दोस्तो नमस्कार🌷🙏
जिन साहित्यिक कार्यक्रमों में तरही मिसरे दिए जाते हैं उनमें हिस्सेदारी का एक बड़ा फ़ायदा यह होता है कि इस बहाने रचना/ग़ज़ल का सृजन हो जाता है।उसमें एक चुनौती रहती है कि अमुक पंक्ति/मिसरे पर बहुत से साहित्यकार अभ्यास करेंगे और ग़ज़ल कहेंगे सो हमें भी कुछ न कुछ कहना ही चाहिए।इस सोच के साथ जब चिंतन की उड़ान शुरू होती है तो ग़ज़ल मुकम्मल हो ही जाती है।
किसी दी हुई पंक्ति पर रचना कहना काव्य की पुरानी परंपरा है।इस बहाने साहित्यकारों का सृजन समृद्ध होता है। अलग - अलग साहित्यकारों की रचनाएं पढ़कर उनकी फ़िक्र का भी अंदाज़ा हो जाता है।
हाल ही में एक साहित्यिक पटल पर एक मिसरा/पंक्ति दी गई थी उस पर हुई ग़ज़ल के कुछ शेर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा के साथ पोस्ट कर रहा हूं :
नई ग़ज़ल के चंद अशआर
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फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
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अब कहाँ इसमें पाकीज़गी रह गई,
मस्लहत की फ़क़त दोस्ती रह गई।
लोग ज़ुल्मत के हक़ में खड़े हो गए,
देखकर दंग ये ,रौशनी रह गई।
कब हुईं दिल की पूरी सभी ख़्वाहिशें,
एक पूरी हुई दूसरी रह गई।
जिसने बाबू के संकेत समझे नहीं,
उसकी फ़ाइल ही नीचे दबी रह गई।
मंच पर चुटकुले और पैरोडियाँ,
आजकल बस यही शायरी रह गई।
--- ©️ ओंकार सिंह विवेक
Behatareen
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
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