May 30, 2022

समीक्षा के बहाने

सभी साहित्य मनीषियों को नमस्कार 🙏🙏
साथियो कविता/शायरी तो हम करते ही रहते हैं लेकिन
कभी-कभी विषयगत सार्थक चर्चा भी होनी चाहिए।इसी
विचार को केंद्र में रखकर आज मैं अपनी कोई ग़ज़ल पोस्ट
न करते हुए एक बड़े साहित्यकार स्मृतिशेष पंडित कृष्णानंद
चौबे जी की एक ग़ज़ल उनके शिष्य आदरणीय अंसार
क़म्बरी जी की की वाल से लेकर साभार लेकर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
इस ग़ज़ल को पोस्ट करने के बहाने कुछ बिंदुओं पर सार्थक
चर्चा हो जाएगी ,ऐसा मुझे लगता है--
--ग़ज़ल केवल उर्दू भाषा  के भारी भरकम शब्दों का प्रयोग करके ही प्रभावशाली हो सकती है ,आदरणीय कृष्णानंद चौबे जी की यह ग़ज़ल इस भ्रांत धारणा को ध्वस्त करती है।इस ग़ज़ल के हर  शेर में  भरपूर शेरियत विद्यमान है।बिंब/प्रतीक/व्यंजना सब कुछ मौजूद है रचना में।
-- यह हर क्षेत्र में नवीन प्रयोगों का युग है।वैश्वीकरण की अवधारणा सर्वमान्य हो चुकी है।अतः कुछ  मर्यादाओं का पालन करते हुए साहित्य में भी प्रयोगधर्मी हुआ जा सकता है और लोग हो भी रहे हैं । आजकल हाइकू --आदि और भी न जाने कौन-कौन सी विदेशी भाषाओं की साहित्यिक विधाओं का हिंदी देवनागरी में साहित्यकार सृजन कर रहे हैं ऐसा ही ग़ज़ल विधा के साथ भी है।
-- हाँ, हमें यह बात अवश्य ध्यान रखनी चाहिए कि हम किसी श्रेष्ठ रचनाकार की रचना से सृजन की प्रेरणा तो लें पर हूबहू उसकी रचना की पूरी पंक्ति या भाव को लगभग उन्हीं शब्दों में उतारकर अपनी रचना में न रख दें,यह नैतिकता और साहित्य की शुचिता के विपरीत है।इससे कभी कोई रचनाकार श्रेष्ठ नहीं हो सकता।किसी रचनाकार की रचनाओं के विचार और भावों से प्रभावित होकर उन्हें अपने शब्दों में ढालना और हूबहू अपनी रचना में रख देना दोनों अलग-अलग बातें हैं।
--एक क़िस्सा मुझे प्रसंगवश याद आ गया।हाल ही में सोशल मीडिया के एक साहित्यिक पटल पर एक साहित्यकार(नाम बताना उचित नहीं ) ने अपनी ग़ज़ल वहाँ चल रही ग़ज़ल प्रतियोगिता में सहभागिता करते हुए पोस्ट की।इत्तेफ़ाक़ से उसे प्रथम पुरस्कार हेतु चुन लिया गया।इसके बाद एक अन्य प्रतिष्ठित साहित्यकार ने पुष्ट प्रमाणों के साथ दावा किया की यह ग़ज़ल तो उनकी है।तथ्य स्पष्ट होने पर पहले अपने नाम से रचना पोस्ट करने वाले साहित्यकार ने यह कहते हुए मुआफ़ी माँगी की उन्होंने यह रचना अपने लिए किसी और साहित्यकार से लिखवाई थी और उन्हें नहीं मालूम था कि जिनसे रचना  लिखवाई गई थी उन्होंने भी उसे कहीं और से हासिल किया था।आज सोशल मीडिया पर साहित्यिक चोरी और और कट पेस्ट का धंधा इस स्तर पर पहुँच गया है।
--यह सब चर्चा इसलिए ज़रूरी लगी क्योंकि आज संचार क्रांति/सोशल मीडिया के युग में तेज़ी से साहित्यकारों की एक ऐसी पीढ़ी उभरती देखी जा रही है जिसे बहुत जल्दी ही वाह वाह वाह! की टिप्पणियाँ चाहिए अपनी रचनाओं पर।वे आलोचनात्मक प्रतिक्रियाओं को सहजता से नहीं लेते।ऐसे रचनाकारों को  ये मानक तय करने होंगे कि भविष्य में वे कैसा रचनाकार बनना चाहते हैं।एक समीक्षक होने के अपने अनुभव के आधार पर मैं समीक्षा हेतु पटल पर रचनाएँ पोस्ट करने वाले साहित्यकारों से अनुरोध करना चाहूँगा कि--
--वे रचना के ऊपर विधा और मात्रा विधान
आदि स्पष्ट रूप से अंकित किया करें ताकि समझने और समझाने में आसानी हो।
--अपनी रचना पर की गई समीक्षात्मक/आलोचनात्मक टिप्पणी को बार-बार पढ़ना चाहिए।समीक्षक की कोशिश होती है कि किसी ठोस तथ्य के आधार पर ही रचना पर टिप्पणी की जाए।
--समीक्षक के लिए यह कदापि संभव नहीं है कि रचना पर प्रशंसात्मक टिप्पणी तो पटल पर सार्वजनिक रूप से करे और समीक्षात्मक विवरण रचनाकार के इनबॉक्स में जाकर पोस्ट करे।
--समीक्षा एक श्रमसाध्य कार्य है।प्रोत्साहन हेतु रचनाकार की रचना पर वाह वाह ! की टिप्पणी का भी महत्व होता है पर समीक्षक के लिए टिप्पणी हेतु यही एकमात्र पैमाना नहीं होता।समीक्षक रचनाकार को सिर्फ़ इशारों में थोड़ी बहुत सुधारात्मक जानकारी दे सकता है।सुझाव के अनुसार  निखार हेतु महनत अंततः रचनाकार को स्वयं ही करनी चाहिए।
---एक दिन में पटल पर किसी रचनाकार की एक ही रचना की समीक्षा किया जाना संभव होता है।
सुझाव के बाद रचना को संशोधित करके पुनः उसी दिन पटल पर समीक्षक की टिप्पणी हेतु प्रस्तुत करके उस दिन के लिए समीक्षक पर अतिरिक्त बोझ नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।रचनाकार को तदनुसार रचना को दुरुस्त करके अपने रिकॉर्ड में सुरक्षित कर लेना चाहिए और फिर किसी दिन उचित अवसर पाकर पटल पर पोस्ट करना चाहिए।
सादर
ओंकार सिंह विवेक
ग़ज़लकार/समीक्षक

प्रसिद्ध कवि और शायर आदरणीय अंसार क़म्बरी जी की
 वॉल से साभार उनके साहित्यिक गुरु स्वर्गीय कृष्णानंद 
 चौबे जी की  एक ग़ज़ल
 ***********************************
...............: ग़ज़ल :
पंडित कृष्णानंद चौबे
सागरों से जब से यारी हो गई,
ये नदी मीठी थी खारी हो गई।

आदमी हलका हुआ है इन दिनों,
ज़िन्दगी कुछ और भारी हो गई।

अपने कुनबे को गिना दो चार बार,
लीजिए  मर्दुमशुमारी  हो  गई।

फ़ायदा भटकाओ से ये तो हुआ,
रास्तों की जानकारी हो गई।

राम नामी चादरों को ओढ़ कर,
हर नज़र कितनी शिकारी हो गई।

आप-हम सब थे वहीं दरबार में,
द्रोपदी फिर से उघारी हो गई।
पंडित कृष्णानंद चौबे
(आदरणीय अंसार क़म्बरी जी की वॉल से साभार)

May 27, 2022

कुछ अपनी कुछ कविता की

कल का दिन अत्यधिक व्यस्तता भरा रहा।दो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में हिस्सेदारी रही।
पहला कार्यक्रम मिगलानी सेलिब्रेशन मुरादाबाद में प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक सेवा निवृत्त कर्मचारी कल्याण समिति मुरादाबाद द्वारा आयोजित किया गया था।यहाँ समिति के सदस्य के रूप में सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ।सभा में संस्था के पदाधिकारियों द्वारा सेवा निवृत्त कर्मचारियों/उनके आश्रितों के कल्याण और उनके लंबित मुद्दों आदि पर विस्तार से प्रकाश डाला गया तथा समिति द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों से अवगत कराया गया।समिति के सदस्यों की सदस्यता बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया गया।
यह एक कटु सत्य है कि व्यक्ति जब अपने जीवन का एक बड़ा भाग सरकारी या ग़ैर सरकारी सेवा को समर्पित करके रिटायर होता है तो विभाग द्वारा उसके अवकाश प्राप्ति के परिलाभों या अन्य देय सुविधाओं के निस्तारण में अक्सर उदासीनता बरती जाती है।इस बात के अपवाद भी हो सकते हैं परंतु ऐसा अक्सर देखने में आता है।उस समय रिटायरी की बात को उठाने वाला कोई नहीं होता।ऐसे समय आदमी को संगठन की शक्ति का एहसास होता है।अतः सेवा निवृत्त कर्मचारियों का ऐसे संगठनों से जुड़े रहना ज़रूरी है।रिटायरीज़ के लिए इस दिशा में प्रथमा यू पी ग्रामीण बैंक सेवा निवृत्त कर्मचारी कल्याण समिति मुरादाबाद द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं।

शाम को दूसरा कार्यक्रम ज़ेनिथ होटल रामपुर में भारत विकास परिषद की रामपुर इकाई द्वारा आयोजित किया गया था।मेरे बैंक के ही अवकाश प्राप्त वरिष्ठ साथी श्री अभय शंकर अग्रवाल साहब का बहुत-बहुत आभार कि उन्होंने मुझे राष्ट्रीय एकता और भारतीय संस्कारों के पोषण और संरक्षण में महती भूमिका निभाने वाले संगठन की सदस्यता ग्रहण कराई।उल्लेखनीय है कि भारत विकास परिषद पूरे भारत वर्ष में अपनी इकाइयों के माध्यम से शैक्षणिक और सांस्कृतिक आयोजनों के साथ-साथ जन सेवा के कार्यों में भी निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है।
इस कार्यक्रम में हमारी(पति और पत्नी की) मेहमान के तौर पर पहली परिचयात्मक उपस्थिति थी।
इस वृतांत के साथ यदि कविता का तड़का न लगे तो फिर पोस्ट का मज़ा ही क्या?
तो लीजिए दोस्तो हाज़िर हैं मेरे कुछ दोहे : 
🌷
मिली  कँगूरों  को  सखे,तभी  बड़ी  पहचान,
दिया नीव  की  ईंट ने,जब  अपना बलिदान।
🌷
कलाकार  पर   जब  रहा,प्रतिबंधों  का  भार,
नहीं कला में आ सका,उसकी तनिक निखार।
🌷
मँहगाई    को    देखकर, जेबें   हुईं    उदास,
पर्वों   का   जाता  रहा,अब  सारा   उल्लास।
🌷
भोजन  करके   सेठ  जी,गए  चैन   से  लेट,
नौकर   धोता   ही   रहा, बर्तन  ख़ाली  पेट।
🌷
चल हिम्मत  को बाँधकर,जल में पाँव उतार,
ऐसे  तट  पर  बैठकर,नदी  न   होगी   पार।
🌷         ---ओंकार सिंह विवेक
                 (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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May 25, 2022

दोस्ती किताबों से

   दोस्ती किताबों से
  ***************
          ---ओंकार सिंह विवेक
मेरे एक मित्र हाल ही मैं सरकारी सेवा से रिटायर हुए हैं।वे उच्च शिक्षित और भरे-पूरे परिवार के स्वामी हैं।रिटायरमेंट के बाद उनके शुरू के कुछ दिन तो पेंशन आदि के काग़ज़ात की खानापूरी करने और इसी तरह के अन्य कामों में निकल गए।इस दौरान वह पहले की तरह ही व्यस्त रहे तो उन्हें समय का पता ही नहीं चला।बाद में कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ मेहमानदारी आदि में अच्छे बीत गए।तदोपरांत धीरे-धीरे उन्हें ख़ाली समय कचोटने लगा।एक दिन मॉर्निंग वॉक करते समय मैंने उनसे पूछ ही लिया कि आजकल आप कुछ सुस्त और उखड़े-उखड़े से दिखाई देते हैं,क्या बात है? कहने लगे "यार क्या बताऊँ अब तो टाइम काटना मुश्किल दिखाई देने लगा है।आख़िर कोई कितनी देर अख़बार पढ़े या इधर-उधर टहले और पान की दुकान पर जाकर बैठे।" मैं उनकी परेशानी समझ चुका था।यदि एडवांस में भविष्य के टाइम की प्लानिंग न कि जाए तो रिटायरमेंट के बाद अक्सर ऐसा लोगों के साथ होता है।चूंकि दफ़्तर जाना तो होता नहीं जहाँ व्यक्ति के 7-8 घंटे व्यस्तता में व्यतीत हो जाते हैं। इसलिए रिटायरमेंट के फ़ौरन बाद या उससे पहले ही हमें अपने समय-प्रबंधन की प्लानिंग कर लेनी चाहिए।कुछ लोग इस मामले में बहुत जागरूक होते हैं।वे समय रहते ही अपनी रुचि का कोई काम जैसे दुकान,पार्ट टाइम जॉब या फिर किसी सामाजिक संस्था आदि से जुड़कर ख़ुद को जीवन की इस अगली पारी में सक्रिय रखने के लिए व्यस्त कर लेते हैं।जिन्हें पढ़ने-लिखने में रुचि होती है वे स्वयं को इस क्षेत्र में व्यस्त रखकर अपना मानसिक और बौद्धिक विकास करके सक्रिय बने रहते हैं। मैंने अपने दोस्त को व्यस्त रहने के इसी तरह के कई विकल्प सुझाए।उन्होंने कहा कि भाई कोई दुकान या पार्ट टाइम जॉब करना तो अब मेरे बस की बात नहीं है।आख़िर 35 वर्ष तक पाबंदियों में रहकर नौकरी कर ली यह क्या कम बड़ी बात है? फिर मैंने उनसे कहा कि आपने तो हिंदी साहित्य में M A किया है ,साहित्य में तो रुचि होगी ही आपकी।कहने लगे, "हाँ भाई पढ़ने में मेरी सदा से ही रुचि रही है।बीच में दफ़्तर में काम के दबाव के चलते यह सब छूट गया था।" जब उनकी नब्ज़ हाथ आई तो मैंने  कहा कि अच्छी किताबों से बढ़िया कोई दोस्त नहीं हो सकता।जो रुचि का काम आप पहले दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों के चलते नहीं कर सके उसे अब कीजिए।इससे आपका चिंतन विकसित होगा, ज्ञान में वृद्धि होगी और समय भी भली प्रकार व्यतीत होगा।यह बात उनकी समझ में आ गई ,कहने लगे कि यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं।
अगले दिन वह मेरे घर हाज़िर थे,कोई किताब चाहते थे पढ़ने के लिए।मुझ जैसे इंसान के पास किताबों के सिवा और क्या ख़ज़ाना हो सकता है।मेरी लाइब्रेरी में हिंदी और अंग्रेज़ी के अच्छे साहित्यकारों की तमाम किताबें मौजूद हैं।हिंदी साहित्य के ज़मीन से जुड़े साहित्यकार स्मृतिशेष मुंशी प्रेमचंद जी का तो मैं हमेशा से बहुत बड़ा फैन रहा हूँ।उनके लगभग सभी उपन्यास और कहानी संग्रह मेरी लाइब्रेरी में मौजूद हैं। मैंने अपने दोस्त को मुंशजी का उपन्यास "गोदान" पढ़ने के लिए दिया।यह मेरा पसंदीदा उपन्यास है जिसे अब तक मैं कई बार पढ़ चुका हूँ।ग्रामीण समाज की तत्कलीन व्यवस्था का जीवंत और मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। यह उपन्यास पढ़ने वाले कि आँखों में करुणा का समुंदर लाने के लिए काफ़ी है।आज भी इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह हमारे आसपास वर्तमान समाज में घटित हो रही घटनाओं का ही यथार्थ चित्रण करता है क्योंकि आज भी कमोबेश वैसी ही परिस्थितियाँ हैं समाज की।निःसंदेह मैं यह गर्व से कह सकता हूँ कि मुंशजी वर्तमान-द्रष्टा ही नहीं अपितु भविष्य-द्रष्टा भी थे।
चित्र : गूगल से साभार
भाई साहब एक हफ़्ते बाद उपन्यास वापस करने आए तो चेहरे पर मुस्कुराहट और आत्मसंतुष्टि के भाव थे।कहने लगे "भाई आपने तो मुझे उपन्यास के रूप में एक अनमोल निधि सौंप दी।मैं तो उसमें ऐसा डूबा की चार सिटिंग में उसे पूरा पढ़कर ही दम लिया।पत्नी बार- बार कहती थीं कि कहाँ तो तुम वक़्त न कटने की शिकायत करते रहते थे और अब खाना खाने के लिए भी तुम्हें बार-बार पुकारना पड़ता है।" कहने लगे कि ऐसी ही कोई और रोचक किताब दीजिए पढ़ने के लिए।
मैं उनकी प्रतिक्रिया से बहुत प्रसन्न हुआ और आज मैंने उन्हें मुंशी प्रेमचंद जी का ही दूसरा उपन्यास "कर्मभूमि"और अपना ग़ज़ल-संकलन "दर्द का एहसास" पढ़ने के लिए दिए।
वह मुस्कुराते हुए मुझे धन्यवाद देकर चले गए।

दोस्तो यह अनुभव के आधार पर परखा हुआ अकाट्य सत्य है कि किताबें आदमी का बेहतरीन दोस्त होती हैं अतः हम अच्छा साहित्य पढ़ने के लिए कुछ न कुछ वक़्त अवश्य निकालें।ऐसा करने से हमारा मौलिक चिंतन विकसित होगा और एक सर्जनात्मक सोच के सहारे  हम अपनी और दूसरों की ज़िंदगी को एक नई दिशा देने में कामयाब हो सकते हैं।

जय हिंद,जय भारत🙏🙏🌷🌷🌺🌺💐💐
ओंकार सिंह विवेक

May 23, 2022

अभी कल की ही तो बात है

शुभ प्रभात मित्रो🙏🙏
वाह री क़ुदरत ! तेरा करिश्मा-- कल तक पारा उत्तर भारत में 40 से 45 डिग्री सेल्शियस के आस पास घूम रहा था।गर्मी बदन को झुलसाने को आतुर थी।मानव,पशु-पक्षी और पेड़-पौधे सभी गर्मी से अकुलाए हुए उम्मीद से आसमान की और ताक रहे थे।
चित्र -- गूगल से साभार
आज सुब्ह जब मॉर्निंग वॉक शुरू की तो मौसम एकदम उलट था।मस्त हवा चल रही थी,आसमान में काले बादल चहलक़दमी कर रहे थे और उनमें हल्की गड़गड़ाहट भी थी।आजकल जो सुब्ह से ही उमस और चिपचिपाहट का आभास होने लगता था वह जैसे कहीं हवा हो गया था।क़ुदरत/प्रकृति का यह बदला रूप देखकर मन इसके प्रति श्रद्धा से झुक गया।आज के इस मस्त मौसम ने  मॉर्निंग वॉक का मज़ा कई गुना बढ़ा दिया।थोड़ी ही देर में बूँदाबाँदी हवा के साथ तेज़ बारिश मे बदल गई।
चित्र : गूगल से साभार
लोग कई दिन से तेज़ गर्मी के चलते जिस परेशानी और लाचारी से गुज़र रहे थे उसे प्रकृति ने अपनी कृपा-दृष्टि से दूर कर दिया।यदि प्रकृति मानव द्वारा उससे की जाने वाली अनावश्यक छेड़छाड़ का दंड देती है तो उसे अपने प्यार और आशीर्वाद से पोषित भी करती है।हमें प्रकृति या क़ुदरत के प्रति सदैव कृतज्ञता ज्ञापित करते रहना चाहिए और पर्यावरण को दूषित करने से बचना चाहिए इसी से मानवकल्याण सम्भव है।
लीजिए इस अच्छे मूड और मस्त मौसम के साथ मेरी नई ग़ज़ल का आनंद लीजिए--
ग़ज़ल-- ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
ये  जो  शाखों  से  पत्ते  झर  गए  हैं,
ख़िज़ाँ  का ख़ैर  मक़दम  कर गए हैं।

कलेजा  मुँह को  आता है ये सुनकर,
वबा  से   लोग   इतने  मर   गए  हैं।

चमक आए न  फिर क्यों  ज़िंदगी में,
नए  जब   रंग  इसमें   भर   गए  हैं।

वो जब-जब आए हैं,लहजे से अपने-
चुभोकर   तंज़   के   नश्तर  गए  हैं।

डटे  हैं   भूखे-प्यासे  काम   पर  ही,
कहाँ  मज़दूर  अब  तक  घर गए हैं।

है इतना  दख्ल  नभ  में आदमी का,
उड़ानों   से    परिंदे    डर    गए  हैं।

अभी  कुछ  देर  पहले  ही तो हमसे,
अदू  के  हारकर   लश्कर   गए   हैं।
               ---ओंकार सिंह विवेक
                (सर्वाधिकार सुरक्षित)
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May 20, 2022

बस यूँ ही ख़याल आ गया

शुभ प्रभात मित्रो🙏🙏
अक्सर ऐसा होता है कि कविता या शायरी जब नहीं होती तो कई-कई दिन तक नहीं होती और यदि माँ शारदे की कृपा होने लगे तो हर घड़ी या दिन-रात काव्यात्मक विचार मष्तिष्क में आते रहते हैं।ऐसा ही कल दोपहर को हुआ जब इन दिनों की  गर्मी के प्रचंड रूप पर घर में सब आपस में बातें कर रहे थे।सबका एक ही आग्रह था कि हे सूरज देवता ! अब आग उगलना बंद करो,बहुत हुआ। काश ! कोई ठंडी हवा का झोंका आए और बारिश का सँदेशा दे जाए, सबकी ज़ुबान पर बस यही बात थी।तभी अचानक माँ की कृपा से यह दोहा हो गया-

सूर्य देव इतना  अधिक,क्रोध न करिए आप,
विनती है करबद्ध अब, घटा लीजिए   ताप।

चित्र : गूगल से साभार
कल्पना ने उड़ान भरी तो अपने गाँव के पुराने दिन भी याद आ गए।
पेड़ों पर चढ़कर आम और अमरूद तोड़ना,दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलना,ट्यूवैल पर जाकर गर्मियों में नहाना-- वह सदाबहार चौपालें और घर के आँगन में सबको छाँव देता वह नीम का पेड़।स्मृतियों में न जाने क्या-क्या सुंदर दृश्य उभर आए।उसी समय एक दोहा और हुआ जो आप सबकी नज़्र करता हूँ--

सच है  पहले  की  तरह,नहीं रहे  अब गाँव,
मिल जाती है पर वहाँ,अभी नीम की  छाँव।

चित्र : गूगल से साभार

सिलसिला आगे बढ़ा तो भिन्न-भिन्न रंगों के  कुछ और दोहे भी हुए जो प्रस्तुत हैं :

कथ्य-शिल्प  के  साथ हों,भाव  भरे भरपूर,
झलकेगा  सच  मानिए,फिर कविता में नूर।

घूमे   लंदन - टोकियो , रोम   और    रंगून,
मगर  रामपुर-सा  कहीं,पाया  नहीं  सुकून।
    
क्रोध-दंभ का जिस घड़ी, होता है अतिरेक,
खो देता  है  आदमी, अपना  बुद्धि-विवेक।
                 --ओंकार सिंह विवेक

🌷🌷🌺🌺🙏🙏जय हिंद,जय भारत
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May 16, 2022

जीवन की राहों को कुछ आसान करूँ

दोस्तो नमस्कार🙏🙏
कविता या शायरी कसौटी पर खरी तभी कही जा सकती है जब उसे सुन या पढ़कर श्रोता/पाठक आह!अथवा वाह! करने के लिए मजबूर हो जाए।कविता में सुनने वाले के चिंतन को जागृत करने की क्षमता होगी तभी वह सिर चढ़कर बोलेगी।इसके लिए कविता में भाव,कथ्य,तथ्य और शिल्प का बेजोड़ संगम होना चाहिए।कविता में केवल भाव हों और शिल्प तथा शब्द-संयोजन,वाक्य-विन्यास आदि की अनदेखी की गई हो तो वह अपना असर छोड़ने में इतनी कारगर नहीं होती।इसी तरह यदि केवल शिल्प के पालन के लिए उसके कलात्मक पक्ष पर ध्यान न दिया गया हो तो भी कविता सार्थक नहीं कही जा सकती।कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छी कविता या शायरी में भाव,कला तथा शिल्पपक्ष का बेहतरीन तालमेल होना पहली शर्त है।प्रसंगवश मशहूर शायर मरहूम कृष्णबिहारी नूर साहब का एक शेर याद आ रहा है : 
             मैं तो  ग़ज़ल सुना  के  अकेला खड़ा रहा,
             सब अपने-अपने चाहने वालों में खो गए।
                                       ---कृष्णबिहारी नूर
इस शेर का सार यही है कि हम शेर/कविता/ग़ज़ल कहें तो ऐसी कहें कि लोग उसे सुनकर अपने चाहने वालों में खो जाएँ यानी मन से एकाग्र होकर कुछ सार्थक चिंतन के लिए प्रेरित हो जाएँ।
तो लीजिए इस भाव और भूमिका के साथ प्रस्तुत है मेरी नई ग़ज़ल

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
********************************
ख़ुद को समझूँ, जग की भी पहचान करूँ,
जीवन  की  राहों  को  कुछ आसान करूँ।

मेरे   बाद   भी  देखेगा  कोई  जग  इनसे,
बेहतर  होगा, इन  आँखों  को  दान करूँ।

तिश्नालब  ही  उसके  पास  खड़ा  रहकर,
सोच  रहा   हूँ  दरिया   को   हैरान  करूँ।

जिनकी  कथनी-करनी  में  हो  फ़र्क़ सदा,
उन  लोगों  का  कैसे  कुछ  सम्मान करूँ।

हिम्मत-जोश- अक़ीदा- अज़्म-जुनूं-जज़्बा,
जीने  की  ख़ातिर  कुछ  तो सामान करूँ।

इतनी क्षमता  और  समझ   देना  भगवन,
पूरा  माँ-बापू   का    हर   अरमान  करूँ।

कोशिश  यह  रहती है, अपनी  ग़ज़लों में,
शोषित-वंचित का  दुख-दर्द  बयान करूँ।
             ---ओंकार सिंह विवेक
********************************
       (सर्वाधिकार सुरक्षित)

May 14, 2022

थोथा ज्ञान

दो साहित्यिक पटलों पर एक  वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा अपने दंभ और क्रोध के चलते एक अन्य अति वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति निरंतर अमर्यादित टिप्पणियाँ की गईं ।उनकी वरिष्ठता को देखते हुए फिर भी उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान किया गया परंतु उनकी अनुशासनहीनता कम नहीं हुई।अंततः एडमिन महोदय को उन्हें पटल से मुक्त करना पड़ा।बाद में उनके दंभ और मनोदशा को लेकर सहित्यकारों नें पटल पर अपनी-अपनी काव्य-अभिव्यक्तियाँ भी रखीं।उस समय मैंने भी कुंडलिया छंद में कुछ कहने का प्रयास किया था जो आपके संमुख प्रस्तुत है : 

              कुंडलिया 
            --- ----------
********************************
सबसे बढ़कर  हूँ यहाँ, मैं  ही  बस  विद्वान,
ऐसा वह  ही सोचता,जिसका  थोथा ज्ञान।

जिसका थोथा ज्ञान,किसी की राय न माने,      
सबको समझे  मूर्ख,स्वयं  को  ज्ञानी जाने।

ऐसे   मानुष  हेतु,यही  है   विनती  रब  से,
दें उसको  सद्बुद्धि,रहे वह  मिलकर सबसे।
********************************
                        ---ओंकार सिंह विवेक
चित्र : गूगल से साभार

May 9, 2022

इतने तेवर दिखा न ऐ सूरज

ग़ज़ल----ओंकार सिंह विवेक
  मोबाइल 9897214710

ज़ोर   शब  का  न  कोई  चलना  है,
जल्द  सूरज  को  अब निकलना है।

ये   ही  ठहरी  गुलाब  की  क़िस्मत,
उसको  ख़ारों  के  बीच  पलना  है।

ख़ुद  को   बदला  नहीं  ज़रा  उसने,
और   कहता   है  जग  बदलना  है।

दूध    जितना    उसे    पिला  दीजे,
साँप   को   ज़ह्र    ही   उगलना  है।

लाख  काँटे  बिछे  हों  पग- पग  पर,
राह-ए-मंज़िल पे फिर भी चलना है।

तोड़ना    है    ग़ुरूर    ज़ुल्मत    का,
यूँ  ही   थोड़ी  दिये  को  जलना  है।

इतने   तेवर   दिखा   न    ऐ  सूरज,
आख़िरश  तो  तुझे   भी  ढलना है।

              ----ओंकार सिंह विवेक

 (ब्लॉगर पॉलिसी के तहत सर्वाधिकार सुरक्षित)

  चित्र : गूगल से साभार


May 8, 2022

विश्व मातृ-दिवस पर

          मेरा कलाम : माँ के नाम
दोस्तो जैसा कि हम सब जानते हैं , माँ के बिना एक बालक के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।यदि पिता अपनी संतान को कांधे पर बैठाकर दुनिया में घुमाते हुए उसकी बुलंदी की कामना करता है तो माँ संतान को अपने आँचल की छाया प्रदान करके ग़मों की धूप से बचाती है।माँ ख़ुद गीले में सोती है परंतु संतान को सूखे में सुलाती है,ख़ुद भूखी रहती है पर औलाद को भरपेट खिलाती है, बच्चे के बीमार होने पर माँ के दिन का चैन और रातों की नींद उड़ जाती है---ऐसी होती है माँ।
आज विश्व मात्र-दिवस है तो आइए मैं आपको माँ के प्रति अपने जज़्बात से रूबरू करवाता हूँ --

विश्व मातृ-दिवस पर
****************
               ---ओंकार सिंह विवेक
              मुक्तक : माँ
         🌷🌷🌷🌷🌷
  डगर का  ज्ञान होता है अगर माँ  साथ होती है,
  
  सफ़र  आसान होता है अगर माँ साथ होती है।
  
  कभी मेरा जगत में बाल बाँका हो नहीं सकता,
  
  सदा  यह भान होता है अगर माँ साथ होती है।
          🌷🌷🌷🌷🌷
               ग़ज़ल : माँ
💐
दूर   सारे   अलम   और   सदमात  हैं,
माँ  है  तो  ख़ुशनुमा  घर के हालात हैं।
💐
दिल को  सब  ठेस  उसके  लगाते  रहे,
ये न  सोचा  कि  माँ के भी जज़्बात हैं।
💐
दुख  ही दुख  वो उठाती है सबके लिए,
माँ के हिस्से में कब सुख के लमहात हैं।
💐
छोड़  भी आ  तू अब लाल  परदेस को,
मुंतज़िर  माँ  की  आँखें ये दिन-रात हैं।

मैं जो  महफ़ूज़ हूँ  हर बला से 'विवेक',
ये तो  माँ की  दुआओं  के असरात हैं।
 💐           ---ओंकार सिंह विवेक
                   रामपुर-उ0प्र0
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May 6, 2022

आख़िर बात दिल की है

शुभ प्रभात साथियो🙏🙏

पता नहीं कब इन सांसों का साथ छूट जाए और हमारा घर-परिवार तथा दुनिया से नाता टूट जाए।अतः अच्छा हो कि हम घर-परिवार और ख़ुद के साथ-साथ दुनिया और समाज के लिए भी कुछ ऐसा काम करते रहें जिससे हमारे इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच करने के बाद भी लोग हमें याद रखें।
आज सुब्ह अखबार पढ़ते हुए एक ख़बर पर नज़र पड़ी तो एक सज्जन के नेक कार्यों के बारे में जानकर मस्तक उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया।दिल के रोगियों के लिए पेसमेकर एक ऐसा उपकरण है जो दिल की धड़कनों को नियमित बनाए रखता है परंतु अर्थाभाव में कई लोग इसे लगवा नहीं पाते हैं क्योंकि यह एक मँहगा उपकरण है।
छत्तीसगढ़ राज्य के भिलाई शहर की सामाजिक संस्था "मम्मा की रसोई" के संस्थापक श्री रुबिंदर बाजवा जी दान में एकत्र किए गए पेसमेकर्स केवल 5 रुपए में ऐसे ज़रूरतमंदों को उपलब्ध कराते हैं जो आर्थिक विपन्नता के चलते यह मँहगा उपकरण खरीदकर अपने बीमार दिल में नहीं लगवा सकते।श्री बाजवा साहब की संस्था ऐसे लोगों से पेसमेकर्स प्राप्त करती है जिनके परिजनों के पेसमेकर लगा हुआ था और उनकी मृत्यु हो चुकी होती है।यह संस्था अपने इस नेक कार्य की जानकारी सोशल मीडिया आदि पर भी साझा करती है ताकि ज़रूरतमंद इसका लाभ प्राप्त कर सकें।
इस संस्था और इसके प्रमुख के ऐसे नेक काम देखकर निःसंदेह यह कहा जा सकता है कि दुनिया में जनसेवकों ,परोपकारियों और इंसानियत के पैरोकारों की कमीं नहीं है।
मैं आदरणीय बाजवा जी के दीर्घायु होने की कामना करता हूँ ताकि वह अपनी संस्था के माध्यम से इसी तरह ज़रूरतमंदों की ख़िदमत करते रहें।
आप सब से भी अनुरोध करना चाहूँगा की इस जानकारी को हर ज़रूरतमंद के साथ साझा करें।
          ---ओंकार सिंह विवेक
          ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर
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May 4, 2022

गुलसितां में ज़र्द हर पत्ता हुआ

दोस्तो नमस्कार🙏🙏
कुछ पारिवारिक कारणों और साहित्यिक आयोजनों में सहभागिता के चलते यात्राओं पर जाना पड़ा इसलिए आप लोगों से रूबरू न हो सका।
आज अपने पहले ग़ज़ल-संकलन "दर्द का अहसास" की पहली ग़ज़ल आपके संमुख प्रस्तुत कर रहा हूँ : 

  ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक

©️
सोचता हूँ अब  हवा को क्या हुआ,
गुलसिताँ  में  ज़र्द  हर  पत्ता हुआ।

हाथ  पर  कैसे  चढ़े  रंग- ए- हिना,
जब ख़ुशी पर रंज का पहरा हुआ।

दूर  नज़रों  से  रहे  अपनों की जब,
खूं  का  रिश्ता और भी गहरा हुआ।

ईद और  होली  का हो कैसे मिलन,
जब  दिलों  में ख़ौफ़ हो बैठा हुआ।

तंगहाली   देखकर   माँ - बाप  की,
बेटी  को  यौवन  लगा ढलता हुआ।
        --- ©️   ओंकार सिंह विवेक

जहाँ तक ग़ज़ल विधा की बारीकियों की बात है ,इस कोमल विधा में लय की दृष्टि से अक्षरों की तकरार को भी एक दोष माना जाता है।जैसे कोई शब्द यदि र अक्षर पर समाप्त होता है तो कोशिश यह करनी चाहिए कि उससे आगे का शब्द र अक्षर से प्रारम्भ न हो।यद्यपि यह शिल्पगत दोष की श्रेणी में नहीं आता परंतु गेयता को प्रभावित करता है।यदि कोई सब्स्टीट्यूट उपलब्ध न हो तो ऐसा किया भी जा सकता है।उस्ताद शायर भी ऐसा करते रहे हैं।ऊपर पोस्ट की गई ग़ज़ल के दूसरे शेर में भी एक स्थान पर र और र की तकरार है।

ग़ज़ल-संग्रह "दर्द का अहसास" का विमोचन कोरोना-काल में एक सादे समारोह में घर पर ही मेंरे पिता जी द्वारा किया गया था।
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इस पुस्तक की कुछ प्रमुख साहित्यकारों /ग़ज़लकारों द्वारा की गयी समीक्षा के अंश यहाँ उदधृत हैं---
      तेज़ इतनी न क़दमों की रफ़्तार हो,
      पाँव की  धूल का सर पे अंबार हो।

      न  बन  पाया कभी दुनिया के जैसा,
      तभी तो मुझको दिक़्क़त हो रही है।

      शिकायत  कुछ  नहीं  है जिंदगी से,
      मिला जितना मुझे हूँ ख़ुश उसी से।

ओंकार सिंह विवेक भाषा के स्तर पर साफ़-सुथरे रचनाकार हैं।अगर वह इसी प्रकार महनत करते रहे तो निश्चय ही एक दिन अग्रणी ग़ज़लकारों में शामिल होने के दावेदार होंगे।
         -----  अशोक रावत,ग़ज़लकार         (आगरा)

सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसिताां  में  ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

तंगहाली  देखकर  माँ - बाप की,
बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ।

भरोसा  जिन  पे करता जा रहा हूँ,
मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ।

ओंकार सिंह विवेक के यहाँ जदीदियत और रिवायत की क़दम- क़दम पर पहरेदारी नज़र आती है।उनकी संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।
                  ----शायर(डॉ0 )कृष्णकुमार नाज़ (मुरादाबाद )

उसूलों  की   तिजारत  हो  रही  है,
मुसलसल यह हिमाक़त हो रही है।

बड़ों  का   मान  भूले  जा  रहे   हैं,
ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं।

इधर  हैं झुग्गियों  में  लोग भूखे,
उधर महलों में दावत हो रही है।

ओंकार सिंह विवेक की ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ   के साथ उपस्थित है।मूल्यहीनता, सामाजिक विसंगति,सिद्धांतहीनता,नैतिक पतन,सभ्यता और संस्कृति का क्षरण आदि ;आज का वह सब जो एक प्रबुद्ध व्यक्ति को उद्वेलित करता है,उनकी शायरी में मौजूद है।                 

               ---- साहित्यकार अशोक कुमार वर्मा,

                      रिटायर्ड आई0 पी0 एस0

विशेष---पुस्तक  को गूगल पे अथवा पेटीएम द्वारा Rs200.00(Rs150.00 पुस्तक मूल्य तथा Rs50.00पंजीकृत डाक व्यय) का मोबाइल संख्या 9897214710 पर भुगतान करके प्राप्त किया जा सकता है।

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April 28, 2022

नीयत नेकी की

    नीयत नेकी की
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        वृतांत : ओंकार सिंह विवेक
क्या मरने के बाद इंसान कर्मों के अनुसार  स्वर्ग या नर्क में जगह पाता है?आत्मा क्या है ? शरीर की मृत्यु के साथ आत्मा की भी मृत्यु हो जाती है अथवा यह अजर-अमर है?--मानव जीवन से जुड़े ऐसे तमाम सवाल आज तक  वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आध्यात्मिक गुरुओं  के लिए शोध का विषय बने हुए हैं।ये बहुत गूढ़ विषय हैं जिनकी गहराई में जाना मेरे बस की बात नहीं पर प्रसंगवश इन विषयों का उल्लेख अनायास वृतांत का हिस्सा बन गया है।
मृत्यु के बाद व्यक्ति को कर्मों के अनुसार स्वर्ग-नर्क की प्राप्ति होती है अथवा नहीं इस बहस में न पड़कर मैं अनुभव के आधार पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि अपने सोच,नीयत और कर्मों के आधार पर व्यक्ति को स्वर्ग अथवा नर्क के दर्शन अपने जीते जी संसार में ही हो जाते हैं।यह अकाट्य सत्य है कि अपने कर्मों के आधार पर जीवन में ही व्यक्ति को कामयाबी,नाकामयाबी और सुख-दुख की प्राप्ति होती रहती है।जो लोग इस सत्य को झुठलाने की नाकाम कोशिश करते हुए निरंतर गुनाह और अनैतिक आचरण में लिप्त रहते हैं उन्हें इस जीवन में ही कठिनाइयों या यों कह लीजिए नर्क के समान दुश्वारियों का अनुभव हो जाता है और जो व्यक्ति नेकी और ईमानदारी के साथ जीवन की राहें तय करते हुए अपने और परिवार के साथ देश और समाज के लिए कुछ करते रहते हैं निःसंदेह उनका जीवन आसान हो जाता है और उन्हें यहीं स्वर्ग का आभास हो जाता है।नेकियों की राह पर चलने का बीड़ा उठाये हुए बिना किसी प्रचार और दिखावे के अपना काम कर रहे ऐसे ही एक व्यक्ति श्री अनिल सारस्वत जी के साथ एक दिन(27 अप्रैल,2022) गुज़ारा तो मेरे चिंतन और सोच को एक नई दिशा मिली।

         मैं और श्री अनिल सारस्वत जी

24 मार्च,2022 को मैं रामपुर के दो वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ टैक्सी द्वारा एक साहित्यिक कार्यक्रम में सहभागिता हेतु लखनऊ जा रहा था।रास्ते में सहपाठी साहित्यकार के फोन पर एक कॉल आई कि अपने शहर के किसी ऐसे परिवार के बारे में जानकारी देकर सहयोग करें जिससे कोई सेना में देश की सेवा करते हुए शहीद हुआ हो,मैं उन्हें सम्मानित करना चाहता हूँ। सहपाठी साहित्यकार ने फोन मुझे दे दिया कि आप ही भाई साहब की कोई मदद कीजिए।मैंने बात की तो फोन करने वाले सज्जन ने कहा कि मैं काशीपुर-उत्तराखंड से ओज कवि अनिल सारस्वत बोल रहा हूँ।भाई साहब!इस संबंध में मेरी मदद कीजिए। मैंने उनसे कहा कि अभी तो मुझे नहीं मालूम लेकिन आपको एक घंटे में अवश्य ही पता करके कुछ बताता हूँ।मुझे प्रयास करने से सफलता भी मिल गई। मैंने उन्हें बताया कि जनपद रामपुर-उ0प्र0 मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर एक गाँव अलीपुरा में बारामूला में कुछ वर्ष पूर्व देश-सेवा करते हुए शहीद हुए एक सैनिक रंजीत सिंह का परिवार रहता है।वह बहुत ख़ुश हुए और कहा कि मैं 27 अप्रैल को रेडियो स्टेशन रामपुर काव्य-पाठ की रिकॉर्डिंग के लिए आऊँगा।रिकॉर्डिंग कार्य समापन के बाद अलीपुरा जाकर शहीद सैनिक के परिजनों से मिलने का कार्यक्रम है आप भी हमारे साथ चलिए।मैंने ऐसे नेक कार्य में सहभागिता हेतु सहर्ष स्वीकृति दे दी।
उस दिन नियत समय पर मैं आकाशवाणी रामपुर श्री अनिल जी से मिलने पहुँच गया।उनकी रिकॉर्डिंग के बाद गाँव अलीपुरा जाने का कार्यक्रम तय हुआ ।उसी समय रौबीले व्यक्तित्व के एक स्मार्ट-से सज्जन बड़ी गर्मजोशी से आकर भाई अनिल सारस्वत जी से मिले।अनिल जी ने उनसे मेरा परिचय कराते हुए कहा कि यह शहीद मेजर ख़ावर सईद के भाई सरोश सईद साहब हैं ,इनके परिवार को भी मैं सम्मानित कर चुका हूँ।एक शहीद सेना अधिकारी के भाई से मिलकर मुझे गर्व की अनुभूति हुई।भाई सरोश जी अपनी चार पहियों की बड़ी गाड़ी लेकर आए थे और उनका आग्रह था कि इसी गाड़ी से हम  लोगों को गाँव अलीपुरा लेकर जाएँगे ताकि वह भी ऐसे नेक काम का हिस्सा बन सकें। चिलचिलाती धूप में एक रोज़ेदार का हमसे यह कहना कि मुझे भी आपके साथ चलना है ,उनके जज़्बा-ए-इंसानियत को बताने के लिए काफ़ी है।हम उनकी श्रेष्ठ भावनाओं, आत्मीयता और सदाशयता से बँधे गाड़ी में बैठकर चल दिए।रास्ते में उनसे और तफ़सील से तआरुफ़ हुआ तो उन्होंने कहा "मैंने आपको यहाँ रामपुर में ही शायद किसी महफ़िल या कार्यक्रम में पहले भी कहीं देखा है।" मैंने कहा कि मुझे शेरो-शायरी का शौक़ है और अक्सर नशिस्तों और मुशायरों/कवि सम्मेलनों में आया-जाया करता हूँ,आपने शायद ऐसी ही किसी महफ़िल में देखा होगा।उन्होंने इस बात की ताईद की।फिर तो रास्ते भर उनसे बहुत बे-तकल्लुफ़ाना गुफ़्तगू होती रही।शेरो-शायरी और कविता का दौर भी चला जिसमें श्री अनिल सारस्वत जी की भी सक्रिय भागीदारी रही।श्री सरोश जी से समाज के वर्तमान हालात,बिगड़ते सामाजिक ताने-बाने और साम्प्रदायिक सौहार्द को लेकर काफ़ी बातें हुईं।मैं उनके सुलझे हुए प्रगतिशील विचारों से बहुत प्रभावित हुआ।जो लोग सामाजिक समरसता के माहौल को बिगाड़ने पर तुले हुए हैं उनको लेकर मेरी ही तरह सरोश जी भी बहुत फ़िक्रमंद नज़र आए।इस पसमंज़र में मैंने उन्हें अपने ये शेर भी सुनाए :
             ©️ 
           वरना  हिंदू  और  मुसलमां में  तो  कोई  फ़र्क़ नहीं,
           सिर्फ़ सियासत लड़वाती है राघव को रमज़ानी से।
                              *******
            न ख़ुशियां ईद की कम हों, न होली-रंग हो फीका,
            रहे भारत  के  माथे पर  इसी  तहज़ीब का टीका।
                                ----  ©️ ओंकार सिंह विवेक
      श्री सरोश सईद साहब, मैं और श्री अनिल सारस्वत जी

बातचीत करते हुए कब हम गाँव अलीपुरा पहुँच गए कुछ पता ही नहीं चला।गंतव्य पर  पहुँचे तो गाँव के लाडले बेटे शहीद सिपाही रंजीत के पिताजी श्री सत्यपाल सिंह जी हमारे स्वागत के लिए तैयार खड़े थे।गाँव के बड़े हवेलीनुमा घर के आँगन में पेड़ के नीचे बैठकर उनसे काफ़ी बातें कीं।उन्होंने अपने बेटे की वीरता के दिल में जोश भरने वाले कई क़िस्से सुनाए।श्री सत्यपाल सिंह जी यह बताना भी नहीं भूले कि अब सरकार शहीद सैनिकों के परिजनों के सम्मान में अक्सर कार्यक्रम आयोजित करती रहती है जो एक अच्छी बात है।श्री सत्यपाल सिंह जी ने हमें शहीद सिपाही रंजीत सिंह का स्मारक भी दिखाया जो उनके घर के सामने ही बना हुआ है।हमनें वीर सिपाही के स्मारक को नमन किया।इस बीच श्री अनिल सारस्वत जी ने अपने नेक मिशन के तहत,जिसे वह पिछले लगभग पिछले साढ़े तीन साल से भी अधिक समय से करते आ रहे हैं,शहीद सैनिक के पिता श्री सत्यपाल सिंह जी को सम्मानपत्र, अंगवस्त्र तथा रु2100.00 की धनराशि देकर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया।यह बहुत भावुक करने वाला दृश्य था।श्री सत्यपाल सिंह जी ने बार-बार अनिल जी का आभार प्रकट करते हुए हमें सजल नेत्रों से विदा किया।

              अलीपुरा में गौरव के कुछ पल
श्री अनिल सारस्वत जी से उनके इस नेक काम और मिशन के बारे में विस्तार से जानने की इच्छा हुई तो उन्होंने बताया कि वह बिना किसी पब्लिसिटी के पिछले कुछ समय में चालीस शहीदों के परिवारों का पता लगाकर उनको सम्मानित कर चुके हैं और उनका यह काम जीवन पर्यन्त जारी रहेगा।उनके इंसानियत के जज़्बे और नेक भावना को सुन और देखकर उनके प्रति दिल श्रद्धा से भर उठा।ईश्वर भाई श्री अनिल सारस्वत जी के इस जोश-जज़्बे और नेकी के जुनून को यूँ ही क़ायम रखे ताकि वह लोगों को इंसानियत का पैग़ाम देते रहें।मैं उनके दीर्घायु होने की कामना करते हुए अपने इस शेर के साथ वाणी को विराम देता हूँ--
                 हमवार कर ही लेंगे वो रस्ते को एक दिन,
                 मंज़िल पे पहुँचने की जिन्हें धुन सवार है।
                                  ---ओंकार सिंह विवेक
  -- ©️ ओंकार सिंह विवेक
 --ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर
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April 26, 2022

अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर का लखनऊ में साहित्यिक अनुष्ठान संपन्न


उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में 
अखिल भारतीय काव्यधारा की गूँज ****************************
यदि जोश-जज़्बा और जुनून हो तो देश और समाज की विभिन्न माध्यमों से सेवा की जा सकती है।धनवान लोग आर्थिक या अन्य मूलभूत साधन उपलब्ध कराकर निर्धनों की  सहायता कर सकते हैं।राजनीति या सरकारी नौकरी में आकर भी साफ़ नीयत और उच्च नैतिक और चारित्रिक बल के द्वारा समाज की सेवा की जा सकती है या मज़बूत इच्छा शक्ति और दृण संकल्प के बल पर इसी प्रकार के अन्य सामाजिक परोपकार के कार्य किए जा सकते हैं। साहित्य सृजन के माध्यम से भी जनसामान्य को जागरूक करके देश और समाज की सेवा के कार्य में अपना योगदान किया जा सकता है।
हिंदी साहित्य सर्जन ,संवर्धन और पोषण के माध्यम से ज़िला रामपुर-उ0प्र0 की साहित्यिक संस्था अखिलभारतीय काव्यधारा अनेक वर्षों से समाज सेवा का कार्य कर रही है।संस्था के संस्थापक श्री जितेंद्र कमल आनंद जी अपने व अपनी टीम के अथक प्रयासों और  सहयोग से इस संस्था की साहित्यिक गतिविधियों का  सतत विस्तार कर रहे हैं।इसी कड़ी में रविवार दिनाँक 24 अप्रैल,2022 को अखिल भारतीय काव्यधारा की लखनऊ इकाई के सचिव शैलेंद्र सक्सैना जी के सद्प्रयासों के चलते लखनऊ में एक कवि सम्मेलन-पुस्तक लोकार्पण व सम्मान  समारोह का भव्य आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
संस्था-संस्थापक श्री आनंद जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की तथा पार्षद श्री देवेंद्र सिंह यादव जीतू ने मुख्य अतिथि के रूप में कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।कार्यक्रम में सरस्वती वंदना के पश्चात श्री शैलेंद्र सक्सैना द्वारा संचालित साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्था सुरभि कल्चरल ग्रुप द्वारा पूर्व में आयोजित की गई विभिन्न प्रतियोगिताओं के विजेता छात्रों को पुरस्कृत किया गया उसके पश्चात कवि संजय मल्होत्रा हमनवा के कुशल संचालन में कवि सम्मेलन का विधिवत शुभारंभ हुआ जिसमें सहभागिता करने वाले कुछ प्रमुख कवियों के नाम इस प्रकार हैं:
1. श्री जितेंद्र कमल आनंद,रामपुर
2.डॉ0 गीता मिश्र गीत,हल्द्वानी-उत्तराखंड
3.अनमोल रागिनी चुनमुन,रामपुर
4.ओंकार सिंह विवेक,रामपुर
5.रामरतन यादव रतन,खटीमा-उत्तराखंड
6.संजय मल्होत्रा हमनवा,लखनऊ
7.डा रूपा पाण्डेय सत्यरूपा, लखनऊ      
8.डा श्वेता श्रीवास्तव,लखनऊ 
9.सरस्वती प्रसाद रावत, लखनऊ 
10.सुरेश कुमार राजवंशी, लखनऊ 
11.श्रीमती रुचि अरोरा,लखनऊ
12.मोहिनी मिश्रा,लखनऊ 
13.जितेंद्र पाल सिंह दीप, लखनऊ         आदि
सभी साहित्यकारों ने  सामाजिक सरोकारों से ओतप्रोत रचनाओं का पाठ करके अंत तक श्रोताओं को बाँधे रखा।
कार्यक्रम के दूसरे चरण में संस्था द्वारा प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका "जब कुछ कह न सका" का  मुख्य अतिथि तथा मंचासीन साहित्यकारों द्वारा लोकार्पण किया गया।
          
कार्यक्रम केअंतिम चरण में मुख्यअतिथि पार्षद श्री देवेंद्र सिंह यादव जीतू द्वारा निम्न साहित्यकारों को उनके साहित्यिक अवदान के लिए सम्मान पत्र,प्रतीक चिन्ह तथा अंगवस्त्र प्रदान करके सम्मानित किया गया-

1: *डा गीता मिश्रा " गीत"*, हल्द्वानी ( नैनीताल) उ ख
        *काव्यधारा काव्यप्रज्ञा सम्मान* 
2: *डा रूपा पाण्डेय सत्यरूपा*, लखनऊ उ प्र 
        *काव्यधारा- काव्यप्रज्ञा सम्मान* 
3: *डा श्वेता श्रीवास्तव,* लखनऊ उ प्र 
        *काव्यधारा- काव्यप्रज्ञा सम्मान*
4: *श्री सरस्वती प्रसाद रावत*, लखनऊ उ प्र 
       *काव्यधारा महारथी सम्मान* 
5: *श्री सुरेश कुमार राजवंशी*, लखनऊ उ प्र 
      *काव्यधारा काव्यरथी सम्मान* 
6: *श्री संजय मल्होत्रा " हमनवा"* , लखनऊ उ प्र 
         *चेतना प्रवाह" सम्मान*
7: *श्री राम रतन यादव*, खटीमा, ऊधमसिंहनगर ( उ ख)
        *चेतना प्रवाह  सम्मान*
8: *श्री ओंकार सिंह " विवेक"* , रामपुर (उ प्र)
       *काव्यधारा महारथी सम्मान* 
"9; श्रीमती अनमोल रागिनी जी, रामपुर उ प्र 
     *काव्यधारा काव्यप्रज्ञा सम्मान*
9: *श्रीमती रुचि अरोरा*
अध्यापिका/ समाज सेविका (लखनऊ ) *चेतना प्रवाह सम्मान*
10: *मोहिनी मिश्रा* लखनऊ 
*चेतना प्रवाह सम्मान
    
इस कार्यक्रम की सफलता और अविस्मरणीय यादों के साथ यदि मैं कार्यक्रम के संयोजक संस्था सचिव श्री शैलेंद्र सक्सैना तथा उनकी पत्नी और अन्य परिजनों की मेज़बानी और आवभगत की चर्चा न करूँ तो यह ब्लॉग पोस्ट और वृतांत अधूरा रहेगा अतः यहाँ मैं इसका उल्लेख करना भी अपना नैतिक दायित्व समझता हूँ।

मेहमानदारी करना सबको अच्छा लगता है परंतु दिल से मेहमाननवाज़ी करने वाले व्यक्ति तथा परिवार विरले ही देखने में आते हैं।
इस कार्यक्रम में सहभागिता के अवसर पर संस्था-संस्थापक श्री आनंद जी के भतीजे श्री शैलेंद्र सक्सैना ,उनकी धर्म पत्नी तथा अन्य परिजनों ने हमारा जो स्वागत-सत्कार किया वह दिल को छू गया।निःसंदेह परिवार को ये गुण परिवार के मुखिया आनंद जी के बड़े भाई और साहित्यिक गुरु श्री वीरेंद्र सरल जी से ही प्राप्त हुए हैं जिनका सर्जन अध्यात्म और मानवीय मूल्यों का प्रबल पक्षधर रहा है।इस परिवार का मेहमान बनकर हमें यह बात शत-प्रतिशत सही लगी कि किसी का स्वागत-सत्कार करने के लिए घर में जगह का होना या न होना इतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना की परिजनों के दिल में जगह का  होना ।परिवार के लोगों के व्यवहार तथा उनके द्वारा की गई भोजन,जलपान की व्यवस्था में जो आत्मीयता झलकी वह शब्दों में बयान करना नामुमकिन है।रात को भोजन-व्यवस्था के उपरांत  घर के लोगों ने आत्मीयता और अपनेपन के साथ हमारे घर-परिवार के लोगों के बारे में जानने की जो उत्सुकता दिखाई उससे ऐसा लगा ही नहीं कि हम इस घर में पहली बार आए हैं।आज अपने-अपने स्वार्थ और अहम के चलते जो लोग संयुक्त परिवार की अवधारणा और व्यवस्था से ख़ुद को दूर करते जा रहे हैं उन्हें इस परिवार से प्रेरणा लेनी चाहिए।
मुझे पिछले लगभग दस वर्ष से अधिक समय से बड़े-बड़े साहित्यिक आयोजनों का हिस्सा बनने का सौभाग्य मिलता रहा है। यों तो सभी छोटे या बड़े आयोजनों में मेज़बान अपनी जानकारी और सामर्थ्य के अनुसार व्यवस्था में कोई कसर नहीं छोड़ते फिर भी कभी-कभी देखने में आता है कि कुछ मूलभूत व्यवस्थाएँ न्यून रह जाती हैं जिन पर हम सब आयोजकों को ध्यान देने की ज़रूरत महसूस होती है जैसे कार्यक्रम की अवधि और उस वक़्त के मौसम आदि को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रम स्थल पर सूक्ष्म/दीर्घ जलपान अथवा भोजन,वाशरूम आदि की उचित व्यवस्था पर थोड़ा और ध्यान दिया जा सकता है।
 ओंकार सिंह विवेक
 ग़ज़लकार/समीक्षक/ब्लॉगर



April 19, 2022

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जयंती पर

शुभ संध्या मित्रो🙏🙏
हम सब बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी को संविधान निर्माण में किए गए उनके योगदान के लिए के लिए ही ज़ियादा जानते हैं।
परन्तु बाबा साहब ने देश और समाज के विकास के लिए और भी बहुत से उल्लेखनीय कार्य किए थे जिनके बारे में भी  जानना जरूरी है। इस दिशा में अब शासन तथा प्रशासन की ओर से प्रयास किए भी जा रहे हैं जो एक अच्छा क़दम है।
कल रेलवे के  मनोरंजन सदन मुरादाबाद-उ0प्र0 में उत्तर रेलवे प्रशासन द्वारा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी की जयंती के अवसर पर उनकी स्मृतियों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने हेतु एक शानदार कार्यक्रम का आयोजन किया गया।कार्यक्रम में उत्तर रेलवे मुरादाबाद के मंडल प्रबंधक महोदय ने  मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहकर बाबा साहब के व्यक्तित्व और कृतित्त्व को लेकर विस्तार से अपने विचार रखे।मण्डल प्रबंधक ने बाबा साहब द्वारा किए गए सामाजिक सुधार और विकास के कार्यों को लेकर बहुत ही महत्वपूर्ण बातें आमंत्रित गणमान्य व्यक्तियों के साथ साझा कीं।अन्य वक्ताओं ने भी बाबा साहब के कार्यों से प्रेरणा लेने का आह्वान किया।इस अवसर पर  एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया जिसमें निम्न कवियों द्वारा काव्य पाठ  किया गया --
   
     श्री  उदय अस्त उदय,मुरादाबाद
     श्री वीरेंद्र सिंह ब्रजवासी,मुरादाबाद
     श्री विकास मुरादाबादी
     श्री  ओंकार सिंह विवेक,रामपुर
मेरे द्वारा इस अवसर पर बाबा साहब को श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत किए गए दो दोहे -- 
           संविधान निर्माण का,किया श्रेष्ठतम काम,
            बाबा   साहब  आपको,बारंबार  प्रणाम।

            जागे  सबकी  चेतना,रखें  सभी यह ध्यान,
            संविधान का हों नहीं,किंचित भी अपमान।
                       ---ओंकार सिंह विवेक
                         (सर्वाधिकार सुरक्षित)
इस सफल आयोजन में रेलवे मंडल प्रबंधक द्वारा कवियों को जलपान के बाद स्मृतिचिह्न देकर सम्मानित किया गया।इस अवसर पर मैंने रेलवे मंडल प्रबंधक महोदय को अपने प्रथम ग़ज़ल संकलन "दर्द का अहसास" की प्रति भी भेंट की। कार्यक्रम बहुत ही सफल रहा।मुझे कार्यक्रम का हिस्सा बनाने के लिए वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय उदय अस्त उदय जी  का अत्यधिक आभार प्रकट करता हूँ।

April 14, 2022

अपनी बात ग़ज़ल के साथ

अपनी बात ग़ज़ल के साथ
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             --ओंकार सिंह विवेक             
साथियो नमस्कार🙏🙏
"दिल्ली रचनाकार-1" हिंदी साहित्य का एक प्रतिष्ठित व्हाट्सएप्प ग्रुप है जहाँ माह के किसी एक मंगलवार को मुझे  भी ग़ज़ल समीक्षक के रूप में अपने दायित्व का निर्वहन करना होता है।समीक्षा कार्य के साथ-साथ कभी-कभार ग़ज़ल के संबंध में पटल पर अपने अनुभव और जानकारी भी मैं साझा करता रहता हूँ।इस बार पटल पर  जो तरही मिसरा ग़ज़ल कहने के लिए दिया गया था उस पर लोगों द्वारा कही 22गई ग़ज़लों की समीक्षा करते समय कुछ विचार पटल पर नए सीखने वालों के साथ साझा किए थे जो यहाँ भी उद्धृत कर रहा हूँ--

व0210

निःसंदेह पटल से जहाँ एक ओर कुछ मँझे हुए ग़ज़लकार जुड़े हुए हैं तो ख़ासी तादाद में सीखने में रुचि रखने वाले रचनाकार भी हैं जो शिद्दत से सीखने का प्रयास कर भी रहे हैं। जो मँझे हुए कलाकार हैं उनके बारे में कुछ कहना तो सूरज को दिया दिखाने जैसी बात होगी।
अतः मैं दूसरी श्रेणी अर्थात सीखने वालों के साथ कुछ बातें साझा करना चाहता हूँ ।ये कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर अमल करके मैं  ग़ज़ल के विद्यार्थी के रूप में अपने सर्जन में निखार का निरंतर प्रयास कर रहा हूँ,शायद औरों को भी इससे फ़ायदा हो।
*अधिकांश लोग बह्र को साधने में समर्थ दिखाई पड़ते हैं।
• हो यह रहा है कि बह्र तो खींच-तानकर लोग पूरी कर रहे हैं परंतु वाक्य विन्यास,मानक वर्तनी और कहन पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहे हैं।
• ग़ज़ल में जितनी महत्वपूर्ण बात बह्र साधना और क़ाफ़िए मिलाना है उतना ही महत्वपूर्ण कहन और मिसरों में रब्त का होना है।अतः इस ओर  अभी और अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।
   मिसरों  में रब्त न होने का एक उदाहरण देखिए--
   करने चले थे होम,मगर हाथ जल गए,
   हम यूँ हँसे कि आँख से आँसू निकल गए।
   
उक्त मतले की पहली और दूसरी -दोनों ही पंक्तियाँ अलग-अलग अर्थ दे रही हैं।होम करते समय हाथ जलने से हँसने का कोई तालमेल नहीं है अतः यह शेर बेमानी हो जाता है।
पटल पर ऐसा बहुत देखने में आ रहा है।लोग पहला मिसरा अच्छा-भला कहते -कहते दूसरे मिसरे में प्रसंग ही बदल देते हैं जो बिल्कुल भी उचित नहीं।
• ग़ज़ल को सिन्फ़-ए-नाज़ुक इसलिए ही कहा जाता है कि यह लफ़्ज़ों के साथ बहुत नाज़ुक बर्ताव चाहती है।सिर्फ़ बह्र/मात्रा पूरी करने के लिए भारी-भरकम या असंगत शब्दों को ठूँस देने से शेर की कहन ही बिगड़ जाती है अतः यह पहलू बहुत अधिक ध्यान चाहता है।
• कहने और बताने को बहुत सी  बातें हैं पर सब कुछ एक सिटिंग में मुमकिन नहीं है।
• सीखने-सिखाने का क्रम जीवन भर चलता है अतः हमें बिना किसी ईगो के जिस पर भी (सीनियर/जूनियर का भेद छोड़कर) हमसे अधिक जो भी ज्ञान है उसे सीखना और लेना चाहिए।
• यहाँ तो ऐसा नहीं देखने में आया पर कई पटलों पर देखने में आया है कि लोग अपनी रचनाओं पर वाह वाह की टिप्पणियाँ तो सार्वजनिक रूप से पटल पर चाहते हैं लेकिन आलोचनात्मक टिप्पणी इनबॉक्स में चाहते हैं जो किसी भी समीक्षक के लिए बड़ी विचित्र स्थिति होती है।यदि सीखने की ललक है तो शालीनता से की गई समीक्षात्मक/आलोचनात्मक टिप्पणियों को सह्रदयता से लेना चाहिए इसमें सीनियर और जूनियर जैसी कोई दीवार बीच में नहीं आनी चाहिए।हाँ, जूनियर लोगों का भी यह दायित्व बनता है कि आलोचनात्मक टिप्पणी शालीनता के साथ करें।सीखने और सिखाने का यह सिलसिला बना रहना चाहिए क्योंकि इसी में सुधार और निखार की संभावना छिपी है।

लीजिए पेश है तरही मिसरे पर मेरी भी एक ग़ज़ल

मिसरा -- दिल किसी का दुखा नहीं सकते ।
2122 1212 22 /112 फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

ग़ज़ल : ओंकार सिंह विवेक
©️
ख़ुद  को  गर आज़मा  नहीं सकते,
तय है,मंज़िल  भी  पा नहीं सकते।

जानते  हैं  जो  वक़्त  की  क़ीमत,
एक  पल  भी   गँवा  नहीं  सकते।

हमको   ही  बख़्श  देंगे  ये  नेमत,
पेड़ फल  ख़ुद तो खा नहीं सकते।
©️
कितनी  मतलब  परस्त  है दुनिया,
आपको   कुछ  बता  नहीं  सकते।

इस  तरह  तो  हमें  न   भटकाओ,
राह  गर  तुम  दिखा  नहीं  सकते।

फिर  तो उम्मीद  छोड़  दें सुख की,
दुख  अगर  कुछ  उठा नहीं सकते।

जिनका   संवेदना   से    रिश्ता  है,
"दिल किसी का दुखा नहीं सकते"।

एक  मज़लूम की सदा को 'विवेक',
आप  अब  यूँ   दबा   नहीं  सकते।
         ©️  ओंकार सिंह विवेक

 ओंकार सिंह विवेक

      --ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर


April 11, 2022

दौलत वालों के सब ठाठ निराले हैं

एक बार फिर ग़ज़ल के बहाने
**********************

प्रणाम मित्रो🙏🙏
कविता कवि के मन और उसके आस-पास जो घटित हो रहा होता है उसकी अभिव्यक्ति से इतर कुछ नहीं होती।कवि या रचनाकार के मन में भिन्न-भिन्न समय पर काल और परिस्थितियों को देखकर विचार आते रहते हैं जिन्हें वह अपने चिंतन कौशल से शब्दों में ढालकर कविता का रूप देता है और पाठकों और श्रोताओं के संमुख रख देता है। काव्य की गीत विधा में एक गीत में अमूमन एक विचार और भावभूमि को लेकर ही  पूरा गीत रचा जाता है परंतु ग़ज़ल का केस थोड़ा भिन्न है।ग़ज़ल का हर  शेर दूसरे से स्वतंत्र और विभिन्न कालखंड के मौज़ू और मफ़हूम लिए हुए हो सकता है।ग़ज़लकार को इस बात का फ़ायदा मिलता है कि वह कई कथ्य और विषय अपनी एक ही ग़ज़ल के अलग-अलग शेरों/अशआर में कह सकता है। 

चित्र : गूगल से साभार

मेरी  हाल ही में एक जदीद ग़ज़ल मुकम्मल हुई।इस ग़ज़ल के कुछ शेर ऐसे हैं जो कई साल पहले उस समय की परिस्थिति और परिदृश्य पर हुए चिंतन के फलस्वरूप सृजित हुए थे।मैंने वो ग़ज़ल फेसबुक पर "ग़ज़लों की दुनिया" समूह में पोस्ट की।इस ग्रुप से मैं पिछले लगभग सात साल से जुड़ा हुआ हूँ।इस पटल से अच्छी ग़ज़लें कहने वालों के साथ-साथ ग़ज़लों का शौक़ीन एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग भी जुड़ा हुआ है।

इस बार मेरी बाक़ी ग़ज़लों के मुक़ाबले ग्रुप में इस ग़ज़ल को अपेक्षा से कहीं ज़ियादा लोगों ने पसंद करते जुए कमेंट किये परन्तु एक दो कमेंट अप्रत्याशित भी आए जो कोई असामान्य बात भी नहीं कही जा सकती क्योंकि आपकी हर बात सबको पसंद आए यह बिल्कुल असंभव है।बहुत पहले की परिस्थितियों को देख- परखकर कहे गए कुछ पुराने शेरों को कुछ लोगों ने जिस विचारधारा या वर्ग से उनकी आस्थाएँ जुड़ी हैं सीधे उससे जोड़कर देखा और अप्रिय कमेंट भी किए जो शायद नहीं किए जाने चाहिए थे या मर्यादित तरीक़े से किए भी जा सकते थे।अन्य लोगों को जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है वैसे ही एक कवि और साहित्यकार को भी अपनी स्वतंत्र विचारधारा रखते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार होता है।हाँ,कई लोग उससे असहमत भी हो सकते हैं।उनकी अपनी  विचारधारा और प्रतिबद्धता के कारण यह उनका अधिकार भी बनता है।परंतु असहमत होने की दशा में भी  टिप्पणी तो मर्यादित भाषा में ही कि जानी चाहिए चाहे वो कवि द्वारा की जाए या फिर प्रबुद्व पाठक द्वारा।

फिलहाल इतना ही।लीजिए आपकी अदालत में हाज़िर है मेरी संदर्भित ग़ज़ल 

ग़ज़ल : ओंकार सिंह 'विवेक'
©️
जुमले  और  नारे  ही  सिर्फ़ उछाले हैं,
मुद्दे   तो   हर   बार   उन्होंने  टाले  हैं।

देख रहे  हैं वो  चुपचाप चमन जलता,
कैसे  कह  दें  हम  उनको,रखवाले हैं।

बाग़ों  से  ही  सिर्फ़  नहीं  पहचान रही,
सहरा  भी   सब   हमनें  देखे-भाले  हैं।
©️
अम्न-ओ-अमां की बातें करने वालों के,
हाथों   में   कैसे    ये   बरछी-भाले   हैं।

जंग  लड़ी  है  हर  पल  घोर  अँधेरों से,
यूँ  ही  थोड़ी  हासिल  आज उजाले हैं।

साथ   चलेंगे   इसके,साँसें  रहने  तक,
हम  कब  वक़्त  से पीछे रहने वाले हैं।

चाय   मनीला  में,लंदन  में  लंच-डिनर,
दौलत  वालों  के  सब  ठाठ निराले हैं।
           --   ©️ओंकार सिंह विवेक







April 8, 2022

अध्यात्म और मानवीय संवेदनाओं के कवि जितेंद्र कमल आनंद



साहित्य में अध्यात्म व मानवीय संवेदनाओं 
के कुशल चितेरे कवि जितेंद्र कमल आनंद
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जब हम आध्यात्मिकता की बात करते हैं तो निश्चित रूप से यह जीवन के आंतरिक पहलू से संबंधित बात होती है। भौतिकता से परे ईश्वरीय आनंद की अनुभूति करना ही अध्यात्म है।अध्यात्म हमें आत्म विश्लेषण और आत्म विवेचन करने में समर्थ बनाता है।सोचिए अध्यात्म की यही गूढ़ बातें यदि किसी साहित्यकार के सर्जन में परिलक्षित हों तो उसका चिन्तन किस स्तर का होगा।मैं रामपुर के एक ऐसे ही वरिष्ठ साहित्यकार श्री जितेंद्र कमल आनंद जी की बात कर रहा हूँ जिनके काव्य-सर्जन में अध्यात्म और मानवीय संवेदनाओं का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

श्री जितेंद्र कमल आनंद जी का जन्म 5 अगस्त,1951 को बरेली-उ0प्र0 में हुआ था। आनंद जी शिक्षक/प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्ति पाकर जनपद रामपुर में स्थायी रूप से बस गए हैं।श्री आनंद जी का अधिकांश साहित्य पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्त रहा है।हिंदी काव्य साहित्य की लगभग सभी विधाओं में शिल्प ,भाव और कथ्य की दृष्टि से श्रेष्ठ सर्जन उन्होंने किया है। आनंद जी की कुछ प्रमुख काव्य कृतियाँ निम्नवत हैं--
       आनन्द प्रवाह 
       जय बाला जी
       हनुमत उपासना
       गीत आनंद के
      राजयोग महागीता (घनाक्षरी-संग्रह)     आदि
आनंद जी की पुस्तकों  के नामों से ही अध्यात्म और धर्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का भान हो जाता है। 
उनके हस्तलिखित गीत-संग्रह "गीत आनंद के" से कुछ पँक्तियाँ देखें: 

          अपने ही पग देख धरा के आँगन में
          सारंगों के नयन आज फिर भर आए।
          
          कामनाओं के सजे शत-शत कलश फिर स्वर्ण के,
          साधना को पर मिलें,अंबर मिले सुख-शांति का।
          घन अगर गरजें,न कम हो दामिनी किलकारियों से,
          हो उजाला ज़िंदगी में, दूर हो तम भ्रांति का।
              
        परमब्रह्म ही परमगुरु हैं, परमलक्ष्य हितकारी,
        भक्ति-भाव से भिगो रही है, रंगों की पिचकारी।

        
आनंद जी की पुस्तक "राजयोग महागीता" की कुछ पंक्तियाँ देखें : 

            अनवरत तापहीन आत्मरूप को कमल,
            विदग्ध कर सकता न कोई संतप्त है।
            यदि चख लिया जिसने भी स्वाद अमृत का,
            वह रह सकता न कभी भी अतृप्त है।
              
उपरोक्त सभी रचनाओं से कवि की संवेदनाओं और चिन्तन की गहराई का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
हिंदी साहित्य की निःस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे आनंद जी 
आध्यात्मिक  साहित्यिक संष्था काव्यधारा तथा  अखिल भारतीय काव्यधारा रामपुर उ प्र  संस्थाओं के क्रमशः राष्ट्रीय महासचिव तथा अध्यक्ष हैं।इसके अतिरिक्त फेसबुक तथा व्हाट्सएप्प पर भी काव्यधारा संस्था के नाम से कई ग्रुप्स चलाते हैं और सीखने में रुचि रखने वाले साहित्यकारों को विभिन्न छंद बड़ी तन्मयता से सिखाते हैं।आनंद जी की साहित्यिक संस्था द्वारा प्रांतीय स्तर के साथ-साथ पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी अक्सर बड़े साहित्यिक आयोजन करके साहित्यकारों को सम्मानित किया जाता रहा है और यह सिलसिला निरंतर जारी है।आनंद जी का हिंदी के सर्जनात्मक साहित्य के प्रति यह समर्पण-भाव वंदनीय है।

मेरी यही कामना है कि श्री आनंद जी दीर्घायु हों और यों ही अनवरत अपनी साहित्य-साधना से समाज को दिशा प्रदान करते रहें तथा नए साहित्यकारों का मार्गदर्शन करते रहें।किसी मशहूर शायर का यह शेर आनंद जी को समर्पित करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ : 

               विरासत सूर-तुलसी की,नफ़ासत मीर-ग़ालिब की,
                 मेरे एहसास में बहता हुआ गंगा का पानी है।

-ओंकार सिंह विवेक
  ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर
      (सर्वाधिकार सुरक्षित)
                     

April 7, 2022

साहित्य में भक्ति-परंपरा के संवाहक कवि शिवकुमार चंदन



साहित्य में भक्ति-परंपरा के संवाहक कवि शिवकुमार चंदन
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          आलेख ---साहित्यकार ओंकार सिंह विवेक

हिंदी साहित्य में भक्ति-कवियों की  बात करें तो कबीरदास, तुलसीदास तथा सूरदास से लेकर रसखान और रहीम आदि तक एक लंबी शृंखला है कवियों की।इनमें यदि हम कृष्ण भक्ति परंपरा के कवियों की बात करें तो सूर,रसखान ,रहीम और मीराबाई को कौन नहीं जानता। इन महान सहित्यकारों नें अपने आराध्य की स्तुति में जो काव्य सर्जन किया है वो प्रणम्य है।
रामपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री शिवकुमार चंदन जी भी अपने काव्य सर्जन से मुझे भक्ति साहित्य की इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए नज़र आते हैं। 18 जून,1951 को बरेली में जन्मे कवि श्री चंदन जी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर जनपद रामपुर में स्थायी रूप से बस गए हैं।बहुत सादा दिल और विनम्र इंसान चंदन जी लोकभाषा में अपने भावों को बहुत ही सहज अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। मुझे उनके सर्जन में ब्रज भाषा का पुट बहुत अच्छा लगता है।काव्य वही असरकारी होता है जो बिना किसी बनावट या बंधन के ह्रदय से निःसृत हो। यह विशेषता चंदन जी के सर्जन में विद्यमान है।उनके अधिकांश गीत और दोहे आदि भक्ति प्रधान ही हैं।विद्या की देवी सरस्वती को लेकर उनके पास सरस्वती वंदनाओं का अनमोल ख़ज़ाना है। चंदन जी  पल्लव काव्य मंच के नाम से एक साहित्यिक व्हाट्सएप्प ग्रुप भी चलाते हैं जिससे देशभर के नामी-गिरामी साहित्य साधक जुड़े हुए हैं।इस पटल पर प्रतिदिन किसी न किसी विधा जैसे गीत ,ग़ज़ल,दोहा, कुंडलिया आदि को लेकर कार्यशाला भी आयोजित की जाती है।जिसमें प्रतिदिन नियत विधा में रचनाकार अपनी रचनाएँ पोस्ट करते हैं जिनकी समीक्षकों द्वारा समीक्षा करके सुधार हेतु आवश्यक सुझाव भी दिए जाते हैं।इस प्रकार यह मंच सीखने-सिखाने का एक अच्छा माध्यम बना हुआ है।इस पटल पर चंदन जी बड़े ही विनत भाव से प्रतिदिन प्रातःकाल अपनी नई सरस्वती वंदना पोस्ट करके पटल की गतिविधियों का शुभारंभ करते हैं।चंदन जी द्वारा संचालित पल्लव काव्य मंच कई बड़े साहित्यिक आयोजन कर चुका है। ऐसे आयोजनों में  देश भर भर के चुनिंदा साहित्यकारों को अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है और यह क्रम निरन्तर जारी है।

चंदन जी के अब तक कई काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें कुछ  प्रमुख निम्नवत हैं--

"चंदन की सुगंध"          काव्य-संग्रह
"शुभमस्तु"                   काव्य-संग्रह
 "स्वर अंतर्मन के"          गीत-संग्रह
"गीत गूँजते घर आँगन"    गीत-संग्रह
 "मन ने भरी उड़ान"        काव्य-संग्रह      
"तू ही प्राणाधार"         कुंडलिया-संग्रह 
मुझे चंदन जी के अधिकांश काव्य संकलन पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ है, कुछ की समीक्षा करने का सुअवसर भी मिला है।सभी कृतियों में उनकी अभिव्यक्ति की सरलता ,सहजता और भक्ति-भाव प्रधान चिंतन के दर्शन होते हैं।
चंदन जी के काव्य-संग्रह "मन ने भारी उड़ान" में उनकी अपने आराध्य श्रीकृष्ण को लेकर बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति के दर्शन होते है--

     कृष्ण रंग में रँगें, तब केशव का भान हो,
     मन माँहि मथुरा,औ' तन ब्रजधाम हो।

    नीरस कथाएँ लगें,बिन कृष्ण साँवरे की,
    चंदन को प्यारी लागी कृष्ण मनुहार है।

     उड़े रंग औ'अबीर भए दृश्य अभिराम,
     कुंज-कुंज केसरिया,रंग रँगों श्याम है।

कुछ पंक्तियाँ उनके गीत-संग्रह "गीत गूँजते घर आंगन में" से देखें---


हमको जो भी मिला,वही जग को दे जाएँगे,
सुख-दुख में गीतों को हम सब मिलकर गाएँगे।

राष्ट्रभक्ति की भरे भावना,राष्ट्र वंदना हो।
विश्व पूज्य भारत वसुधा यह,दिव्य कंचना हो।।

सुन लो करुण पुकार मीत!मन टेर रहा कब से,
तोड़ दिए कटुता के बंधन,सबके सब तबसे।

चंदन जी मूलतः भावना को प्रधानता देने वाले गीत कवि हैं।उनके गीतों की भाषा बहुत ही सहज और प्रभावपूर्ण है।यों तो चंदन जी को भक्ति रस का कवि कहा जा सकता है परंतु आधुनिक जीवन के पहलू व पर्यावरण चिंता और राष्ट्र चेतना जैसे सभी विषय चंदन जी की रचनाओं में देखने को मिल जाएँगे।
चंदन जी के हाल ही में प्रकाशित कुंडलिया संग्रह "तू ही प्राणाधार" से भारत वर्ष की ऋषि परंपरा,भक्ति-धर्म तथा अध्यात्म पर यह भावपूर्ण छंद देखें :
        भारत के शुभ कृत्य का, प्रकृति करे गुणगान।
        ऋषि-संतों  के  देश  की, अद्भुत  है पहचान।।
        अद्भुत    है     पहचान, देवता    भी    हर्षाते।
        अवधपुरी  के  राम, सभी  के  मन  को भाते।
        भक्ति-शक्ति सब ताप, सदा ही रही निवारत।
        कण-कण पावन धाम,सतत मन मोहे भारत।।

मेरी यही कामना है कि चंदन जी दीर्घायु हों और इसी तरह साहित्य सर्जन से समाज को दिशा देते रहें।
अंत में किसी महान साहित्यकार की ये पंक्तियाँ आदरणीय चन्दन जी को समर्पित करते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ---
                 गीत में जो दर्द गाते हैं उन्हें मेरा नमन,
                 दर्द में जो मुस्कुराते हैं उन्हें मेरा नमन।

-ओंकार सिंह विवेक
   ग़ज़लकार/समीक्षक/कंटेंट राइटर/ब्लॉगर
          (सर्वाधिकार सुरक्षित)
                     

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