मित्रो नमस्कार 🙏🙏🌹🌹
बार-ए-दुनिया में रहो,गम-ज़दा या शाद रहो,
ऐसा कुछ करके चलो यां कि बहुत याद रहो।
मीर तक़ी मीर
मशहूर शायर मीर का यह शेर मुंशी प्रेमचंद जी की शख्सियत पर बिल्कुल फिट बैठता है।मुंशी प्रेमचंद जी अपनी कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से साहित्य जगत को इतना कुछ दे गए कि युगों-युगों तक याद किए जाते रहेंगे।
प्रेमचंद जी का जन्म 31 जुलाई,1880 को मुंशी अजायब राय जी के यहां बनारस के पास लमही गांव में एक साधारण कायस्थ परिवार में हुआ था।आपकी मृत्यु केवल 56 वर्ष की आयु में 8 अक्टूबर,1936 में हुई। प्रेमचंद जी का मूल नाम नवाब राय/धनपत राय था तथा इनके पिता जी डाक मुंशी थे।शिक्षक ,लेखक तथा पत्रकार रहे मुंशी जी ने प्रारंभ में नवाब राय नाम से ही उर्दू/हिंदी में लेखन किया।सन 1910 ईसवी में जब उनकी रचना "सोज़-ए-वतन" को अंग्रेज़ सरकार ने ज़ब्त कर लिया तो नवाब राय ने प्रेमचंद के छद्म नाम से लिखना प्रारंभ किया।
मुंशी जी की प्रारंभिक शिक्षा एक मौलवी साहब के यहां उर्दू/फ़ारसी में हुई।स्नातक स्तर तक भी उर्दू/फ़ारसी विषय उनके पास रहे।चूंकि प्रेमचंद जी के पिता जी सरकारी नौकरी में रहे सो उनके परिवार का लखनऊ,बनारस ,देवरिया और गोरखपुर आदि स्थानों पर आना-जाना रहा।उन दिनों अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ़ लोगों के आक्रोश और आंदोलनों ने प्रेमचंद जी को बहुत प्रभावित किया। देश की आज़ादी को लेकर भारतीयों में जो जोश और जज़्बा था वह प्रेमचंद जी के सृजन में साफ़ देखा जा सकता है।
प्रेमचंद जी का जीवन बहुत संघर्षों से भरा रहा।माता और पिता की मृत्यु के समय उनकी उम्र काफ़ी कम थी।परिवार की ज़िम्मेदारी को पूरा करने के दबाव में आगे की शिक्षा भी किसी तरह प्राइवेट रूप से ही पूरी की।जब नौकरी मिली तो अपने मनमौजी और फक्कड़ स्वभाव के चलते उससे भी त्यागपत्र देना पड़ा।घर-गृहस्थी चलानी थी सो 1930 में "मर्यादा" पत्रिका से जुड़े,साप्ताहिक पत्र "जागरण" में काम किया। यहां कोई बात नहीं बनी तो अपना मासिक पत्र "हंस" भी निकाला जो बहुत लोकप्रिय हुआ। ईमानदारी और उसूलों पर चलने वाले प्रेमचंद जी को इन कामों से भी परिवार को चलाने में कोई मदद नहीं मिली उल्टे उन पर अच्छा-ख़ासा क़र्ज़ और चढ़ गया।
ऐसी विपरीत आर्थिक परिस्थितियों और पारिवारिक दायित्वों के चलते मुंशी जी ने फिल्म नगरी बंबई का रुख़ किया।वहां उनकी एक कहानी पर मिल/मज़दूर नाम से फ़िल्म भी बनी।वहां भी तरह-तरह की शर्तों के कारण मुंशी जी का मन नहीं लगा और वह वापस बनारस आ गए।बॉम्बे टॉकीज के हिमांशु राय जी ने उनसे बहुत कहा कि आप अच्छे कहानीकार हैं आपकी कहानियां फिल्मों में बहुत चलेंगी आप बंबई छोड़कर न जाएं परंतु मुंशी जी ने इंकार कर दिया।
इन सब बातों को देखकर लगता है कि मुंशी प्रेमचंद जी का जीवन संघर्षों में ही गुज़रा होगा।उनके पुत्र अमृत राय जी का भी यही कहना है कि पिताजी का जीवन अभावों में ही बीता परंतु कुछ विद्वान इस पर भिन्न मत भी रखते हैं।
मुंशी प्रेमचंद का सभी साहित्य जन सरोकारों से जुड़ा हुआ साहित्य है।इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि भारतीय भाषाओं में ही नहीं वरन कई विदेशी भाषाओं में भी उनकी कहानियों और उपन्यासों का अनुवाद हो चुका है।
उनकी नमक का दारोग़ा, कफ़न,ईदगाह,मंत्र, पंच परमेश्वर और दो बैलों की कथा आदि कहानियां पढ़कर आंखों में आंसू आ जाते हैं।ऐसा लगता है कि 70 या 80 साल पहले लिखी गई ये कहानियां हमारे आज के समाज का ही सच दर्शा रहीं हों।इसलिए ही साहित्यकार को भविष्य दृष्टा कहा जाता है।यदि प्रेमचंद जी के उपन्यासों की बात करें तो गोदान,ग़बन,कर्मभूमि और रंगभूमि जैसे उपन्यास भी समाज की सच्ची तस्वीर दिखाते हैं।सामाजिक विसंगतियों,नैतिक मूल्यों के क्षरण,मानव चरित्र की दुर्बलता और ऊंच-नीच के भेद आदि की मार्मिक अभिव्यक्ति उनमें देखने को मिलती है।मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में कोई बनावट नहीं लगती क्योंकि उन्होंने जिन समस्याओं और दशाओं का अपने साहित्य में वर्णन किया है वह स्वयं उनसे गुज़रे थे।
प्रेमचंद जी की कोई भी कहानी या उपन्यास आप पढ़ना शुरू कर दीजिए उसे पूरा पढ़े बिना संतुष्ट हो ही नहीं सकते।यही उनके लेखन की विशेषता है।पाठक पढ़ना शुरू करते ही ख़ुद को चित्रित घटनाओं से जुड़ा हुआ महसूस करने लगता है। मुंशी जी ने अपने उपन्यासों और कहानियों में यदि किसी पारिवारिक,सामाजिक समस्या को उठाया है तो उसका समाधान भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।ऐसा लेखन ही वास्तविक लेखन कहलाता है।
इस सिलसिले की अगली कड़ी में मुंशी जी के प्रसिद्ध उपन्यास ग़बन पर कुछ बात करेंगे। ग़बन उपन्यास का मुख्य किरदार रमानाथ है जो अति महत्वाकांक्षा और लालच के चलते ग़बन करता है,पत्नी के गहने चोरी करता है और भी न जाने क्या-क्या अनैतिक कार्य करता है।एक झूठ को छुपाने के चक्कर में सौ और झूठ बोलता और फिर उलझता ही चला जाता है।
(उपन्यास पर विस्तार से रोचक चर्चा अगली कड़ी में)
ओंकार सिंह विवेक