February 20, 2021

दर्द का अहसास

मशहूर शायर डॉ0 कृष्णकुमार नाज़ द्वारा लिखी गई मेरे ग़ज़ल-संग्रह
"दर्द का अहसास" की भूमिका
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             दर्द का अहसास : संवेदनाओं का संकलन
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'औरतों से बातचीत'रही होगी कभी ग़ज़ल की परिभाषा।शायद उस वक़्त जब ग़ज़ल के पैरों में घुँघरू बँधे थे,जब उस पर ढोलक और मजीरों का क़ब्ज़ा था,जब ग़ज़ल नगरवधू की अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह कर रही थी,जब ग़ज़ल के ख़ूबसूरत जिस्म पर बादशाहों-नवाबों का क़ब्ज़ा था।लेकिन,आज स्थितियाँ बिल्कुल उलट गई हैं।आज की ग़ज़ल पहले वाली नगरवधू नहीं बल्कि कुलवधू है,जो साज-श्रृंगार भी करती है और अपने परिवार और समाज का ख़याल भी रखती है।आज की ग़ज़ल कहीं हाथों में खड़तालें लेकर मंदिरों में भजन -कीर्तन कर रही है तो कहीं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का रूप धारणकर समाज के बदनीयत ठेकेदारों पर अपनी तलवार से प्रहार भी कर रही है।यानी समाज को रास्ता दिखाने वाली आज की ग़ज़ल 'अबला'नहीं'सबला'है और हर दृष्टि से सक्षम है।

प्रिय भाई ओंकार सिंह विवेक जी की पांडुलिपि मेरे सामने है और मैं उनके ख़ूबसूरत अशआर का आनंद ले रहा हूँ।विवेक जी ने जहाँ जदीदियत का दामन थाम रखा है वहीं उन्होंने रिवायत का भी साथ नहीं छोड़ा है।उनके अशआर में क़दम-क़दम पर जदीदियत की पहरेदारी मिल जाती है।यह आवश्यक भी है।आख़िर कब तक ग़ज़ल को निजता की भेंट चढ़ाते रहेंगे।समय बदलता है तो समस्याएँ बदलती हैं।नये-नये अवरोध व्यक्ति के सामने आकर खड़े जो जाते हैं।शायर की ज़िम्मेदारी है कि उन अवरोधों को रास्ते से हटाए और समाज को नये रास्ते और नयी दिशा दे।यह काम विवेक जी ने बड़ी ख़ूबी के साथ किया है।उनके यहाँ वैयक्तिकता भी है,देश भी है,समाज भी है और आम आदमी की उलझनें भी हैं।

वर्तमान में व्यक्ति जिस हवा में साँस ले रहा है उसमें प्राणदायिनी ऑक्सीज़न के साथ-साथ बड़ी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड भी है जो उसे बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि-
         सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ
         गुलसिताँ में ज़र्द हर पत्ता हुआ
         तंगहाली देखकर माँ-बाप की
         बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ
ये शेर यूँ ही नहीं हो गए हैं।कवि की संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।मनुष्य यूँ तो एक सामाजिक प्राणी है इसलिए वह समाज से कभी विमुख नहीं हो सकता लेकिन कई बार ऐसी स्थितियाँ आ जाती हैं कि उसे 'अपनों जैसे दीखने वाले'लोगों पर भरोसा करना पड़ता है और आख़िरकार वह धोखा खा जाता है।विवेक जी ने इस बात को बड़ी बेबाकी के साथ इन शेरों में प्रस्तुत किया है-
                   भरोसा जिन पे करता जा रहा हूँ
                   मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ
                   उलझकर याद में माज़ी की हर पल
                   दुखी क्यों मन को करता जा रहा हूँ
मैं विवेक जी का क़ायल हूँ कि वह बहुत सोच-समझकर शेर कहते हैं।वह अपनी बात थोपते नहीं बल्कि सामने वाले को सोचने के लिए स्वतंत्र छोड़ देते हैं ।'दर्द का अहसास' के प्रकाशन के शुभ अवसर पर उन्हें बहुत-बहुत बधाइयाँ।माँ शारदे से कामना है कि वह इनकी ऊँचाइयों को और निरंतरता प्रदान करे।मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ।

                            --डॉ0 कृष्णकुमार नाज़       (मुरादाबाद )                                    
विशेष: मैं डॉ0 कृष्णकुमार नाज़ साहब का ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने अपना क़ीमती वक़्त देकर पुस्तक की पांडुलिपि को पढ़कर इसका संपादन किया और सुंदर भूमिका लिखी।
    ----ओंकार सिंह विवेक
            रामपुर
डॉ0 कृष्णकुमार नाज़ साहब

ओंकार सिंह विवेक

January 12, 2021

"हस्ताक्षर" की काव्य गोष्ठी

आज मुरादाबाद की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था "हस्ताक्षर" की ओर से विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर  एक ऑनलाइन मुक्तक गोष्ठी का सफल आयोजन किया किया जिसमें मुझे भी सहभागिता का अवसर प्राप्त हुआ।गोष्ठी में मेरे द्वारा पढ़ी गई रचनाएँ:
आज कुछ चौपाईयाँ मौसम को लेकर
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              -----ओंकार सिंह विवेक
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 कुहरे    ने    चादर    फैलाई,
 सूर्य  देव   की  शामत आई।
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 कड़क  ठंड  ने  आफ़त ढाई,
 छोड़ें    कैसे    सखे    रज़ाई,
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  नाक  बंद , जकड़ा है सीना,
  हुआ  कठिन सर्दी में जीना।
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         ---ओंकार सिंह विवेक

शीत ऋतु: दो मुक्तक
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     ----ओंकार सिंह विवेक
                  रामपुर-उ0प्र0

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    जमा  दिया  नदियों का पानी,
    किया  हवा  को  भी  तूफ़ानी,
    पता  नहीं  कब तक सहनी है,
    हमें शिशिर की यह मनमानी।
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  💥
    और  न  अपना  कोप  बढ़ाओ  हे सर्दी  रानी,
    तेवर   में   कुछ  नरमी  लाओ  हे  सर्दी  रानी।
    कुहरा भी फैलाओ लेकिन हफ़्तों-हफ़्तों तक,
    सूरज  को  यों  मत  धमकाओ  हे  सर्दी रानी।
  💥
               ----ओंकार सिंह विवेक
गोष्ठी में जिन साहित्य मनीषियों द्वारा काव्य पाठ करके कार्यक्रम को सफल बनाया गया उनके नाम इस प्रकार हैं:
श्रीमती निवेदिता सक्सेना जी 
डॉ. रीता सिंह जी
डॉ. ममता सिंह जी
श्रीमती हेमा तिवारी भट्ट जी
श्री राजीव 'प्रखर' जी
डॉ. अर्चना गुप्ता जी
श्री मनोज 'मनु' जी
श्री ओंकार सिंह 'विवेक' जी
श्री योगेन्द्र वर्मा 'व्योम' जी
श्री शिशुपाल 'मधुकर' जी
डॉ. पूनम बंसल जी
श्री अशोक विश्नोई जी 
श्री ज़मीर जिया साहब
डॉ0मक्खन मुरादाबादी जी
डॉ0मनोज रस्तोगी जी एवं
 डॉ. अजय 'अनुपम' जी ।
संस्था के पदाधिकारियों आदरणीय योगेंद्र वर्मा व्योम जी एवं प्रिय राजीव प्रखर जी को हार्दिक बधाई तथा संस्था की उत्तरोत्तर प्रगति की कामना🙏🙏
----ओंकार सिंह विवेक

January 6, 2021

नया साल होगा

ग़ज़ल (नया साल:एक कामना)
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             -----ओंकार सिंह विवेक
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गए    साल   जैसा    नहीं   हाल   होगा,
है   उम्मीद   अच्छा   नया  साल   होगा।
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बढ़ेगी   न   केवल  अमीरों   की  दौलत,
ग़रीबों  के   हिस्से  भी  कुछ माल होगा।
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रहेगा    सजा    आशियाँ    रौशनी   का,
घरौंदा    अँधेरे     का    पामाल    होगा।
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जगत   में  सभी   और   देशों  से  ऊँचा,
सखे ! हिंद  का   ही  सदा  भाल  होगा।
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न   होगा   फ़क़त   फाइलों-काग़ज़ों  में,
हक़ीक़त  में  भी  मुल्क ख़ुशहाल होगा।
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                    ------ओंकार सिंह विवेक

December 24, 2020

स्व0श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी,स्व0श्री मदन मोहन मालवीय जी एवं स्व0 श्री धर्मवीर भारती जी को श्रद्धा सुमन

आज 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री एवं भारत रत्न स्व0 श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी, स्वतंत्रता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक भारत रत्न स्व0 पंडित मदन मोहन मालवीय जी एवं भारत -भारती पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार व पत्रकार स्व0 श्री धर्मवीर भारती जी के जन्म दिवस के अवसर पर उनकी स्मृतियों को शत-शत नमन करते हुए अपने काव्य-सुमन अर्पित करता हूँ🙏🙏

1..स्व0 श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी
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  नैतिक  मूल्यों  का किया , सदा  मान-सम्मान,
  दिया  अटल  जी  ने  नहीं,ओछा कभी बयान।
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  विश्व-मंच   पर   शान  से , अपना  सीना  तान,
  अटल  बिहारी  ने  किया , हिंदी  का  सम्मान।
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  राजनीति  के  मंच  पर  , छोड़  अनोखी  छाप,
  सबके  दिल  में  बस गए, अटल बिहारी आप।
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 सारा  जग  करता  रहे , शत-शत  सदा प्रणाम,
 अटल  बिहारी  जी  रहे , अमर  आपका  नाम।
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2.स्व0 पंडित मदन मोहन मालवीय जी
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 निज व्यक्तित्व-कृतित्व की,छोड़ अनोखी छाप,
 सबके  दिल  में  बस  गए , मालवीय  जी आप।
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 गाँधी  अरु  टैगोर  ने ,  देख   श्रेष्ट   सब   काम,
 मालवीय  जी  को  दिया , महामना   का  नाम।
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3.स्व0 श्री धर्मवीर भारती जी
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 यों   ही   थोड़ी   कर  रहा , याद  सकल  संसार,
 धर्मवीर   जी   आपके ,   लेखन   में   थी   धार।
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 जब  तक   संपादन   रहा  ,  धर्मवीर   के  पास,
 रही   बनाती   'धर्मयुग' ,  नए - नए   इतिहास।
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                          --///--ओंकार सिंह विवेक
                                   (सर्वाधिकार सुरक्षित)
  

December 18, 2020

हैरानी से

ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
मोबाइल 9897214710

दूर  है  वो   रिश्वत   के  दाना - पानी  से,
देख   रहे   हैं   सब  उसको   हैरानी   से।

यार बड़ों  के दिल का दुखना लाज़िम है,
नस्ले - नौ   की    पैहम  नाफ़रमानी  से।

कुछ   करना  इतना  आसान  नहीं होता,
कह   देते  हैं  सब  जितनी  आसानी  से।

मुझको  घर  में  मात-पिता  तो  लगते हैं,
राजभवन    में    बैठे    राजा - रानी   से।

रखनी  पड़ती   है  लहजे  में   नरमी   भी,
काम  नहीं  होते  सब  सख़्त  ज़ुबानी से।

ज़ेहन को हरदम कसरत करनी पड़ती है,
शेर     नहीं    होते   इतनी   आसानी   से।

होना   है   सफ़   में  शामिल  तैराकों  की,
और   उन्हें  डर  भी  लगता  है  पानी  से।
                     ---–-ओंकार सिंह विवेक
https://vivekoks.blogspot.com/?m=1

December 14, 2020

सब्र का सरमाया

ग़ज़ल**ओंकार सिंह विवेक
  मोबाइल 9897214710

सब्र  करना  जाने  क्यों  इंसान  को  आया  नहीं,
जबकि इससे बढ़के जग में कोई सरमाया नहीं।

आदमी  ने  नभ  के  बेशक  चाँद-तारे  छू  लिए,
पर  ज़मीं  पर  आज  भी रहना उसे आया नहीं।

धीरे - धीरे  गाँव   भी  सब  शहर  जैसे  हो  गए,
अब  वहाँ  भी  आँगनों  में नीम  की छाया नहीं।

लोग  कहते   हों  भले  ही  चापलूसी  को  हुनर,
पर  कभी उसको हुनर हमने तो बतलाया नहीं।

ज़हर  नफ़रत  का  बहुत उगला गया तक़रीर में,
शुक्र  समझो  शहर  का  माहौल  गरमाया नहीं।

देखलीं  करके   उन्होंने  अपनी  सारी  कोशिशें,
झूठ  का  पर  उनके हम पर रंग चढ़ पाया नहीं।
                                  ----ओंकार सिंह विवेक

www.vivekoks.blogspot.com

November 29, 2020

सर्दियाँ कैसे होंगी पार


दोहे सर्दी के
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                   ----ओंकार सिंह विवेक
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  मचा  दिया   कैसा  यहाँ , कुहरे  ने  कुहराम,
  दिन  निकले ही लग रहा,घिर आई हो शाम।
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   हर पल बढ़ता देखकर ,शीत लहर का ताव,
   गली-सड़क के मोड़ पर,जलने लगे अलाव।
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   गर्म  सूट  में  सेठ  का , जीना  हुआ  मुहाल,
   पर  नौकर  ने  शर्ट  में, जाड़े  दिए  निकाल।
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   सोचें  जैकब -हाशमी , नानक -रामस्वरूप,
   सूरज निकले तो तनिक,सेकें  हम  भी धूप।
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   तिल  के  लड्डू -रेवड़ी ,  मूँगफली -बादाम,
   तन   को  देते   हैं  बहुत ,  सर्दी  में  आराम।
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   तन  पर  लिपटे  चीथड़े, और शीत की मार,
   निर्धन   सोचे   सर्दियाँ  ,  कैसे   होंगी  पार।
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   जब  कुहरे  ने  रात-दिन,खेला शातिर खेल,
   पड़ी  काटनी सूर्य  को , कई-कई दिन जेल।
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                          ------ओंकार सिंह विवेक
                                  (सर्वाधिकार सुरक्षित)
  

November 20, 2020

दर्द का अहसास


ग़ज़ल-संग्रह "दर्द का अहसास" का विमोचन -------------------------------------
मेरे प्रथम ग़ज़ल-संग्रह "दर्द का अहसास" का विमोचन मेरे पिताजी श्री पी0 एल0 सैनी द्वारा किया गया।कोरोना काल को दृष्टिगत रखते हुए मैंने कोई बड़ा आयोजन न करते हुए पुस्तक का विमोचन दीपावली के शुभ अवसर पर अपने पिताश्री के कर कमलों द्वारा घर पर ही परिजनों की उपस्थिति में सादगी पूर्ण ढंग से सम्पन्न कराया।
प्रमुख साहित्यकारों /ग़ज़लकारों द्वारा की गयी मेरी ग़ज़लों की समीक्षा के कुछ  अंश यहाँ उदधृत हैं---
      तेज़ इतनी न क़दमों की रफ़्तार हो,
      पाँव की  धूल का सर पे अंबार हो।

      न  बन  पाया कभी दुनिया के जैसा,
      तभी तो मुझको दिक़्क़त हो रही है।

      शिकायत  कुछ  नहीं  है जिंदगी से,
      मिला जितना मुझे हूँ ख़ुश उसी से।

ओंकार सिंह विवेक भाषा के स्तर पर साफ़-सुथरे रचनाकार हैं।अगर वह इसी प्रकार महनत करते रहे तो निश्चय ही एक दिन अग्रणी ग़ज़लकारों में शामिल होने के दावेदार होंगे।
                                        -----  अशोक रावत,ग़ज़लकार (आगरा)
सोचता हूँ अब हवा को क्या हुआ,
गुलसिताँ  में  ज़र्द  हर पत्ता हुआ।

तंगहाली  देखकर  माँ - बाप की,
बेटी को यौवन लगा ढलता हुआ।

भरोसा  जिन  पे करता जा रहा हूँ,
मुसलसल उनसे धोखा खा रहा हूँ।

ओंकार सिंह विवेक के यहाँ जदीदियत और रिवायत की क़दम क़दम पर पहरेदारी नज़र आती है।उनकी संवेदनशील दृष्टि ने बड़ी बारीकी के साथ हालात का परीक्षण किया है।
                          ----शायर(डॉ0 )कृष्णकुमार नाज़ (मुरादाबाद )
उसूलों  की   तिजारत  हो  रही  है,
मुसलसल यह हिमाक़त हो रही है।

बड़ों  का   मान  भूले  जा  रहे   हैं,
ये क्या तहज़ीब हम अपना रहे हैं।

 इधर  हैं झुग्गियों  में  लोग भूखे,
 उधर महलों में दावत हो रही है।

ओंकार सिंह विवेक की ग़ज़लों में वर्तमान अपने पूरे यथार्थ   के साथ उपस्थित है। मूल्यहीनता, सामाजिक विसंगति, सिद्धांतहीनता, नैतिक पतन, सभ्यता और संस्कृति का क्षरण आदि ; आज का वह सब जो एक संवेदनशील व्यक्ति को उद्वेलित करता है,उनकी शायरी में मौजूद है।                  
             ----- साहित्यकार अशोक कुमार वर्मा,आई0 पी0 एस0      (सेनानायक,30 वीं वाहिनी पी0ए0सी0,गोण्डा) 

विशेष---ग़ज़ल संग्रह लिस्टिंग के बाद शीघ्र ही फ्लिपकार्ट पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। फ़िलहाल पुस्तक को गूगल पे अथवा पेटीएम द्वारा ₹200.00 (₹150.00 पुस्तक मूल्य तथा ₹50.00 पंजीकृत डाक व्यय) का मोबाइल संख्या 9897214710 पर भुगतान करके प्राप्त किया जा सकता है।
अधिक जानकारी के लिए मोबाइल संख्या 9897214710 पर सम्पर्क कर सकते हैं।

October 26, 2020

रौशनी फूटेगी इस अँधियार से


रौशनी फूटेगी इस अँधियार से
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                                      ------ ओंकार सिंह विवेक
"यह काम बहुत मुश्किल है,मैं इसमें सफल नहीं हो सकता।"
"मैंने प्रयास करके देख लिया ।इस काम में मुझे आगे भी असफलता ही हाथ लगेगी।"
"भाई क्या किया जाए हमारे मुक़द्दर में तो कामयाबी लिखी ही नहीं है। आख़िर कब तक कोशिश जारी रखें।"
लोगों के इस तरह के नकारात्मक कथन हम अक्सर ही सुनते हैं।एक बार को तो ऐसी निराशावादी सोच अच्छे -अच्छों के विश्वास को हिला देती है।जो लोग उत्साह के साथ किसी काम को करने की तैयारी में होते हैं वे भी दूसरों के मुँह से ऐसी निराशावादी बातें सुनकर हौसला खोने लगते हैं।लेख के प्रारम्भ में मैंने जिन कथनों का उल्लेख किया है ,ऐसे विचार कदापि किसी के मन में नहीं आने चाहिए।यह काम बहुत मुश्किल है ,यह मैं नहीं कर सकता आदि आदि----ऐसी भावना मन में रखकर कभी काम शुरू नहीं करना चाहिए।चाहे काम कितना भी मुश्किल क्यों न हो पूरे उत्साह और अपनी शत-प्रतिशत सामर्थ्य के साथ आशावादी रहते हुए प्रारम्भ करना चाहिए।यदि सोच सही होगी तो निश्चित ही सफलता की संभावना अधिक रहेगी।यदि पूर्ण समर्पित प्रयास के बाद भी सफलता प्राप्त न हो तो भी घबराने या दिल छोटा करने जैसी बात मन में नहीं आनी चाहिए।संसार में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब लोगों को लक्ष्य हासिल करने से पहले कई-कई बार असफलता का सामना करना पड़ा है तब कहीं जाकर सफलता हासिल हुई है।इस बीच ऐसे लोगों ने संघर्ष और प्रयास करने नहीं छोड़े वरन दूने उत्साह से फिर प्रयास करने के संकल्प लिए।घोर अँधेरों के बीच से ही रौशनी की किरण फूटती है अतः हमें विपत्ति या असफलता में कभी साहस नहीं छोड़ना चाहिए।सोना भी पहले लगातार आग पर तपता है तब कहीं जाकर उसमें चमक आती है ।संसार में जब हमने तमाम सफल लोगों की कहानियाँ पढ़ीं और सुनीं तो पाया कि उन्हें सफल होने से पहले सैकड़ों असफलताएँ और रिजेक्शन झेलने पड़े थे।लोगों ने उनसे यहाँ तक कह दिया था कि तुम्हारे अंदर ऐसी क्षमता है ही नहीं की इस काम को अंजाम दे सको।मगर उन सफल लोगों ने बताया कि ऐसी बातों ने उनके अंदर एक नया स्पार्क पैदा किया ।उन्होनें ऐसी बातों को चुनौती के रूप में स्वीकार किया और वे दूने उत्साह से प्रयास करने में जुटे जिसके परिणामस्वरूप उन्हें सफलता का स्वाद चखने को मिला।
अतः किसी भी दशा में हमें अपना लक्ष्य पाने के प्रयास को कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहिए।
मैंने साहस और संघर्ष को बनाए रखने की बातें अपनी शायरी में अक्सर ही कहीं हैं अतः अपनी  कुछ अलग-अलग ग़ज़लों के अशआर उदधृत करते हुए बात समाप्त करता हूँ--
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हो अगर साहस तो संकट हार जाते हैं सभी,
रुक नहीं  पाते  हैं कंकर तेज़ बहती धार में।
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चीर कर पत्थर का सीना बह रही जो शान से,
प्रेरणा  ले  उस  नदी  से  संकटों को पार कर।
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रख ज़रा नाकामियों में हौसला,
रौशनी फूटेगी इस अँधियार से।
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            ----दोस्तो आज इतना ही ,मिलते हैं कल फिर किसी विषय पर सार्थक चर्चा के लिए🙏🙏
----ओंकार सिंह विवेक

October 22, 2020

विडंबना

💥विडंबना💥
                     ----ओंकार सिंह विवेक
नमस्कार मित्रो🙏🙏

यह एक विडंबना ही है कि आज सब लोग विरोधाभासों के बीच जी रहे हैं।अक्सर लोग दूसरों को सच्चाई और साफ़गोई की नसीहत देते हैं परंतु उन्हें स्वयं चापलूसी पसंद आती है।ऐसा भी देखने में आता है कि लोग ख़ुद तो किसी से बातचीत का तरीक़ा नहीं जानते परंतु दूसरों को बातचीत करने के सलीक़े पर ज़ोरदार भाषण देते हैं।आज मनुष्य के लक्ष्यहीन होने की यह स्थिति है कि वह उन रास्तों पर दौड़ा चला जा रहा है जिन रास्तों की मंज़िल का ही कोई पता नहीं है।आज आदमी के धैर्य,साहस और संयम तो जैसे चुक ही गए हैं।जीवन में ज़रा सी भी असफलता या नाकामी मिलने पर हाथ-पाँव छोड़कर बैठ जाता है।जबकि नई ऊर्जा के साथ यह सोचकर पुनः प्रयास करना चाहिए कि असफलता का अँधेरा ही मनुष्य के जीवन में सफलता की रौशनी के द्वार खोलता है।
यदि हम व्यक्ति के जीवन में त्याग या क़ुर्बानी की भावना की बात करें तो खिलते फूलों से अच्छी त्याग या क़ुर्बानी की प्रेरणा हमें भला और कौन दे सकता है जो मसलने वाले के हाथों को ही महका देते हैं।
काश!ऐसे ही दृष्टांतों से प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन को सुंदर बना सकें।
शेष कल------
//*******ओंकार सिंह विवेक

इन्हीं भावों को लेकर कही गई मेरी ताज़ा ग़ज़ल पढ़िए-👎👎
(ग़ज़ल के पहले शेर के दूसरे मिसरे में सदा के स्थान पर यहाँ पढ़ा जाए)

October 19, 2020

पुस्तक के बहाने


वक़्त से पहले कोई काम पूरा नहीं होता।लगभग एक वर्ष पूर्व मैंने अपने  प्रथम ग़ज़ल संग्रह को प्रकाशित कराने का निश्चय किया था।कुछ पारिवारिक व्यस्तताओं और लंबे कोरोना काल के कारण यह काम टलता चला जा रहा था।अब कुछ परिस्थितियाँ सामान्य होने पर पुनः एकाग्रता के साथ प्रयास किए हैं।सब कुछ ठीक रहता है तो नए वर्ष के प्रथम सप्ताह में मेरा ग़ज़ल संग्रह "दर्द का अहसास" प्रतिक्रिया हेतु सभी शुभचिंतकों के संमुख आ जाएगा।इस अवसर पर मुझे यह सूचना साझा करते हुए ऐसी ही ख़ुशी का अनुभव हो रहा है जैसे परिवार में संतान के पैदा होने पर होता है।एक कवि या लेखक को अपनी पुस्तकें अपनी संतान जितनी ही प्रिय होती हैं। यहाँ आप सब की प्रतिक्रिया हेतु किताब का मुखपृष्ठ  साझा कर रहा हूँ।

    इंसानियत के फ़र्ज़ का आभास लिख दिया,
    रिश्तों  के टूटने  का भी संत्रास  लिख दिया।
    जब  फ़िक्र  की उड़ान बढ़ी उसके फ़ज़्ल से,
    मैंने  जहाँ के दर्द  का अहसास लिख दिया।
                              -----ओंकार सिंह विवेक

October 15, 2020

सरोकार मानवीय संवेदनाओं से


सरोकार मानवीय संवेदनाओं से ----
                                            *****ओंकार सिंह विवेक
सोचा आज फिर कोई मानवीय संवेदना और सरोकार से जुड़ी बात की जाए----------
हमारे अनमोल जीवन की सार्थकता इस बात में है कि हम एक दूसरे  के दुःख-दर्द को बाँटकर जीने की कला विकसित करें।दूसरों के दुख-दर्द को महसूस करके उसमें सहभागी बनने से जो ख़ुशी का भाव स्वयं के भीतर उत्पन्न होता है उसको बयान करना बहुत मुश्किल है।इस कला को अपने भीतर विकसित करने के लिए हमें अपने मन में बैठे छल ,कपट और द्वेष के भावों को दूर करना होगा।अगर ये भाव मन में घर जमाकर बैठे रहेंगे तो दया और परोपकार के  भाव तो हमारे मन के दरवाज़े से ही वापस लौट जाएँगे। इस कड़ी में वाणी में मिठास के द्वारा अपने व्यक्तित्व का शृंगार करना भी अति आवश्यक है।हमारी वाणी से निकला प्रत्येक शब्द ऐसा  हो कि  सुनने वाले व्यक्ति का तन और मन प्रफुल्लित हो उठे। व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिए इन गुणों का अपने अंदर  विकास करते समय हमारे सामने अनेक बाधाएँ एवं संकट आ सकते हैं परंतु उनका हमें इस प्रकार सामना करना होगा जैसे एक नदी कंकरों और पत्थरों का सीना चीरकर बिना विचलित  हुए पूरे वेग से बहती रहती है।
आज लोग अपने अंदर दया और प्रेम जैसे मानवीय गुणों का निरंतर ह्रास होने के  कारण  मानवता पर नफ़रतों के वार करके उसे घायल कर रहे हैं।ज़रूरत है कि हम सब मिलकर  प्रेम और सद्भाव रूपी औषधियों के द्वारा नफ़रत के प्रहार से घायल हुई मानवता का उपचार करके उसका जीवन बचाएँ।
प्रसंगवश अपनी ग़ज़ल के दो शेरों को उदधृत करते हुए बात समाप्त करता हूँ--

           हो सके  जितना भी तुझसे उम्र भर उपकार कर,
           बाँट  कर  दुख-दर्द  बंदे  हर किसी से प्यार कर।

           नफ़रतों   की  चोट  से   इंसानियत  घायल   हुई,
           ज़िंदगी  इसकी   बचे   ऐसा  कोई  उपचार  कर।
                               🙏🙏💥💥ओंकार सिंह विवेक

आओ कुछ बातें करें

October 9, 2020

प्रथम पुरस्कार प्राप्त ग़ज़ल


"अनकहे शब्द" संस्था द्वारा प्रथम पुरस्कार हेतु चुनी गई मेरी ग़ज़ल का आप भी आनंद लीजिए---
ग़ज़ल प्रतियोगिता: 62
      ----ग़ज़ल***ओंकार सिंह विवेक
कुछ  मीठा  कुछ  खारापन  है,
क्या क्या स्वाद लिए जीवन है।

 कैसे   आँख   मिलाकर  बोले,
 साफ़ नहीं जब उसका मन है।

 उनसे    ही   तो   शिकवे  होंगे,
 जिनसे   थोड़ा  अपनापन  है।

 धन  ही  धन है इक तबक़े पर,
 इक  तबक़ा  बेहद  निर्धन  है।

 सूखा  है  तो  बाढ़  कहीं  पर,
 बरसा  यह  कैसा  सावन  है।

कल  निश्चित ही  काम  बनेंगे,
आज भले ही कुछ अड़चन है।

दिल  का  है वह साफ़,भले ही,
लहजे  में  कुछ  कड़वापन  है।
        ----ओंकार सिंह विवेक
          (सर्वाधिकार सुरक्षित)

October 8, 2020

क्या करें वक़्त ही नहीं मिलता

क्या करें वक़्त ही नहीं मिलता
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                     ----ओंकार सिंह विवेक
मैंने इंटरमीडिएट तो कर रखा है।इधर काफ़ी दिनों  से प्राइवेट बी0 ए0 करने की सोच रहा हूँ परंतु पढ़ाई का समय ही नहीं मिलता। मेरा वज़्न लगातार बढ़ रहा है जिससे कुछ शारीरिक परेशानियाँ भी बढ़ रही हैं।कब से जिम ज्वाइन करने की सोच रहा हूँ पर समय ही नहीं निकाल पा रहा हूँ।मुझे बचपन से ही गायन और वादन में रुचि रही है ।पढ़ाई के दबाव के कारण विद्यार्थी जीवन में तो अपने इस शौक़ को मैं परवान न चढ़ा सकी।सोचा था बाद में ज़रूर मैं गायन और वादन को मनोयोग से सीखकर अपने शौक़ को पूरा करूँगी लेकिन अब शादी के बाद तो घर-गृहस्थी और बच्चों की देखभाल में ही सारा समय निकल जाता है।अपनी रुचि को पूरा करने का बिल्कुल भी समय नहीं मिल पाता।
किसी काम को न करने या न सीखने के पीछे ऐसे  ही तमाम अव्यवहारिक कारण लोग अक्सर ही गिनाते मिल जाएँगे।
दुनिया में हर व्यक्ति को अपने क्रिया-कलापों को करने के लिए चौबीस घंटे का समय ही उपलब्ध है।ऐसा बिल्कुल नहीं है कि संसार में जिन व्यक्तियों ने साधारण से हटकर कुछ  किया है उनके पास रात और दिन को मिलाकर चौबीस घंटे से अधिक समय रहा है।उन्होंने चौबीस घंटों में से ही सारे दैनिक क्रिया-कलापों को करने के बाद कुछ असाधारण करने के लिए भी समय निकाला है।अतः यह बात तो यहीं ग़लत साबित हो जाती है कि क्या करें हमें तो कुछ अलग करने के लिए वक़्त ही नहीं मिलता।
हम असाधारण काम करने वाले लोगों के साक्षात्कार और जीवनियाँ पढ़कर उनके द्वारा कार्य निष्पादन हेतु किए गए समय प्रबंधन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। दरअस्ल किसी विशेष उपलब्धि को हासिल करने या अपने शौक़ को पूरा करने के लिए कहीं से या किसी से समय मिलता नहीं है अपितु समय निकालना पड़ता है अर्थात समय का प्रबंधन (Management)करना पड़ता है।हम अपने  देश के प्रधानमंत्री श्री मोदी जी के बारे में अक्सर पढ़ते हैं कि वह सिर्फ़ चार घंटे ही सोते हैं।इस प्रकार हम देखते हैं कि वह अपने सोने के समय में से भी कई घंटे अन्य असाधारण कामों के लिए निकाल लेते हैं।यह उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति और अनुशासित जीवन शैली के कारण ही संभव हो पाता है।ऐसे ही अनेक महापुरुषों,खिलाड़ियों और वैज्ञानिकों आदि के उदाहरण हमारे सामने मौजूद हैं जिनसे प्रेरणा लेकर हम बेहतर टाइम मैनेजमेंट करके अपने जीवन को औरो से भिन्न बना सकते हैं।अगर हम समय का सही प्रबंधन करना सीख लें  तो कभी किसी से यह नहीं कहना पड़ेगा कि क्या करें हमें तो अमुक काम करने के लिए समय ही नहीं मिलता। 
प्रसंगवश मेरे कुछ शेर प्रस्तुत हैं----
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ज़िंदगी अपनी  बदलना सीखिए,
वक़्त के साँचे में ढलना सीखिए।

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क़द्र जितनी भी हो सके कीजे,
वक़्त गुज़रा तो फिर न आएगा।

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               ------ओंकार सिंह विवेक🙏🙏

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