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ReplyDeleteआदरणीय बेहद शुक्रगुज़ार हूँ आपका।
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