दो साहित्यिक पटलों पर एक वरिष्ठ साहित्यकार द्वारा अपने दंभ और क्रोध के चलते एक अन्य अति वरिष्ठ साहित्यकार के प्रति निरंतर अमर्यादित टिप्पणियाँ की गईं ।उनकी वरिष्ठता को देखते हुए फिर भी उन्हें यथोचित सम्मान प्रदान किया गया परंतु उनकी अनुशासनहीनता कम नहीं हुई।अंततः एडमिन महोदय को उन्हें पटल से मुक्त करना पड़ा।बाद में उनके दंभ और मनोदशा को लेकर सहित्यकारों नें पटल पर अपनी-अपनी काव्य-अभिव्यक्तियाँ भी रखीं।उस समय मैंने भी कुंडलिया छंद में कुछ कहने का प्रयास किया था जो आपके संमुख प्रस्तुत है :
कुंडलिया
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सबसे बढ़कर हूँ यहाँ, मैं ही बस विद्वान,
ऐसा वह ही सोचता,जिसका थोथा ज्ञान।
जिसका थोथा ज्ञान,किसी की राय न माने,
सबको समझे मूर्ख,स्वयं को ज्ञानी जाने।
ऐसे मानुष हेतु,यही है विनती रब से,
दें उसको सद्बुद्धि,रहे वह मिलकर सबसे।
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---ओंकार सिंह विवेक
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (15-5-22) को "प्यारे गौतम बुद्ध"'(चर्चा अंक-4431) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार आपका
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (15-5-22) को "प्यारे गौतम बुद्ध"'(चर्चा अंक-4431) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
आभार आदरणीया
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