अक्सर ऐसा होता है कि कविता या शायरी जब नहीं होती तो कई-कई दिन तक नहीं होती और यदि माँ शारदे की कृपा होने लगे तो हर घड़ी या दिन-रात काव्यात्मक विचार मष्तिष्क में आते रहते हैं।ऐसा ही कल दोपहर को हुआ जब इन दिनों की गर्मी के प्रचंड रूप पर घर में सब आपस में बातें कर रहे थे।सबका एक ही आग्रह था कि हे सूरज देवता ! अब आग उगलना बंद करो,बहुत हुआ। काश ! कोई ठंडी हवा का झोंका आए और बारिश का सँदेशा दे जाए, सबकी ज़ुबान पर बस यही बात थी।तभी अचानक माँ की कृपा से यह दोहा हो गया-
सूर्य देव इतना अधिक,क्रोध न करिए आप,
विनती है करबद्ध अब, घटा लीजिए ताप।
चित्र : गूगल से साभार
कल्पना ने उड़ान भरी तो अपने गाँव के पुराने दिन भी याद आ गए।
पेड़ों पर चढ़कर आम और अमरूद तोड़ना,दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेलना,ट्यूवैल पर जाकर गर्मियों में नहाना-- वह सदाबहार चौपालें और घर के आँगन में सबको छाँव देता वह नीम का पेड़।स्मृतियों में न जाने क्या-क्या सुंदर दृश्य उभर आए।उसी समय एक दोहा और हुआ जो आप सबकी नज़्र करता हूँ--
सच है पहले की तरह,नहीं रहे अब गाँव,
मिल जाती है पर वहाँ,अभी नीम की छाँव।
सिलसिला आगे बढ़ा तो भिन्न-भिन्न रंगों के कुछ और दोहे भी हुए जो प्रस्तुत हैं :
कथ्य-शिल्प के साथ हों,भाव भरे भरपूर,
झलकेगा सच मानिए,फिर कविता में नूर।
घूमे लंदन - टोकियो , रोम और रंगून,
मगर रामपुर-सा कहीं,पाया नहीं सुकून।
क्रोध-दंभ का जिस घड़ी, होता है अतिरेक,
खो देता है आदमी, अपना बुद्धि-विवेक।
--ओंकार सिंह विवेक
🌷🌷🌺🌺🙏🙏जय हिंद,जय भारत
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बहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया आपका
Deleteबेहतरीन!👌👌💐💐💐
ReplyDeleteमुहब्बतों का शुक्रिया भाई जी
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-०५-२०२२ ) को
'मेंहदी की बाड़'(चर्चा अंक-४४३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी शुक्रिया, अवश्य हाज़िर होऊँगा।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२१-०५-२०२२ ) को
'मेंहदी की बाड़'(चर्चा अंक-४४३७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर दोहे ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteजी शुक्रिया
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