December 19, 2021

एक नवगीत सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के नाम

आज एक नवगीत सामाजिक विरोधाभासों
 और विसंगतियों के नाम
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 ---  ©️ओंकार सिंह विवेक
सच की फौजों पर अब,  
झूठों का दल भारी है।              

सड़क  गाँव  तक  आकर,
नागिन-सी फुँफकार भरे।
पगडंडी बेचारी,
थर-थर  काँपे और डरे।
नवयुग में  विकास  की,
यह अच्छी तैयारी है।

जनता को तो देता,
केवल वादों की गोली।
और हरे नोटों से,
भरता नित अपनी झोली।
जनसेवक है या फिर,
वह कोई  व्यापारी है?

रहा तगादे* वाली,
चाबुक से वह डरा-डरा।
ख़ुद भूखा भी सोया,
पर क़िस्तों का पेट भरा।
होरी पर बनिए की,
फिर भी शेष उधारी है।
  -----©️ओंकार सिंह विवेक

*मूल शुद्ध शब्द तक़ाज़ा है 
परंतु हिंदी में तगादा भी मान्य है
चित्र--गूगल से साभार
चित्र-गूगल से साभार




December 13, 2021

घर से निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर

मित्रो सादर प्रणाम🙏🙏
समाज में या हमारे आस-पास जो कुछ घटित हो रहा होता है
यों तो उसे सभी देखते हैं परंतु एक साहित्यकार हर घटना या
दृश्य को एक ख़ास नज़रिए से देखता है।यही ख़ास नज़रिया
उसकी सृजनशीलता को उड़ान देता है।एक रचनाकार की
नज़र में हर आम बात या घटना भी कुछ ख़ास होती है।अपने
आस-पास से प्रेरणा लेकर मन में मंथन हुआ और फिर एक 
नई ग़ज़ल हो गई जो आपकी अदालत में पेश है--
ग़ज़ल--ओंकार सिंह विवेक
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घर  से  निकल पड़े हैं तीर-ओ-कमान लेकर,
मानेंगे  पंछियों  की  वे  अब  उड़ान  लेकर।

वहशत  अगर  नहीं  है  तो बोलिए ये क्या है,
ख़ुश  हो  रहा  है इंसां, इंसां की जान लेकर।

होगा  नहीं   यक़ीनन  वो  आपके  मुताबिक़,
क्या  कीजिएगा  हज़रत  मेरा  बयान  लेकर।
©️
हरगिज़ न साथ जाएगा ,दोस्त वक़्ते-आख़िर,
जिस धन का जी रहे हो मन  में गुमान लेकर।

मजबूर  हो  गया  है  फुटपाथ  पर  बसर को,
क़र्ज़े  ने  जान  उसकी  छोड़ी  मकान  लेकर।

दफ़्तर में  काम  का नित रहता है बोझ इतना,
घर लौटते  हैं  अक्सर  ज़ेहनी  थकान  लेकर।
       --- ©️ओंकार सिंह विवेक


December 11, 2021

सर्दी का नवगीत : अलसाई-सी धूप

आज एक नवगीत : सर्दी के नाम
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      --  ©️ओंकार सिंह विवेक
छत पर आकर बैठ गई है,
अलसाई-सी धूप।

सर्द हवा खिड़की से आकर,
मचा रही है शोर।
काँप रहा थर-थर कुहरे के,
डर से प्रतिपल भोर।
दाँत बजाते घूम रहे हैं,
काका रामसरूप।

अम्मा देखो कितनी जल्दी,
आज गई हैं जाग।
चौके में बैठी सरसों का,
घोट रही हैं साग।
दादी छत पर  ले आई हैं,
नाज फटकने सूप।

आए थे पानी पीने को,
चलकर मीलों-मील।
देखा तो जाड़े के मारे,
जमी हुई थी झील।
करते भी क्या,लौट पड़े फिर,
प्यासे वन के भूप।
    ---  ©️ओंकार सिंह विवेक

चित्र--गूगल से साभार

December 9, 2021

दोहे सर्दी के

     दोहे सर्दी के
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         --ओंकार सिंह विवेक
(सर्वाधिकार सुरक्षित)
चल  उठ  देनी  है  हमें, अब सर्दी  को  मात,
बहिन  रज़ाई  कह रही ,कंबल से यह  बात।

थोड़ा-सा   साहस  जुटा , किए  एक-दो  वार,
कुहरा  लेकिन  अंत  में , गया  सूर्य  से  हार।

सर्द   हवा   ने   दे  दिया , जाड़े   का  पैग़ाम,
मिल जाएगा कुछ  दिनों ,कूलर को  आराम।

हाड़  कँपाती   ठंड   में , खींचेंगे   सब  कान,
गीजर अपने स्वास्थ्य का,रखना थोड़ा ध्यान।

मूँगफली   कहने  लगी , सुन  ले  ए  बादाम,
मैं तुझ से कम दाम में,करती तुझ-सा काम।

गर्म  सूट में  सेठ का , जीना  हुआ   मुहाल,
नौकर  ने बस  शर्ट  में,जाड़े  दिए  निकाल।

मचा  दिया  कैसा  यहाँ , कुहरे  ने  कुहराम,
दिन निकले ही लग रहा,घिर आई  हो शाम।
 --ओंकार सिंह विवेक(सर्वाधिकार सुरक्षित)

चित्र--गूगल से साभार
 चित्र--गूगल से साभार

December 7, 2021

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव

वरिष्ठता-ज्ञान तथा अनुभव---एक विचार
साथियो यथायोग्य अभिवादन🙏🙏

आज अपने अनुभव के आधार पर एक संवेदनशील विषय पर कुछ लिखने का मन हुआ सो  लिख रहा हूँ। निश्चित तौर पर बहुत
से साथी मुझसे सहमत नहीं होंगे।मैं उनकी असहमति का सम्मान
करता हूँ क्योंकि किसी विषय में कुछ लोगों की  असहमति ही
एक नए विचार को जन्म देकर विमर्श का मार्ग प्रशस्त करती है।
     -- जैसे-जैसे आदमी ज़िंदगी में तमाम मुश्किलों से दो-चार होकर आगे बढ़ता है उसके अनुभव और आत्मविश्वास का भंडार बढ़ता जाता है। अनुभव मुश्किलों से टकराने और बिना रुके आगे बढ़ने में आदमी का मददगार साबित होता है।निःसंदेह वरिष्ठ व्यक्तियों के पास नए लोगों के मुक़ाबले अधिक अनुभव होता है। कनिष्ठ पीढ़ी का यह दायित्व बनता है कि वे वरिष्ठ लोगों का सम्मान करें और उनके अनुभव का लाभ उठाएँ।
यही अपेक्षा वरिष्ठ लोगों से भी की जाती है कि यदि किसी कनिष्ठ
के पास कोई नई जानकारी या ज्ञान है तो वे भी बिना उम्र को बीच मे लाए उसे सीखकर लाभ उठाएँ।
जहाँ तक ज्ञान का प्रश्न है यह अपेक्षाकृत भिन्न क्षेत्र है।निःसंदेह वरिष्ठ साथियो के पास  जीवन के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को लेकर नई पीढ़ी की अपेक्षा कई गुना अधिक अनुभव होता है।
परंतु किसी क्षेत्र में ज्ञान का जहाँ तक प्रश्न है वह एक कनिष्ठ व्यक्ति के पास भी वरिष्ठ जनों से अधिक हो सकता है।इस सत्य को स्वीकारने में कोई अहम आड़े नहीं आना चाहिए।
कई अवसरों पर यह देखने में आता है कि जब  कोई कनिष्ठ किसी  विशेष में अपने  विशेष ज्ञान के आधार पर किसी वरिष्ठ जन की  तथ्यात्मक त्रुटि की ओर विनम्रता से इंगित करता है तो वे इसे अन्यथा लेते हैं जो शायद ठीक नहीं है।
 कई वरिष्ठ जनों को ऐसे भी कहते सुना गया है की यह चार दिन का बच्चा हमारी ग़लती निकालने चला है या हमें सिखाने चला है। नए लोगों को तो बड़ों से बात करने की जैसे तमीज़ ही नहीं रह गई है---वगैरहा वगैरहा---।
वरिष्ठ जनों के मुँह से ऐसी बातें तब तो ठीक हैं जब किसी कनिष्ठ द्वारा कोई अशोभनीय या गरिमा के प्रतिकूल टिप्पणी की गई हो या फिर उसने अपने विशिष्ट ज्ञानार्जन के आधार पर  जो टिप्पणी की है वह तथ्यों के आधार पर ठीक न हो।यदि कनिष्ठ द्वारा कोई तथ्यपरक बात विनम्रता से कही गई हो तो वरिष्ठ जनों का भी यह दायित्व बनता है कि उसे अपने अहम से न जोड़ते हुए सह्रदयता से लें।
सीखना और सिखाना एक वृहद प्रक्रिया है जो जीवन भर चलती है।ज़रूरत इस बात की है हम सब एक-दूसरे का मान रखते हुए कुछ न कुछ एक-दूसरे से सीखते रहें।
वरिष्ठता,ज्ञान और अनुभव निःसंदेह एक दूसरे से जुड़े हैं।यह आपस में  पूरक तो हो सकते हैं परंतु जहाँ तक  ज्ञान और अनुभव का प्रश्न है ये एक दूसरे के समानार्थी कदापि नहीं हैं ,इस बात का ध्यान वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों को ही रखना होगा।
                ---ओंकार सिंह विवेक



December 4, 2021

माँ का आशीष फल गया होगा

दोस्तो हाज़िर है एक ताज़ा ग़ज़ल--

फ़ाइलातुन    मुफाइलुन    फ़ेलुन/फ़इलुन
ग़ज़ल-- ©️ओंकार सिंह विवेक

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माँ  का  आशीष   फल  गया  होगा,
गिर  के   बेटा   सँभल  गया   होगा।

ख़्वाब  में  भी  न  था  गुमां  मुझको,
दोस्त    इतना    बदल   गया  होगा।

छत  से    दीदार   कर   लिया  जाए,
चाँद  कब  का   निकल  गया  होगा।
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सच   बताऊँ   तो   जीत   से    मेरी,
कुछ का तो दिल ही जल गया होगा।

आईना    जो     दिखा    दिया   मैंने,
बस   यही  उसको  खल  गया होगा।

जीतकर    सबका   एतबार  'विवेक',
चाल   कोई   वो   चल    गया  होगा।    
            -- ©️ओंकार सिंह विवेक

December 1, 2021

आज कुछ दोहे यों भी

साथियो नमस्कार🙏🙏
आज काफ़ी दिन बाद किसी आवश्यक कार्य से  रामपुर-उ0प्र0 से गुरुग्राम-हरियाणा जाते समय कुछ दोहे सृजित हुए जो आपके साथ साझा करने का मन हुआ--
🌷कुछ दोहे🌷
                    ----©️  ओंकार सिंह विवेक
     🌹
      मँहगाई   को   देख  कर , जेबें  हुईं  उदास,
      पर्वों का  जाता  रहा, अब  सारा  उल्लास।
     🌹
     कोई सुनता  ही  नहीं , उसकी  यहाँ  पुकार,
     चीख-चीख कर रात-दिन, मौन गया है हार।
    🌹
     हाँ यह सच है इन दिनों ,बिगड़ी  है हर बात,
     लेकिन बहुरेंगे  कभी , अपने भी  दिन-रात।
    🌹
     मिली  कँगूरों को  सखे,तभी बड़ी पहिचान,
     दिया नीव  की ईंट ने,जब अपना बलिदान।
    🌹
               ---- ©️ ओंकार सिंह विवेक

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