💥विडंबना💥
----ओंकार सिंह विवेक
नमस्कार मित्रो🙏🙏
यह एक विडंबना ही है कि आज सब लोग विरोधाभासों के बीच जी रहे हैं।अक्सर लोग दूसरों को सच्चाई और साफ़गोई की नसीहत देते हैं परंतु उन्हें स्वयं चापलूसी पसंद आती है।ऐसा भी देखने में आता है कि लोग ख़ुद तो किसी से बातचीत का तरीक़ा नहीं जानते परंतु दूसरों को बातचीत करने के सलीक़े पर ज़ोरदार भाषण देते हैं।आज मनुष्य के लक्ष्यहीन होने की यह स्थिति है कि वह उन रास्तों पर दौड़ा चला जा रहा है जिन रास्तों की मंज़िल का ही कोई पता नहीं है।आज आदमी के धैर्य,साहस और संयम तो जैसे चुक ही गए हैं।जीवन में ज़रा सी भी असफलता या नाकामी मिलने पर हाथ-पाँव छोड़कर बैठ जाता है।जबकि नई ऊर्जा के साथ यह सोचकर पुनः प्रयास करना चाहिए कि असफलता का अँधेरा ही मनुष्य के जीवन में सफलता की रौशनी के द्वार खोलता है।
यदि हम व्यक्ति के जीवन में त्याग या क़ुर्बानी की भावना की बात करें तो खिलते फूलों से अच्छी त्याग या क़ुर्बानी की प्रेरणा हमें भला और कौन दे सकता है जो मसलने वाले के हाथों को ही महका देते हैं।
काश!ऐसे ही दृष्टांतों से प्रेरणा लेकर हम अपने जीवन को सुंदर बना सकें।
शेष कल------
//*******ओंकार सिंह विवेक
इन्हीं भावों को लेकर कही गई मेरी ताज़ा ग़ज़ल पढ़िए-👎👎
(ग़ज़ल के पहले शेर के दूसरे मिसरे में सदा के स्थान पर यहाँ पढ़ा जाए)
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-१०-२०२०) को 'स्नेह-रूपी जल' (चर्चा अंक- ३८६४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
आदरणीया अत्यधिक आभारी हूँ आपका।
ReplyDeleteसादर
ओंकार सिंह सैनी विवेक
अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteवाह शानदार सटीक भूमिका के साथ उम्दा सार्थक ग़ज़ल।
ReplyDeleteआदरणीया अत्यधिक आभारी हूँ आपका🙏🙏
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