February 20, 2022

निर्धन की क्या दीवाली है

नमस्कार मित्रो 🙏🙏 
आज फिर जनसरोकारों से जुड़ी एक छोटी
बह्र की ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले🙏🙏🌺🌺🌷🌷
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ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
फ़ेलुन ×4
2   2   2      2   2  2  2  2
खेतों   की   जो  हरियाली  है,
हरिया  के  मुख  की लाली है।

लूट  रहे  हैं  नित  गुलशन को,
जिनके  ज़िम्मे   रखवाली  है।

आस है  इन सूखी फ़सलों की,
नभ  मे  जो  बदली  काली है।

दे  जो  सबको  अन्न  उगाकर,
उसकी  ही   रीती   थाली  है।

याद  कभी  बसती थी उनकी,
अब  मन का आँगन ख़ाली है।

पूछो   हर्ष  धनी   से   इसका,
निर्धन  की  क्या  दीवाली  है।

फँस  जाती है चाल  मे उनकी,
जनता  भी  भोली -भाली  है।
         ---ओंकार सिंह विवेक

8 comments:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (21-02-2022 ) को 'सत्य-अहिंसा की राहों पर, चलना है आसान नहीं' (चर्चा अंक 4347) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. वाह! बहुत बढ़िया कहा सर।
    सादर

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  3. बेहतरीन ग़ज़ल! लाजवाब आलेख आदरणीय!💐💐

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    1. माहिर साहब हार्दिक आभार 🙏🙏

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