March 16, 2024

स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी की स्मृतियों को नमन 🌹🌹🙏🙏

यूँ तो दुनिया में सभी आए हैं मरने के लिए
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स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी का स्मरण करते हुए महमूद रामपुरी साहब का यह शेर बार-बार याद आता है:
         मौत उसकी है करे जिसका ज़माना अफ़सोस,
         यूँ तो  दुनिया  में  सभी आए  हैं मरने के लिए।
                     --- महमूद रामपुरी 
नि:संदेह यह शेर मुरादाबाद जनपद के श्रेष्ठ साहित्यकार और सामाजिक चिंतक स्मृतिशेष शिशुपाल सिंह मधुकर जी(1958-2023) जैसे लोगों के लिए ही कहा गया होगा। यों तो सभी को इस नश्वर संसार से जाना है परंतु अच्छे लोग जब असमय हमें छोड़कर जाते हैं तो बहुत दुःख होता है। अभी तो समाज,साहित्य जगत और श्रमिक वर्ग के कल्याण को लेकर मधुकर जी के मन में न जाने कितने सार्थक विचार और योजनाएँ रहीं होंगी थीं जिन्हें मूर्त रूप दिया जाना शेष था। उनका यों अचानक चले जाना सबको स्तब्ध कर गया।
 (चित्र में कैप लगाए हुए स्मृतिशेष मधुकर जी तथा उनकी संस्था "संकेत" से वर्ष,2022 में सम्मानित होते हुए आपका अनुज ओंकार सिंह विवेक)

मेरा मुरादाबाद के साहित्यिक कार्यक्रमों में अक्सर 
आना-जाना होता रहता है। इसके चलते मैं मधुकर जी को  काफ़ी पहले से जानता था।लेकिन उन्हें नज़दीक से जानने और समझने का अवसर मुझे वर्ष, 2022 से मिला।वर्ष,2022 (माह तो ठीक से ध्यान नहीं) में मधुकर जी का फोन आया था कि "संकेत" संस्था के बैनर तले हम आपके साहित्यिक अवदान के लिए आपको "समृद्ध लेखनी सम्मान" से सम्मानित करना चाहते हैं।उसके बाद इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि और सामाजिक सरोकार आदि को लेकर उनसे कई बार फोन पर बात हुई।साझा संकलन "साधना के पथ पर" हेतु उन्हें अपनी रचनाएँ भी प्रेषित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।इस दौरान बीच-बीच में उनसे साहित्य और समाज के अंतर्संबंधों को लेकर बहुत चर्चा हुई।मधुकर जी भी मेरी तरह इस बात के पक्षधर थे की काव्य में केवल कलात्मकता और शब्दों की जादूगरी ही नहीं होनी चाहिए अपितु उसमें सामाजिक सरोकार भी दिखाई देने चाहिए। उनकी "अभिलाषाओं के पंख" और "अजनबी चेहरों के बीच" कृतियों ने साहित्य जगत में बड़ी पहचान बनाई।मधुकर जी के काव्य चिंतन की गहराई को जानने के लिए उनके दो मुक्तक देखें :                (1)

कोई सच छुप सकता कैसे झूठ की झीनी चादर से,         बार-बार छलकेगा पानी मित्रों अधजल गागर से।

  इतना  तो  हैं  सभी जानते ज्ञानी भी अज्ञानी भी,             कैसे तुलना कर सकती है कोई नदिया  सागर से।

               (2)

जीने का अब नया बहाना सीख लिया,

बीच ग़मों के भी मुस्काना सीख लिया।

रोते-रोते    कैसे    हँसना   है   हमको, 

हमने भी जज़्बात दबाना सीख लिया।

मधुकर जी की  ग़ज़ल के ये दो शेर उनके चिंतन की धार और तेवर जानने के लिए काफ़ी हैं :

     दुष्टों से टकराने वाले, लोग अभी तक ज़िंदा हैं।

   गीत न्याय के गाने वाले, लोग अभी तक ज़िंदा हैं।।

  हमें नींद की गोली देकर, कब तक आप सुलाएंगे,

  सबको रोज़ जगाने वाले, लोग अभी तक ज़िन्दा हैं।।

उनके काव्य सृजन में समाज के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति की ज़बरदस्त पैरवी देखने को मिलती है।अपनी रचनाओं में मधुकर जी ने सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर बड़ी गहरी चोट की है।बहुमुखी प्रतिभा के धनी मधुकर जी ने कुछ लघु फिल्मों में काम किया तथा लघु फिल्मों के लिए कहानियां और डायलॉग आदि भी लिखे। 

मधुकर जी श्रमिक और सर्वहारा वर्ग के शोषण को लेकर भी ख़ासे चिंतित दिखाई देते थे।उनके हितों को लेकर वे जीवन पर्यंत ट्रेड यूनियंस आदि में सक्रिय रहे। उनकी वाकपटुता, स्पष्टवादिता और सदाशयता से मैं काफ़ी प्रभावित रहा।
मधुकर जी की स्मृतियों को सादर नमन🌹🌹🙏🙏

ओंकार सिंह विवेक 
साहित्यकार
रामपुर(उत्तर










 




        





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