फागुन की खुमारी में कवि और साहित्यकारों की चैतन्यता भी आजकल देखते ही बन रही है। ख़ूब कवि सम्मेलन और मुशायरे हो रहे हैं।कहा भी गया है कि हरकत में ही बरकत है अर्थात कुछ होता रहता है तो सक्रियता भी बनी रहती है।आजकल खूब कवि सम्मेलनों में जाना हो रहा है तो चिंतन की उड़ान भी अपने शबाब पर है।इस दौरान कही गई एक ग़ज़ल आपके सामने रख रहा हूं। प्रतिक्रिया से अवश्य ही अवगत कराएं
नई ग़ज़ल
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
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लुत्फ़ क्या आएगा शराफ़त में,
आप अब आ गए सियासत में।
हद तो ये, वो भी पढ़ लिया उसने,
हमने लिक्खा नहीं था जो ख़त में।
थी जो मसरूफ़ियत हमें थोड़ी,
आप भी कब थे यार फ़ुर्सत में।
©️ए
फिर से तारीख़ मिल गई अगली,
आज भी ये हुआ अदालत में।
ये रवैया नहीं है ठीक मियाँ!
कीजिए कुछ सुधार आदत में।
गर्व कैसे न हो भला हमको,
जन्म हमने लिया है भारत में।
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आप पूछें न तो ही बेहतर है,
कितने धोखे मिले शराफ़त में।
हो गई मौत सुनते हैं कल भी,
एक मासूम की हिरासत में।
हो गया गुफ़्तगू से अंदाज़ा,
कौन रहता है कैसी सुहबत में।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
वाह!
ReplyDeleteहो गया गुफ़्तगू से अंदाज़ा,
कौन रहता है कैसी सुहबत में।
उम्दा ग़ज़ल
हार्दिक आभार।
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