आज फिर जनसरोकारों से जुड़ी एक छोटी
बह्र की ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले🙏🙏🌺🌺🌷🌷
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ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
फ़ेलुन ×4
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खेतों की जो हरियाली है,
हरिया के मुख की लाली है।
लूट रहे हैं नित गुलशन को,
जिनके ज़िम्मे रखवाली है।
आस है इन सूखी फ़सलों की,
नभ मे जो बदली काली है।
दे जो सबको अन्न उगाकर,
उसकी ही रीती थाली है।
याद कभी बसती थी उनकी,
अब मन का आँगन ख़ाली है।
पूछो हर्ष धनी से इसका,
निर्धन की क्या दीवाली है।
फँस जाती है चाल मे उनकी,
जनता भी भोली -भाली है।
---ओंकार सिंह विवेक
गहन भाव लिए उम्दा ग़ज़ल ।
ReplyDeleteआभार आदरणीया
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (21-02-2022 ) को 'सत्य-अहिंसा की राहों पर, चलना है आसान नहीं' (चर्चा अंक 4347) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:30 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
शुक्रिया यादव जी
Deleteवाह! बहुत बढ़िया कहा सर।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार आपका
Deleteबेहतरीन ग़ज़ल! लाजवाब आलेख आदरणीय!💐💐
ReplyDeleteमाहिर साहब हार्दिक आभार 🙏🙏
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