February 17, 2022

सिन्फ़-ए-नाज़ुक

फ़ारसी,अरबी और उर्दू से होती हुई ग़ज़ल आज हिंदी देवनागरी में 
भी ख़ूब धूम मचा रही है।बड़े-बड़े शायरों के ग़ज़ल संग्रह आज हिंदी में छप रहें हैं और आम लोगों को पढ़ने के लिए सुलभ हो रहे हैं।अगर मैं यह कहूँ की हिंदी में जब से ग़ज़ल कही जाने लगी है तब से इसे और ऊँचाइयाँ हासिल हुई हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
ग़ज़ल कहते वक़्त शब्दों को बड़ी कुशलता से बरतना होता है।मफ़हूम,शिल्प,कहन और अशआर में शब्दों का चयन ही ग़ज़ल को हुस्न बख़्शता है।निरंतर अभ्यास के बाद भी हम ग़ज़ल कहने में उसके मिज़ाज के हिसाब से  शब्दों के चयन में अक्सर चूक जाते हैं जिसकी वजह से इस सिन्फ़-ए-नाज़ुक(ग़ज़ल )के साथ न्याय नहीं कर पाते।मैं भरसक कोशिशों के बाद भी अभी अपनी ग़ज़लों को वो रंग नहीं दे पा रहा हूँ जिसकी वे हक़दार हैं।कोशिश जारी है ,उम्मीद है कि एक न एक दिन कामयाबी ज़रूर मिलेगी।
आज की ताज़ा ग़ज़ल आपकी समाअतों के हवाले--

 ग़ज़ल--©️ ओंकार सिंह विवेक
              ©️ 
             दुश्मनों   से    तो   नहीं   है    कोई   ऐसा   डर   मुझे,
             हाँ, डराते  हैं   मगर   अहबाब   कुछ   अक्सर   मुझे।

             आदमी  के  ज़ुल्म   धरती  पर  भला  कब  तक सहूँ,
             गंग कहती  है , बचा   लो  आज  शिव  आकर  मुझे।

             थे   कँगूरों    की     बुलंदी    देखने    मे    मस्त   वो,
             और  याद  आते    रहे   बुनियाद   के   पत्थर   मुझे।
              ©️ 
             काश!हो मेरे भी  सर  को  अब  तो कोई  छत नसीब,
             कब  तलक  फुटपाथ   को  कहना  पड़ेगा  घर  मुझे।

             हो  मेरी   भी  दस्तरस   मे   ये  अदब   का  आसमां,
           रब की जानिब से अता हों फ़िक्र-ओ-फ़न के पर मुझे।

             सच कहूँ  तो और  भी  अच्छी  लगी  अपनी  ग़ज़ल,
             जब  सुनाई  साज़   पर    मद्दाह   ने   गाकर   मुझे।

             या तो  बेहिस हो  गए हैं  सब  मकीं  ही अब विवेक,
             खटखटाना  ही  नहीं   आता  है   या  फिर  दर मुझे।
                                      --   ©️ ओंकार सिंह विवेक                 
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