अचानक कोई वस्तु/घटना या चित्र मन को प्रभावित करता है तो कल्पना अनायास ही उड़ान भरने लगती है और कविता का जन्म हो जाता है।कुछ दिनों पहले नगर में एक झुग्गी बस्ती की तरफ़ से गुज़रना हुआ तो बड़ा मार्मिक दृश्य दिखाई दिया।किसी झुग्गी पर फटी हुई पन्नी पड़ी हुई थी,किसी पर टाट पड़ा हुआ था और किसी झुग्गी पर छत के नाम पर टूटा हुआ छप्पर पड़ा था।इन झुग्गियों में रहने वाले कैसे जीवन गुज़ारते होंगे यह समझते देर न लगी।टूटे छप्पर की छत ने जब मन को उद्वेलित किया तो एक शेर हो गया। काफ़ी दिन तक यह शेर तनहा ही रहा फिर धीरे-धीरे और कई विषयों पर शेर हुए और आख़िरकार ग़ज़ल मुकम्मल हुई जो आपकी प्रतिक्रिया हेतु प्रस्तुत है :
नई ग़ज़ल
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हां, जीवन नश्वर होता है,
मौत का फिर भी डर होता है।
शेर नहीं होते हफ़्तों तक,
ऐसा भी अक्सर होता है।
बारिश लगती है दुश्मन-सी,
टूटा जब छप्पर होता है।
उनका लहजा बस यूँ समझें,
जैसे इक नश्तर होता है।
जो घर के आदाब चलेंगे,
दफ़्तर कोई घर होता है।
'कोरोना' के डर से अब तो,
घर में ही दफ़्तर होता है।
देख लिया अब सबने,क्या-क्या-
संसद के अंदर होता है।
--- ©️ओंकार सिंह विवेक
बेहतरीन ग़ज़ल
ReplyDeleteआभार आदरणीया।
DeleteSunder prastuti
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteBahut badhiya
ReplyDeleteAabhar aapka
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