ग़ज़ल---ओंकार सिंह विवेक
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सुख का है क्या साधन जो अब पास नहीं,
जीवन मे फिर भी पहले-सा हास नहीं।
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मुजरिम भी जब उसमे जाकर बैठेंगे,
क्या संसद का होगा फिर उपहास नहीं?
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कर लेते हैं ख़ूब यकीं अफ़वाहों पर,
लोगों को सच पर होता विश्वास नहीं।
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दरिया को जो अपनी ख़ुद्दारी बेचे,
मेरे होठों पर हरगिज़ वो प्यास नहीं।
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उठ ही आना था फिर उनकी महफ़िल से,
रंग हमे जब उसका आया रास नहीं।
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कोई बदलता है दिन मे दस पोशाकें,
पास किसी के साबुत एक लिबास नहीं।
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ध्यान-भजन-पूजा-अर्चन हैं व्यर्थ सभी,
मन मे जब तक सच्चाई का वास नहीं।
🌷 ---ओंकार सिंह विवेक
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