April 11, 2022

दौलत वालों के सब ठाठ निराले हैं

एक बार फिर ग़ज़ल के बहाने
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प्रणाम मित्रो🙏🙏
कविता कवि के मन और उसके आस-पास जो घटित हो रहा होता है उसकी अभिव्यक्ति से इतर कुछ नहीं होती।कवि या रचनाकार के मन में भिन्न-भिन्न समय पर काल और परिस्थितियों को देखकर विचार आते रहते हैं जिन्हें वह अपने चिंतन कौशल से शब्दों में ढालकर कविता का रूप देता है और पाठकों और श्रोताओं के संमुख रख देता है। काव्य की गीत विधा में एक गीत में अमूमन एक विचार और भावभूमि को लेकर ही  पूरा गीत रचा जाता है परंतु ग़ज़ल का केस थोड़ा भिन्न है।ग़ज़ल का हर  शेर दूसरे से स्वतंत्र और विभिन्न कालखंड के मौज़ू और मफ़हूम लिए हुए हो सकता है।ग़ज़लकार को इस बात का फ़ायदा मिलता है कि वह कई कथ्य और विषय अपनी एक ही ग़ज़ल के अलग-अलग शेरों/अशआर में कह सकता है। 

चित्र : गूगल से साभार

मेरी  हाल ही में एक जदीद ग़ज़ल मुकम्मल हुई।इस ग़ज़ल के कुछ शेर ऐसे हैं जो कई साल पहले उस समय की परिस्थिति और परिदृश्य पर हुए चिंतन के फलस्वरूप सृजित हुए थे।मैंने वो ग़ज़ल फेसबुक पर "ग़ज़लों की दुनिया" समूह में पोस्ट की।इस ग्रुप से मैं पिछले लगभग सात साल से जुड़ा हुआ हूँ।इस पटल से अच्छी ग़ज़लें कहने वालों के साथ-साथ ग़ज़लों का शौक़ीन एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग भी जुड़ा हुआ है।

इस बार मेरी बाक़ी ग़ज़लों के मुक़ाबले ग्रुप में इस ग़ज़ल को अपेक्षा से कहीं ज़ियादा लोगों ने पसंद करते जुए कमेंट किये परन्तु एक दो कमेंट अप्रत्याशित भी आए जो कोई असामान्य बात भी नहीं कही जा सकती क्योंकि आपकी हर बात सबको पसंद आए यह बिल्कुल असंभव है।बहुत पहले की परिस्थितियों को देख- परखकर कहे गए कुछ पुराने शेरों को कुछ लोगों ने जिस विचारधारा या वर्ग से उनकी आस्थाएँ जुड़ी हैं सीधे उससे जोड़कर देखा और अप्रिय कमेंट भी किए जो शायद नहीं किए जाने चाहिए थे या मर्यादित तरीक़े से किए भी जा सकते थे।अन्य लोगों को जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होती है वैसे ही एक कवि और साहित्यकार को भी अपनी स्वतंत्र विचारधारा रखते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार होता है।हाँ,कई लोग उससे असहमत भी हो सकते हैं।उनकी अपनी  विचारधारा और प्रतिबद्धता के कारण यह उनका अधिकार भी बनता है।परंतु असहमत होने की दशा में भी  टिप्पणी तो मर्यादित भाषा में ही कि जानी चाहिए चाहे वो कवि द्वारा की जाए या फिर प्रबुद्व पाठक द्वारा।

फिलहाल इतना ही।लीजिए आपकी अदालत में हाज़िर है मेरी संदर्भित ग़ज़ल 

ग़ज़ल : ओंकार सिंह 'विवेक'
©️
जुमले  और  नारे  ही  सिर्फ़ उछाले हैं,
मुद्दे   तो   हर   बार   उन्होंने  टाले  हैं।

देख रहे  हैं वो  चुपचाप चमन जलता,
कैसे  कह  दें  हम  उनको,रखवाले हैं।

बाग़ों  से  ही  सिर्फ़  नहीं  पहचान रही,
सहरा  भी   सब   हमनें  देखे-भाले  हैं।
©️
अम्न-ओ-अमां की बातें करने वालों के,
हाथों   में   कैसे    ये   बरछी-भाले   हैं।

जंग  लड़ी  है  हर  पल  घोर  अँधेरों से,
यूँ  ही  थोड़ी  हासिल  आज उजाले हैं।

साथ   चलेंगे   इसके,साँसें  रहने  तक,
हम  कब  वक़्त  से पीछे रहने वाले हैं।

चाय   मनीला  में,लंदन  में  लंच-डिनर,
दौलत  वालों  के  सब  ठाठ निराले हैं।
           --   ©️ओंकार सिंह विवेक







2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2022) को चर्चा मंच       "गुलमोहर का रूप सबको भा रहा"    (चर्चा अंक 4399)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    --

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    1. हार्दिक आभार मान्यवर🙏🙏

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